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जिनेन्द्र स्तुति जगत् के लिये सूर्य तथा चन्द्रमा के समान थे वे कर्मों को जीतने वाले वृषभ नाथ भगवान सब के लिये शान्ति प्रदान करे ।।३।। सती भायां पृथ्वी जलधिजलचीरा प्रणयिमि ।
उभे त्यक्त येन प्रशमरसरुव्यैव विभुना । कृतश्चात्मा पूर्णो विपुलमतिना योगालिना स शांति सर्वेभ्यो दिशतु वृषभः कर्मविजयी ।।४।। अर्थ -विपुल बुद्धि के धारक तथा योग बल से युक्न जिनस्वामी ने स्नेह से युक्त पतिव्रता भार्या और समुद्र के जल रूप वस्त्र से युक्त-समुद्रान्ता पृथ्वी इन दोनो का शान्ति रस मे रुचि होने के कारण त्याग किया था तथा प्रात्मा को पूर्ण किया था। अनन्त गुणो के विकास से सहित किया था कर्मो को जीतने वाले वे वृषभ जिनेन्द्र सब के लिये शान्ति प्रदान करे ॥४॥ तपस्यांकेचित्तु स्वसुतसुरलोकार्थमनिशं ___ स्फुटं कुर्वन्ति त्वं भवततिविनाशाप कृतवान् । यदीया वाग्गङ्गा सुरमनुजमान्या प्रथमतः
स शांति सर्वेभ्यो दिशतु वृषभः कर्मविजयी ॥५॥ अर्थ हे भगवन् । स्पष्ट है कि कितने ही लोग अपने लिये पुत्र तथा स्वर्ग लोगकी प्राप्ति के उद्देश्य से निरन्तर तपस्या करते हैं परन्तु आपने जन्मो के समुह को नष्ट करने के लिये तपस्या