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श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना तान्नत्वेति । एतेषां च नमस्कारकरणमागमार्थोपदेष्टुत्वेनोपकारित्वात् । विशिष्टविशेषणोपादानं च शास्त्रस्य गौरवाधानार्थम्। शास्तुः प्राधान्येन हि शास्त्रस्याऽपि प्राधान्यं भवतीति भावः । अर्थस्य सूचनात्सूत्रं, तत्करणशीलाः सूत्रकराः, ते च स्वयंबुद्धादयोऽपि भवन्तीत्यत आह-गणधरास्ताँश्च नत्वेति । सामान्याचार्याणां गणधरत्वेऽपि तीर्थकरनमस्कारानंतरोपादानाद्गौतमादय एवेह विवक्षिताः । प्रथमश्चकारः सिद्धाधुपलक्षणार्थो द्वितीयः समुच्चितौ क्त्वाप्रत्ययस्य क्रियान्तरसव्यपेक्षत्वात्तामाह स्वपरसमयसूचनं कृतमनेनेति सूत्रकृतस्तस्य, महार्थवत्त्वाद्भगवाँस्तस्य । अनेन च सर्वज्ञप्रणीतत्वमावेदितं भवति । "नियुक्तिं कीर्तयिष्य" इति योजनं युक्तिः-अर्थघटना, निश्चयेनाधिक्येन वा युक्तिर्नियुक्तिः सम्यगर्थप्रकटनमिति यावत्, निर्युक्तानां वा-सूत्रेष्वेव परस्परसंबद्धानामर्थानामाविर्भावनं युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिरिति, तां 'कीर्तयिष्यामि' अभिधास्य इति ।
इह सूत्रकृतस्य नियुक्तिं कीर्तयिष्य इत्यनेनोपक्रमद्वारमुपक्षिप्तं तच्च 'इहापसदे' त्यादिनेषदभिहितमिति । तदनन्तरं निक्षेपः स च त्रिविधः तद्यथा, ओघनिष्पन्नो, नामनिष्पन्नः, सूत्रालापकनिष्पन्नश्चेति । तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽङ्ग, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे सूत्रकृतमिति ॥१॥नि०।।।
मैं जिनवरों को नमस्कार करके स्वसिद्धान्त तथा परसिद्धान्त को बतानेवाले, अनन्त भङ्ग, अनन्त पर्याय तथा अर्थगुणों से सुशोभित अनुपम इस सूत्रकृताङ्गसूत्र की व्याख्या करता हूँ ॥१॥
यद्यपि उत्तम विद्वानों ने इस सूत्रकृतांगसूत्र की व्याख्या की है तथापि भक्ति के कारण मैं भी इसकी व्याख्या करने का प्रयत्न करूँगा । इस मार्ग से गरुड़ गये हैं, यह जानकर क्या पतंग उससे जाना नहीं चाहता है? ॥२॥
उत्तम बोधवाले जो पुरुष मेरा तिरस्कार करते हैं, वे विलक्षण अर्थ जानते हैं, अतः उन्हें छोड़कर, जो मेरे से भी मंदमति है और अर्थ को जानना चाहते हैं, उन पर उपकार करने के लिए यह मेरा प्रयत्न है ॥३॥
इस दुःखमय संसार में निवास करनेवाले, उत्तम कुल में उत्पन्न तथा सब इन्द्रियों से पूर्णता आदि सामग्री से युक्त पुरुष को, अति दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर समस्त कर्मों का विनाश करने के लिए आर्हत् दर्शन में अवश्य प्रयत्न करना चाहिए । कर्म का विनाश, सम्यग् विवेक से होता है परन्तु वह सम्यग् विवेक आप्त पुरुष के उपदेश के बिना नहीं होता है। आप्त पुरुष वही है, जिसके दोष अत्यन्त नष्ट हो गये हैं । आप्त पुरुष अरिहंत देव ही हैं, अतः उनके कहे हुए आगम को जानने का प्रयत्न करना चाहिए । आगम, द्वादश अङ्गस्वरूप है । परंतु आर्य्यरक्षित आचार्यश्री ने आज कल के पुरुषों के उपकार के लिए उसे चरणकरणानुयोग, द्रव्यानुयोग3, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग रूप चार भेदों में विभक्त किया है। इनमें आचाराङ्ग सूत्र चरणकरणप्रधान है, उसकी व्याख्या की जा चुकी है। अब द्रव्यप्रधान इस द्वितीय अङ्ग सूत्रकृताङ्ग की व्याख्या का अवसर है, इसलिए इसकी व्याख्या प्रारंभ की जाती है।
(शङ्का) पदार्थ की शिक्षा देने के कारण यह सूत्रकृताङ्ग, शास्त्र कहलाता है । शास्त्र के समस्त विघ्नों की शांति के लिए आदिमङ्गल, तथा स्थिर परिचय के लिए मध्यमङ्गल और शिष्य प्रशिष्य की परंपरा के अविच्छेद के लिए अन्त्य मङ्गल करना चाहिए । परंतु वह यहाँ नहीं पाया जाता है ।
(समाधान) यह सत्य है । इष्ट देवता को नमस्कार आदि करना मङ्गल है परंतु इस शास्त्र के रचयिता सर्वज्ञ पुरुष हैं । उन सर्वज्ञ पुरुष को नमस्कार करने योग कोई दूसरा पुरुष नहीं है और उनको मङ्गल करने का कोई 1. जिनेत्यनुक्त्वा जिनवरानिति वरत्वयुक्तजिनेत्युपादानं । 2. सूत्र को पढ़कर उसका अर्थ बताना अथवा संक्षिप्त सूत्र का विस्तृत अर्थ के साथ संबंध करना 'अनुयोग' कहलाता है । प्राणी, जिसके आचरण से संसार सागर को पार करता है, उसे 'चरण' कहते हैं, वे अहिंसा आदि पांच महाव्रत हैं । तथा जिसके आचरण से अहिंसा आदि पांच महाव्रतों की पुष्टि होती है, उसे 'करण कहते हैं । वे उत्तर गुण हैं । उक्त अहिंसा आदि मूलगुण तथा उत्तरगुणों को बताना चरणकरणानुयोग कहलाता है। जैसे आचाराम आदि सूत्र हैं। 3. (द्रव्यानुयोग) जिस में जीव और अजीव आदि द्रव्यों की व्याख्या की गयी है, उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं, जैसे सूत्रकृताङ्ग आदि । 4. प्राणी को दुर्गति में गिरने से जो बचाता है, उसे धर्म कहते हैं, उस धर्म की जिसमें व्याख्या की गयी है, उसे धर्मकथानुयोग कहते हैं । जैसे ज्ञाता-धर्मकथा आदि । 5. जिसमें गणित यानी संख्या का वर्णन है, उसे 'गणितानुयोग' कहते हैं। जैसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि ।
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