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श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र
प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना
प्रयोजन भी नहीं है, इसलिए इस शास्त्र में मङ्गल का कथन नहीं है । गणधरों ने भी तीर्थंकर के कथन का अनुवादमात्र किया है, इसलिए उन्होंने भी मङ्गल नहीं किया । हम लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण शास्त्र ही मङ्गल है । (अतः यहाँ मङ्गल की पृथक् आवश्यकता नहीं है)
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अथवा नियुक्तिकार ही यहाँ भाव मङ्गल बताने के लिए कहते हैं । इस गाथा के पूर्वार्ध द्वारा भावमङ्गल कहा गया है और उत्तरार्ध द्वारा, विचार पूर्वक कार्य्य करनेवाले पुरुषों की प्रवृत्ति के लिए प्रयोजन आदि तीन पदार्थ कहे गये हैं । कहा है कि- 'उक्तार्थम्' अर्थात् जिसका प्रयोजन कहा हुआ और सम्बन्ध जाना हुआ होता है, उस शास्त्र को सुनने के लिए श्रोता की प्रवृत्ति होती है, अतः शास्त्र के आदि में प्रयोजन के सहित सम्बन्ध बताना चाहिए। यहाँ "सूत्रकृतस्य " यह पद इस शास्त्र के विषय को बताता है और “निर्युक्तिं कीर्तयिष्ये" यह प्रयोजन का बोधक वाक्य है। प्रयोजन का प्रयोजन तो मोक्ष की प्राप्ति है । सम्बन्ध तो प्रयोजन द्वारा जाना जाता है, इसलिए उसे अलग नहीं कहा है। कहा है कि "शास्त्रं प्रयोजनम्" इत्यादि । अर्थात् शास्त्र और प्रयोजन ये दोनों ही सम्बन्ध के आधीन होते हैं, अतः प्रयोजन कथन के अंतर्गत होने से सम्बन्ध पृथक् नहीं कहा गया ।
यह समुदाय का अर्थ हुआ, अब गाथा का अवयवार्थ कहा जाता है । द्रव्य और भाव भेद से तीर्थ दो प्रकार का होता है। नदी आदि से पार करने का जो मार्ग है, उसे द्रव्यतीर्थ कहते हैं । परन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र, भावतीर्थ हैं क्योंकि संसार सागर से ये ही पार कराते हैं । अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के आधारभूत संघ को अथवा प्रथम गणधर को भावतीर्थ कहते हैं । उस भावतीर्थ को जन्म देनेवाले तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूँ । यहाँ 'नत्वा' यह क्रिया है। तीर्थंकर, दूसरे भी हो सकते हैं अतः उनकी निवृत्ति के लिए कहते हैं कि 'जिनवरानिति' । राग, द्वेष और मोह पर विजय करनेवाले पुरुष 'जिन' कहलाते हैं (उन्हें नमस्कार करना अभीष्ट है) सामान्य केवली भी राग, द्वेष और मोह पर विजय किये हुए होते हैं, अतः उनकी निवृत्ति के लिए 'वरान्' यह विशेषण दिया । जो चौंतीस अतिशयों को धारण करनेवाले, सबसे प्रधान हैं, उनको नमस्कार करना यहाँ अभीष्ट है। शास्त्र के अर्थ का उपदेशक होने के कारण ये उपकारी हैं, इसलिए इनको नमस्कार किया गया है ।
यहाँ 'वर' यह विशिष्ट विशेषण का ग्रहण, शास्त्र का गौरव बढ़ाने के लिए है, क्योंकि शास्त्र बनानेवाले की प्रधानता से शास्त्र की भी प्रधानता होती है। अर्थ को सूचित करने के कारण 'सूत्र' कहा जाता है, उसे जो करता है, उसे 'सूत्रकर' कहते हैं । सूत्रकर, स्वयंबुद्ध आदि भी हो सकते हैं, अतः उनकी निवृत्ति के लिए कहते हैं कि ‘“गणधरास्तान्नत्वेति'' अर्थात् सूत्र बनानेवाले गणधरों को मैं नमस्कार करता हूँ । यद्यपि सामान्य आचार्य्यश्री भी गणधर कहलाते हैं तथापि तीर्थंकर के नमस्कार के पश्चात् गणधर के ग्रहण से यहाँ गौतम आदि गणधर ही विवक्षित हैं, दूसरे नहीं । प्रथम चकार सिद्ध आदि का उपलक्षण है और दूसरा समुच्चयार्थक है । क्त्वा प्रत्यय दूसरी क्रिया की अपेक्षा रखता है, इसलिए दूसरी क्रिया बताते हैं- जो अपने तथा दूसरों के सिद्धान्तों की सूचना करता है, उसे 'सूत्रकृत' कहते हैं। वह सूत्रकृत, महान् अर्थ का बोधक होने के कारण भगवान् है, उसकी (निर्युक्ति मैं करता हूँ ।) यहाँ सूत्रकृत को भगवान् कहने से सर्वज्ञ द्वारा उसका कथन होना बताया जाता है । (निर्युक्तिं कीर्तयिष्य इति) योजन करना युक्ति कहलाता है। अर्थ की घटना यानी योजना को युक्ति कहते हैं । निश्चय पूर्वक अथवा आधिक्य से अर्थ की योजना अर्थात् सम्यक् प्रकार से अर्थ को प्रकट करना 'निर्युक्ति' कहलाता है । अथवा सूत्रों में ही परस्पर संबंध रखनेवाले अर्थों को प्रकट करना निर्युक्ति है । "निर्युक्तानां युक्तिः " यह विग्रह करके युक्त शब्द के लोप होने से 'निर्युक्ति' पद की सिद्धि समझनी चाहिए । उस निर्युक्ति को मैं कहूँगा (यह प्रतिज्ञा है) यहाँ निर्युक्तिकार ने "निर्युक्तिं कीर्तयिष्ये" मैं निर्युक्ति को कहूँगा, इस प्रतिज्ञा के द्वारा उपक्रम (उत्थानिका) की सूचना दी है । वह उपक्रम "इहापसद" इत्यादि प्रथम वाक्य के द्वारा कुछ बता दिया गया है । इसके पश्चात्
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