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सुभाषित मंजरी पूर्वाद्ध
[संस्कृत सूक्तियों का अनूठा संग्रह
संग्राहक:
श्री स्व. आचार्य प्रवर १०८ श्री शिव सागर जी म. सा. के सुशिष्य मुनिप्रवर अजित सागर जी म०
अनुवादक:
श्रीप० पन्ना लाल जी साहित्याचार्य
द्रव्य सहायक एवं प्रकाशक:श्री शान्ति लाल जी जैन प्रो० शान्तिनाथ रोड़वेज, कलकत्ता
प्रथमावृत्ति १०००
मूल्य धर्म लाभ
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ब
book
LEASYA
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स्व०, आचार्य प्रवर १०८ श्री शिव मागर जी म. सा.
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दो शब्द
सस्कृत साहित्य रूपं सागर अनेक सुभाषित रूप रत्नों से भरा हुआ है । ये सुभाषित, प्रकाशस्तम्भ के समान दिग्भ्रान्त पुरुषो को समुचित मार्ग का प्रदर्शन कराने मे परम सहायक होते है । अप्रस्तुत प्रशसा या अर्थान्तरन्यास अन्तकार के माध्यम से कवियो ने अपने काव्यो अथवा पुराणो मे एक से एक बढकर सुभाषितों का समावेश किया है । आचार्य वादोभसिह सूरि ने 'क्षत्रचूडामणि' ग्रन्थ की रचना करते हुए प्रायः प्रत्येक श्लोक मे सुभाषित का समावेश किया है। अमित गति प्राचार्य ने 'सुभाषित रत्न सन्दोह' नाम से सुभाषितो का स्वतन्त्र ग्रन्थ निर्मित किया है। ___ सुभाषितो का संग्रह विद्वानो को इतना अधिक प्रिय रहा है कि इस विषय पर अच्छे२ सग्रह प्रकाशित हुए है । 'सुभाषित रत्न भाण्डाकर' नाम का एक बृहदाकार संग्रह सस्कृत साहित्य में अत्यन्त प्रसिद्ध है।
श्रीमान् पूज्यवर स्वर्गीय आचार्य शिवसागरजी महाराज के सघ मे अनेक प्रबुद्ध मुनिराज उनके शिष्य है । 'ज्ञानध्यान तपोरक्त.' यह जो तपस्वियो का लक्षण आगम में कहा गया है वह उन सघस्थ मुनियो मे अच्छी तरह घटित
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होता है। उसी सघ मे श्री १०८ मुनि अजितसागर जी महाराज है जो बालब्रह्मचारी है तथा अध्ययन-अध्यापन मे निरन्तर निरत रहते है। आपने न्याय, व्याकरण, साहित्य तथा धर्म आदि विषयो को अच्छा अनुगम किया है और बडी रुचि के साथ संघस्थ साधुओ तथा माताजी आदि को विविध शास्त्रो का अध्ययन कराते है । पठन-पाठन के अतिरिक्त आपके पास जो समय शेष रहता है उसमे आप प्राचीन ग्रन्थो का अवलोकन कर उनका सशोधन तथा उनमे से उपयोगी विषयो का सकलन करते हैं । 'गणधरवलय पूजा' तथा 'रविव्रत कथा' आपके द्वारा सशोधित होकर प्रकाश में आई है,। यह सुभाषित मञ्जरी नाम का सकलन भी
आपकी ही कृति है। अनेक गांस्त्रो का अध्ययन कर आपने हजारो सुभाषितो का संग्रह किया है तथा उन्हे विषय वार विभाजित कर उनके अनेक उपयोगी प्रकरण तैयार किये
विमा
'इस संकलन मे जिनेन्द्रस्तुति, जिन भक्ति आदि २६ प्रकरण सकलित है। इन प्रकरणो मे शीर्षक देकर अनेक विषयो पर प्रकाश डाला गया है । जन साधारण के उपकार की दृष्टि से इन श्लोको का हिन्दी अनुवाद भी साथ मे दे दिया है। हिन्दी अनुवाद साथ रहने से प्रत्येक स्त्री पुरुष स्वाध्याय द्वारा लाभ उठा सकते है। इस सुभापित मञ्जरी मे १००१ श्लोक है । उदयपुर के चातुर्मास मे मात्र
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४२५ श्लोको का मुद्रण हो सका । चातुर्मास के वाद अन्यत्र विहार हो जाने से मुद्रण स्थगित हो गया। अत ४२५ श्लोको का संग्रह पूर्वार्द्ध के रूप मे प्रकाशित किया जा रहा है आगे का भाग उतरार्द्ध के रूप मे प्रकाशित किया जावेगा। __ इस ग्रन्थ की प्रेसकापी तैयार करने तथा प्रकरणो को विषयवार विभाजित करने मे सघस्थित आर्यिका श्री १०५ विशुद्धमतीजी ने पर्याप्त योग दिया है तथा प्रकाशन मे श्री प ० गुलजारीलालजी चौधरी, केसली (सागर) और जौहरी श्री मोतीलालजी व महावीरजी मिन्डा उदयपुर ने बहुत सहयोग किया है इसके लिये इन सबके प्रति आभार प्रकट करता है।
सभापित मञ्जरी पूर्वार्द्ध का प्रकाशन श्री शान्तिलाल जी जैन प्रो० शान्तिनाथ रोडवेज कलकत्ता की ओर से हों रहा है आप अत्यन्त उदार हृदय के व्यक्ति है। आपकी उदारता के फल स्वरूप ही इसका अमूल्य विवरण किया जा रहा है । प्राशा है अन्य सहधर्मी भाई भी इनका अनुकरण कर जिन वाणी के प्रचार मे योग दान करेंगे।
अन्त मे श्री १०८ मुनि अजितसागरजी महाराज के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हुआ आशा रखता हूँ कि आपके द्वारा इसी प्रकार अनेक ग्रन्थो का उद्धार होता रहेगा।
विनीतपन्नालाल साहित्याचार्य
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सुभाषित मन्जरी विषयानुक्रमणिका
क्रमाक विषय नाम
श्लोक सख्या
पृष्ठ सख्या
१४-३२ ३३-५२ ५३-६७ ६८-८६ ८७-६०
१ जिनेन्द्रस्तुतिः २ जिनमति
जिनेन्द्रार्चा जिनधर्म प्रशसा साधु प्रशसा गुरूगौरवम् स्याद्वाद वदना गुरू निन्दानिषेधन सम्यग्दर्शन प्रशसा क्षमा प्रशसा क्रोध निन्दा मान निषेधनम् मायानिन्दा तृष्णानिन्दा परिग्रहनिन्दा दया प्रशसा आहारदान प्रशसा
६६-११७ ११८-१३५ १३६-१४८ १४६-१५१ १५२-१५८ १५६-१७४ १७५-१८८ १८६-१९६ २००-२०६
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क्रमाक विषय नाम
लोक सख्या
पृष्ठ संख्या
५
६२ .
२१
१०२
ज्ञान दान प्रशसा .२१०-२१६ औषधदान प्रशसा २१७-२२६ ८८ ज्ञान प्रगसा २३०-२३७ उपकरण दान प्रशसा. २३८-२४४ , , ६५ दान प्रासा २४५-२५४ - विराग वाटिका २५५-३२८ रात्रि भोजन निन्दा ३२६-३४२ -१३१ सज्जन प्रशसा ३४३-३६१ ब्रह्मचर्य प्रशसा ३६२-४०१ १५५ चौर्य निन्दा - ४०२-४०६ १५६ रत्नत्रयप्रशसा ४०७-४१५ याञ्चापरिहार ४१६-४२५
१३६
१६५
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पृष्ठ
श्लोक __ (अ) असित गिरि समस्यात्कज्जल सिन्धु पात्रे १० अकुण्ड गोलक श्राद्ध ११ अतिबालोऽतिवृद्धश्च २० अनादर यो वितनोति धम २२ अत्यन्त विशदा कीर्ति २७ अपि बालाग्र मात्रेण ३१ अवद्यमुक्त पथि यः प्रवर्तते ३२ प्राज्ञानान्धतम स्तोम ३४ अनघरत्नत्रय सम्पदोऽपि ३५ अक्षस्तेन सुदुर्धरा ५५ अवुद्धिमाश्रिताना च ५५ अपकारिणि चेत्क्रोध ५६ अपकुर्वति कोपश्चेत् ६३ अर्थादौ प्रचुरप्रपञ्चरचनै ७३ अर्थ कस्सोनों न भवति ७३ अविश्वास निदानाय ६६ अभयाहारभैषज्य
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पृष्ठ
श्लोक
१०० अभीतितोऽत्युत्तमरूपत्त्व १२० अना च्छाद्य स्वसामर्थ्य १२२ अहोमया प्रमत्तन १२६ अन्वयवतमस्माक १३२ अन्धा कुब्जक वामनाति विकला अल्पायुषः प्राणिन १३४ अह्नो मुहूर्त मात्र य १४२ अजलिस्थानि पुष्पाणि १५१ अप्रियवचन दरिद्र । १६७ अनाहूता स्वय यान्ति
आ ४ आयातस्त्रि जगत्पते तव पद ६२ आदि शान्ति पराश्चेति ६७ आशा नाम मनुष्याणा ६७ आशाये दासास्ते ६८ आशा नाम नदी मनोरथजला ६८ आशागर्त प्रति प्राणी ७१ आसापिसायगहियो ७२ प्रारम्भो जन्तु घातश्च ८९ आजन्म जायते यस्य ६५ आर्येभ्य आर्यिकाभ्यश्च १३७ आजन्मगुरू देवानां १५७ आयु स्तेजो बल वीर्य
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८
पृष्ठ
श्लोक
इ
१६ इद शरीर परिणाम दुर्बन
४६ इन्द्राहमिन्द्र तीर्थेश १०२ इतो हीनदत्त
१२७ इन्द्रिय रिग न गुप्तानि ७० इच्छति शती सहस्त्र
ctur
ई
१२ ईगो यदि वाज्ञानाद् १८६ ईक्षोर क्रमण पर्वणि
७ एकापि समय
५३
एन क्षमा वता दोप
१२७ एवं प्रति दिन यस्य
उ
५८ उत्तमस्य क्षरण कोपो
७५ उद्भूता. प्रथयन्ति मोहमसम ६७ उप्काले जलदद्यात् १८२ उदये सविता रागी
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२६ ऐरण्ड सदृश ज्ञात्वा
औ
८८
औषध यो मुनीना स
५० कस्यचित्सवल विद्या ११३ कर्म पर्वत निपातनवज्र १२५ कदानुविषयास्त्यक्त्वा ५२ कालुष्य कारणे जाते ६१ काय कृन्तति सद्गुणान् ७३ कदाचित्को बन्ध ८३ काक कृष्ण पिक कृष्ण १०५ कास्था सद्मनि सुन्दरेऽपि परितो १११ कारागारनिभे घोरे १११ काम क्रोध महामोह ११४ कातार न यथेतरो ज्वलयितु १६८ काक आहूयते काकान् ६४ कूट द्रव्यमिवासार ५४ क्रोध योघ कथकार ५६ क्रोधो हि शत्रु प्रथम नराणां
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पृष्ठ
श्लोक
५६ क्रोधोमूलमनर्थानां ५७ क्रोधस्य काल कूटस्य ५७ क्रोधानल समुत्पन्न ४७ केवल धनम त्रैव ६६ कोमलानि महा_णि १०४ कोऽह की दृग्गुणक्वत्व १४६ कोमल हृदय नूनम् २२ को वशी करण धर्म १०५ क काल कानि मित्राणि
२५ गर्व मा कुरु शर्करे तव गुण . १२८ गतायाति च यास्यान्ति १५० गर्व नोद्वहते न निदति पर १५३ गवादीना पयोऽन्येद्य १६६ गात्रभङ्ग स्वर हीन २ गहीत जीवानां २४ गुरव परमार्थेन ३३ गुरूणां गुरू बुद्धिना ३७ गुरुभक्तो भवागीतो ३७ गुरो सनगरग्राम १६० गुण प्रसव सन्धा
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पृष्ठ
श्लोक
१५ धूका न | मरिण विदन्ति किमुव
१८ चत्वारो वित्त दायादा ३६ चन्द्रतापेन को दग्धः ७१ चक्रधरोऽपि सुरत्व १०७ चलान्युत्पथ वृतानि १२३ चक्रवर्त्यादि सल्ल लक्ष्मी ६६ च्युता दन्ता सिता केशा १२ चारित्र दर्शन ज्ञान १०७ चारित्र निरगाराणा १७ चिर वद्धो जीव.
७६ छत्र चामर लम्बूष २१ छिन्न मूलो यथा वृक्षः
३० जन्माटवीषु कुटिलासु १०८ जलेन जनितः पङ्को ११४ जन्मेद पन्ध्यता नीत १५२ जयन्ति जितमत्सरा १३६ जानत्वं सौमनस्व च
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पृथ्ठ
श्लोक
१४ जिनेन्द्राणामुनीशाना १७ जिनधर्मस्य भव्याना १६ जीवन्तोऽपि मृता ज्ञेया ८२ जो मुरिण भत्तवसेस
१३३ डाकिनी प्रेत भूतादि
३ तपस्या केचित्तु ४४ तस्यैव सफल जन्म ८० तपस्यतु चिर तीन ८३ तत एत्य सुजायन्ते ८६ तस्मात् स्वशक्ति तो दान १०४ तपोवन महा दुख ११६ तपो भेषज योगेन । ११६ तपः करोति यो धीमान् ११७ तपसालकृतो जीवो ११६ तपोभिस्ताडिता एव ११६ तप. सर्वाक्ष सारग १२० तपो मुक्ति पुरी गन्तु
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पृष्ठ
श्लोक
१६० तच्च लोभोदयेनै
६ त्वा देवमित्यमभिवद्य ६८ त्याग एव गुण इलाध्य. १०४ त्यज दुर्जन ससर्ग १३५ त्याज्यमेतत्पर लोके ५८ तावत्तपोवृत्तव्यान ८७ तार्किकः शाब्दिक सार १६५ तावत्सत्यगुणणालय. ण्टुमतिः १६८ तीक्ष्ण धारेण खङ्गन १३८ तुवन्ति भोजने विप्रा. .
६६ तृपणो देवि नमस्तुभ्य १५१ तृणानि नोन्मूलयति प्रभजनो १४७ ते तु सत्पुरुषा परार्थघटका: १५२ ते धीरास्ते शुचित्वाढ्या
४२ दर्शन परमो धर्मों ४७ दर्शन वन्धोर्न परो वन्धु ५१ दयालोरव्रतस्यायि ८२ दयामूलो भवेद्धर्म. ९६ ददती जनता नन्द
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१४
पृष्ठ
श्लोक
१०० दत्त स्वल्पोऽपि भद्राय १२७ दन्तीद्र दन्तदलनेकविधौ समर्था: १३३ दर्शनागोचरी भूते १५३ दग्ध दाध पुनरपि पुन. ७४ द्रव्य दु खेन चायाति
६ दानशीलोरवासादि ६८ दानानु सारिणी कीर्ति ६८ दान दुर्गति नाशन हितकर ६६ दानामृत यस्य करारविन्दे १०३ दारा मोक्ष गृहार्गला विषधरा १६८ द्वार द्वारमटन भिक्षु. १४३ दिव्यमान रस पीत्वा १६ दुर्लभ मानुष जन्म . १०३ दुप्प्रापा गुरू कर्म सचयवता ४३ दृष्टि हीनो भवेत्साधु ३६ देव निन्दी दरिद्र स्यात् १०६ देवशास्त्र गुरूणां च १६६ देहीति वाक्य वचनेषु कष्ट १६७ देहीति वचन श्रुत्वा ६५ दौर्भाग्य जननी माया
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दृष्ट
श्लो
१८ धर्म पान पिवेज्ज्ञानी १६ धर्म-युक्त तस्य जीवस्य २१ धर्मेण सुभगा नार्यः २' धर्मो काम दुधाधेनु ४५ धन्यास्त एव ससारे ६६ धन्यास्त एव यैराशा ६६ धनेषु जीवितव्येषु ७० धन्या पुण्य भाजस्ते १०२ धर्मे राग श्र ते चिन्ता १३७ धर्मझे कुलजे सत्वे १४५ धर्म शास्त्र श्रुतौशास्वत् ८६ ध्वान्त दिवाकरस्येव १२० ध्यानानुष्ठानशक्तात्मा १३ धूप यश्चन्दनाशुभ्र ६ धौत वस्त्र पवित्र च
२८ न च राजभय न च चोरभय ३६ नक्षत्राक्षत पूरित मरकत ५३ नरस्याभरण रूप ६६ न सुख धन लुब्धस्य
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१६
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श्लोक
८८ न शक्नोति तप कर्तु ६० न जायते सरोगत्व ६१ म देहेन विना धर्म ११७ न सा त्रिदश नाथस्य १३४ नक्त दिवा च भुञ्जानो १४० न हि विक्रियते चेत १४१ नहि ससर्ग दोषेण १४३ न च हसति नाभ्यु सूयति १४३ न जार जातस्य ललाटचिन्ह १४४ नारिकेल समाकारा १४४ नमज्जयत्यम्बुनिधि. सुशीलान्
७ निर्वाचो वचना शयारणटभुजो ८ निराभरण वस्त्रास्त्र ११ नित्य पूजा स्वय शस्त. ३६ निय्थदीकृतचितचण्ड ४० निदाम कुरुते साधो ४० निमञ्जति भवाम्भोधौ ४१ निदनीयेषु का निन्दा ४६ निमितमुद्दीश्य हि य प्रकुप्यति १३४ निशिभुक्तिरधर्मो यै १३५ निजकुलैकमण्डन २६ नो दुष्कर्म प्रवृत्ति न ६२ नो सग्गाजायते सौख्य
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पृष्ठ
श्लोक
२८ परित्यक्ताबृतिप्रीप्मे ७३ पलितंक दर्शनादपि ७६ परिग्रही न पूज्येत ७६ परिग्रह ग्रह ग्रस्त १४. परपरिवादन मूक १८६ पर द्रव्येषु ये अन्धा ४६ पाप यदजितमनेकभवै ५२ पाति व्रत्य स्त्रियारूप ८४ पात्रे दत्त भवेत्सर्व ३० पिता माता भ्राता १४६ पितु तुि शिशो पात्र ५१ पुन्यकोटि समस्तोत्र १२१ पुण्य वन्तो महोत्सहा १३८ पुरुषेक्षिप्यते वस्तु
६ पूज्यो जिन पति पूजा १४ पूजा माचरता जगत्त्रयपते ५७ पूर्व शोषयते गात्र ११६ पूजा लाभ प्रसिद्धयर्थ १२५ पूर्व धर्मानुभावेन १४० पूज्या अपि स्वयं सन्तः १२२ प्रसदि वरद स्वात्म च दोक्षया १२५ प्रतिपद्य कदा दीक्षा १४८ प्रारम्भे सर्व कार्याणि १६१ प्राप्ते रत्नत्रये सर्व
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रलोक
१५७ बन्ध बध धन भ्रश १५६ ब्रह्मचर्य भवेत्सार १५६ ब्रह्मचर्य मपि पालयसार १५६ ब्रह्मचर्य भवेन्मल ७८ बालेषु वृद्धषु च दुर्बलेषु ३५ बिना गुरुभ्यो गुण नीरविभ्यो ११४ बोधि लाभाच्च वैराग्यात्
७ भवन्त मित्यभिष्टुत्य १७ भक्तिः श्री वीतरागे भयवति ३२ भवबाद्धि तितीर्ष ति ८३ भक्तिपूर्वप्रदानेन १०७ भव्य जीवा यमासाद्य १२३ भगवस्त्त्वत्प्रसादेन १६४ भज रत्नत्रयप्रत्न १६४ भय भुजग नाग दमनी १०१ भाग्यत्रय तु पोष्यार्थे १०१ भागद्वयी कुटुम्बार्थे १२६ भाग्यवन्तो महासत्वा १३१ भानो करैरसस्पृष्ट १५४ भास्वता भासितानान्
३३ भ्रान्ति प्रदेषु बहुवर्त्मसु १४५ भ्रात काचन लेप गोपितवहि
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१६
पृथ्ठ
श्लोक
२३ मक्षिका वृण मिच्छति २८ महायोगेश्वरा धीरा ४५ मत्वेति दर्शन जातु ४५ मलिने दर्पण यद्वत् ४८ महाधनी स एवस्त्र ७९ मनो दयानु बिद्ध चेन् ८६ मापर श्रिय भुक्तवा ६६ मयुरवह दानेन १२४ मन्ये देह तदे वाह १२६ मधुर स्निग्ध शीलानाम् १३२ मक्षिका कीट केशादि १३६ मनसि वचसि काये १५४ मत्त वारण सक्षुण्णे ११ मायावी दूषको विद्वान ६४ माया करोति यो मढ. ६४ माया युक्त वचस्त्याज्य ६५ माया बल्लिमशेषा ३० मिथ्या दर्शन विज्ञान ८५ मिथ्यादृष्टि परीताना ४२ मुक्ता दुख शतान्मुच्चैः ४८ मुक्तिमार्गस्थ मेवाह ८६ मुक्ति प्रदीयते येन १३३ मुहूर्त त्रिशत कृत्वा ३१५ मुहूर्त द्वितय वस्तु
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२०
श्लोक
पृष्ठ
म
७६ मूध भिषिक्ताश्च निजास्त्वनेक
१३०
मूलम ध्यान्त दु. स्पर्शा ११ मौन सयम सम्पनै.
य
: यस्य ज्ञान सुधाम्बुधौ जगदिद
५ यद् बाग्ज्योतिः सप्त तत्व प्रकाशि
४४ यतोश्व म्राद्विनिर्गत्य
५१ यद्यपि रटति सरोषो
५४ यत्क्षमी कुरुते कार्य ६० यस्य रुष्टे भय नास्ति ६६ यस्या वीज मह कृतिगुरुतरा ७५ यदि स्याच्छीत लोवन्हि ८१ यस्य जीव दया नास्ति यस्य दान हीनस्य
८४
१०७ यथाग्नि विधिना तप्त
१०६ यदिस्माभिर्ह प्ट ११५ यम्मात्तीर्थं कृतो भवति भुवने
११८ यद् दूर यच्य दुसाध्य १४० यत्र क्लापि हि सन्तेव ७२ याम्यन्ति निर्दया नून १२८ या राज लक्ष्मी
१२९ या दु.ख साध्या ६० ये नौपध प्रदस्येह ६४ येनात्मा बुध्यते तत्वं
f
I
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२१
पृष्ठ
श्लोक
य
१४ येन रागादयो दोपा १२१ ये बुधा मुक्ति मापन्ना १५८ ये गील वन्तो मनुजा व्यती १३ यो जिनेन्द्रालये दीप ४० यो भापते दोष मविद्यमान ६२ यो मदान्धो न जानाति ८५ यो ज्ञान दान कुरुते मुनीना १२४ यौवने कुरू भो मित्र ३८ य सर्वथैकॉत नयान्धकार
२२ रम्य रूप मरोग्यता १६ रक्ष्यते व्रतीना येन १६२ रत्नत्रय जैन १६३ रत्नत्रय तज्जननार्तिमृत्यु १४७ राजानो य प्रगसन्ति १६५ रे रे चातक सावधान मनसा ८८ रोगिभ्यो भेपज देय
८७ लभ्यते केवल ज्ञान १०६ लब्ध्वा जन्म कुले शुचौनरवपुः १६२ लब्ध जन्म फल तेन
८६ लिखित्वा लेखयित्वा वा ११६ लोकत्रयेपि तन्नास्ति
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श्लोक
५८ लोकद्वय विनाशाय १२६ लौकातिक पद सार
१६ वर मुहूर्त मेक च १०८ वस्त्राद्याः समला द्रव्या ११० वपु कुब्जी भूत १३८ वदिला योऽथवा श्रोता १५० बदनप्रसाद सदन १५० वनेऽपि सिहा गज मास भक्षिणो १६७ वर पक्षि वने वासो ६० वातपित्त कपोत्थान ११३ व्रताना धारण दण्ड २३ विसृप्ट सर्व सगाना ७६ विश्व सतिरिपयोपि दयालो ६३ विमल गुण निधान । ६७ विचित्र रत्न निर्माण ११८ विशिष्ट मिप्ट घटयत्युदार १२२ विप्राक्षत्रिय वैश्या ये १२४ विरक्तत्व मनासाध १३१ विरूपो विकलाग स्यात् १३१ विरोचनेऽस्त ससर्ग १४८ विपदि धैर्य मथांभ्युदयेक्षमा ४१ वीतरागे मुन्नौ शप्ते
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पृष्ठ
श्लोक
३४ वैभव सकल लोके ५६ वैर विवर्धयति सख्य यथा करोति ११३ वेराग्य सार दुरितापहार
३ सती भार्या पृथिवी ८ सद् द्रव्य क्षेत्र कालार्चा २६ सर्वशास्त्र विदेधीरा ४६ सत्य दुग समारुढ ६२ समस्त सम्पदा संघ ७८ सर्व प्राणि दया जिनेन्द्र गदिता ८१ सर्व वान कृत तेन १०८ सवा सानेव शुद्धीनाम् ११७ सन्तोष स्थूल मूल १३० सर्वतोपि सूदू प्रेक्ष्या १३६ सज्जनास्तु सता पूर्न १५८ सन्मार्ग स्खलन विवेक दलन १५६ सकल विवध निद्य १६० सवेपामेव शोचानाम् १६२ सदृष्टि सज्ज्ञान तपोन्विता ये २७ सन्तोप लोभ नाशाय ३१ ससारब्धो निमग्नाना ४३ सम्यक्त्वेन विना देवा ४३ सम्यग्दृष्टि गृहस्थोऽपि
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पृष्ठ
श्लोक
४४ सम्यक्त्चेन ससंवास. ४७ सम्यक्वान्ना परो बन्धु ७६ ससारे मानुष सार १०६ सर्व धर्म मये क्वचित् ११२ ससार नासिनी चर्या ११२ सयमोतम पीयूष
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१२१ ससार कूप सपति १४१ सपत्सु,महता चित्त १४१ सपदि विनयावनता १५३ सपदो महतामेव १५५ ससाराम्बुधि नारक सुखकरं १६१ सम्यग्दर्शन ज्ञान १३ सामोदै जलोद्भुते २३ साधूना दर्शन पुण्य २४ सावो समागमाल्लोके २५ साधुमगममनासाद्य ७७ साक्षादुल्लसतीव्र सयमतरु १३६ साघो प्रकोपितस्यापि
२० सिद्धा सिद्धयति सेत्स्यति १५६ सिक्तोप्यम्बुधर वातै
५१ सुतवन्धुपदातीना ११२ सुचिर देव भोगे भोगेऽपि १३६ सुकृताय न तृष्यन्ति १३७ सुजनो न याति वैर ६० सूपकार कवि वैद्य ८३ सौधर्मादिषु कल्पेषु १६० सौजन्य हन्यते भ्रन्शो
२ स्वर्गवाऽस्मिन मनुज भवने २६ स्पृष्टायत्र महीतदघ्रि कमल ३२ स्मरमपि हृदि येषा ध्यानवन्हि
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ष्ठ
श्लोक
३८ स्याद्वादं सतत बन्दे ४२ स्वामिनं सुहृदमिष्ठ सेवक ६५ स्त्रैण षष्ठत्व तैरश्च ०१ स्वःस्वस्य यस्तु पड़ भागान् :२९ स्वच्छानामनुकूलाना
१४ शत विहाय भोक्तव्य २० शस्येन देश पयसाब्ज खण्ड ७४ शय्या हेतु तृरणादान ११ शरीर सयमाधार १११ श्मसानेषु पुराणेषु ३६ शासन जिननाथस्य ८७ शास्त्रदाया सता पूज्य १२३ शातो दातो दया युक्तो १५८ शील हि निर्मलकुल सहगामिवन्धु. १० शुचि प्रसन्नो गुरू देय भक्तो ६० शोचते न मृत कदापि वनिता
५२ श्रमणानां मुक्त शेषस्य ८४ श्रद्धादि गुण सम्पूर्ण ८५ श्रावकाचार मुक्तानां १६३ श्रद्धा स्वात्त्मैव शुद्धः
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पृष्ठ
श्लोक
६ हरतु हरतु वृद्ध वार्धक ६२ हसः श्वेतो बक: श्वेत:
४६ क्षमा वैराग्य सन्तोष ५० क्षमा खङ्ग करे यस्य ५२ क्षमया क्षीयते कर्म ५३ क्षमावलमशक्ताना ५४ क्षातिरेव मनुष्याणा ८० क्षिप्तोपि केनचिद् दोषो
१२ त्रिसन्ध्यामाचरेत्पूजा
४८ ज्ञानचारित्रयोर्मूल ६५ ज्ञान हीनो न जानाति ६५ ज्ञान युक्तो भवेज्जीवः
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सुभाषितमञ्जरी श्लोकसंग्रहकर्ता मुनि अजितसागर
अनुवादकर्ता पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य (सागर)
जिनेन्द्रस्तुतिः
मालिनीच्छन्द
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुगडे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी । यदि लिखति गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥१॥ अर्थ-हे नाथ | यदि समुद्र रूपो पात्र मे नील गिरि के बराबर कज्जल हो, कल्प वृक्ष की उत्तम शाखा लेखनी हो, समस्त पृथ्वी कागज हो और सरस्वती उन सब को लेकर स्वय सदा लिखती रहे तो भी आपके गुणो के पार को प्राप्त नहीं होती अर्थात् आप अनन्त गुणो के भण्डार हो ॥१॥
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जिनेन्द्र स्तुति
मन्दाक्रान्ता स्वर्गे वास्मिन्मनुजभवने खेचरेन्द्रास्पदे वा
ज्योतिलोंके फणिपतिपूरे नारकाणां निवासे । अन्यस्मिन्वा जिनप जनने कर्मणा मेऽस्तु सूति
भूयोभूयो भातु भरतः पादपङ्कज भक्तिः ।।२।। अर्थ-हे जिनेन्द्र | कर्मोदय के कारण मेरा जन्म चाहे स्वर्ग मे हो, इस मनुष्य लोक मे हो, विद्याधर राजाप्रो के स्थान मे हो ज्योतिर्लोक मे हो, नाग लोक मे ही, नारकियो के निवास मे हो और चाहे किसी अन्य जाम मे हो परन्तु मै इतना चाहता हूंकि आपके चरण कमलो की भक्ति भव भव मे मुझे प्राप्त होती रहे ॥२॥
शिखरिणी गृहीतं जीवानां परमहितबुद्ध यव जननं
प्रजारक्षोपाया रसमितशुभा येन कथिताः । तमोहारी ज्ञानी रविशशिनिमो यश्च जगतः ।
स शांति सर्वेम्यो दिशतु वृषभः कर्मविजयी ।।३।। अर्थ-जिन्होने जीवो के परम हित की इच्छा से ही जन्म धारण किया था, जिन्होने प्रजा को रक्षा के छह शुभ उपाय बतलाये थे, जो अज्ञानान्धकार को हरने वाले थे, ज्ञानी थे और जो
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जिनेन्द्र स्तुति जगत् के लिये सूर्य तथा चन्द्रमा के समान थे वे कर्मों को जीतने वाले वृषभ नाथ भगवान सब के लिये शान्ति प्रदान करे ।।३।। सती भायां पृथ्वी जलधिजलचीरा प्रणयिमि ।
उभे त्यक्त येन प्रशमरसरुव्यैव विभुना । कृतश्चात्मा पूर्णो विपुलमतिना योगालिना स शांति सर्वेभ्यो दिशतु वृषभः कर्मविजयी ।।४।। अर्थ -विपुल बुद्धि के धारक तथा योग बल से युक्न जिनस्वामी ने स्नेह से युक्त पतिव्रता भार्या और समुद्र के जल रूप वस्त्र से युक्त-समुद्रान्ता पृथ्वी इन दोनो का शान्ति रस मे रुचि होने के कारण त्याग किया था तथा प्रात्मा को पूर्ण किया था। अनन्त गुणो के विकास से सहित किया था कर्मो को जीतने वाले वे वृषभ जिनेन्द्र सब के लिये शान्ति प्रदान करे ॥४॥ तपस्यांकेचित्तु स्वसुतसुरलोकार्थमनिशं ___ स्फुटं कुर्वन्ति त्वं भवततिविनाशाप कृतवान् । यदीया वाग्गङ्गा सुरमनुजमान्या प्रथमतः
स शांति सर्वेभ्यो दिशतु वृषभः कर्मविजयी ॥५॥ अर्थ हे भगवन् । स्पष्ट है कि कितने ही लोग अपने लिये पुत्र तथा स्वर्ग लोगकी प्राप्ति के उद्देश्य से निरन्तर तपस्या करते हैं परन्तु आपने जन्मो के समुह को नष्ट करने के लिये तपस्या
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जिनेन्द्र स्तुति की थी तथा जिनकी वाणी रुपी गङ्गा पहले से हो देव पोर मनुष्यो के द्वारा मान्य थी वे कर्म विजयी भगवान् वृषभ जिनेन्द्र सब के लिये शान्ति प्रदान करें ॥५॥
शार्दूलविक्रीडितम् आयातस्त्रिजगत्पते तव पदद्वन्द्वाम्बुजाराधनावाच्छाप्रोरितमानसः स्तुतिशतैः रतुत्वा भवन्तं महत् । पुण्यं चाभिन पवित्रतरको जातोऽस्मि संप्रत्यहं
गच्छामि प्रततानस्य भवतो भूयाउनदर्शनम् ॥६॥ अर्थ हे त्रिलोकीनाथ ! मैं आपके चरण कमल युगल की पारा धना सम्बन्धी इच्छा से प्रेरित चित्त होता हुआ पाया था और सैकडो स्तुतियो से आपकी स्तुति कर मैंने बहुत भारी नवीन पुण्य प्राप्त किया है उस पुण्य से अत्यन्त पवित्र होता हुआ अब मैं जाता हूं, अतिशय विस्तृत पूजा से युक्त प्रापका फिरभी दर्शन प्राप्त हो ॥६॥ यरय ज्ञानसुधाम्बुधौ जगदिदं विश्वं हि भस्त्रायते ।
कर्माण्यष्ट निहत्य येन सुगुणांचाष्टौ समासादिताः । पूजाई जिनदेव मच्युत मजं बुद्ध मुनि शङ्करं ध्यायेऽहं मनसा रतवीमि वचसा मू| नमाम्यादरात् । अर्थ-जिनके ज्ञान रुपी अमृत के समुद्र मे यह समस्त ससार
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जिनेन्द्र स्तुति भस्त्रा के समान जान पडता है अर्यात लुहार को धोंकनी के समान बहुत छोटा जान पडता है, जिन्होने आठ कर्मों को नष्ट कर आठ उत्तम गुण प्राप्त किये हैं, जो पूजा के योग्य हैं, अच्युत है - विष्णु हैं पक्ष मे ज्ञानादिगुणो से सहित हैं। अज है-ब्रह्मा हैं (पक्ष मे जन्म से रहित है) बुद्ध हैं तथागत हैं (पक्ष मे ज्ञान सम्पन्न हैं ) मुनि हैं, विशिष्ट गुणो से सहित है ) और शङ्कर है-शिव है (पक्ष मे शान्ति करने वाले हैं ) ऐसे जिन देव का मैं हृदय से ध्यान करता हूँ वचन से उनकी स्तुति करता हू और मस्तक से आदर पूर्वक उन्हे नमस्कार करता हूँ 11७॥
शालिनी यद्वाग्ज्योतिः सप्ततत्वप्रकाशि
देहज्योतिः सप्तजन्मवभासि । ज्ञानज्योतिः सप्तमङ्गयात्मभासि
ज्योतिरुपः सोऽस्तु मे मोहनाशी ||८|| अर्थ- जिनकी वचन रूपी ज्योति सात तत्वो को प्रका. शित करने वाली थी, जिनके शरीर की ज्योति सात भवों को प्रकाशित करने वाली थी और जिनकी ज्ञान रूपी ज्योति सात भङ्गो के स्वरूप से सुशोभित थी ऐसी ज्योति स्वरूप को धारण करने वाले वे जिनेन्द्र मेरे मोह को नष्ट करने वाले हो ॥८॥
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सुभापितमञ्जरी खिनभक्ति
मालिनी हरतु हरतु वृद्ध वार्वकं कायकान्ति
दधतु दधतु दूरं मन्दतामिन्द्रियाणि । । भवतु भवतु दुःखं जायतां वा विनाशः
परमिह जिननाथे भरतीरेका समास्तु ||६|| अर्थ - वृद्धि को प्राप्त हुआ बुढापा भले ही गरीर की कान्ति को नष्ट कर दे, इन्द्रियाँ भले ही अत्यन्त मन्दता को धारणा कर ले, भले ही दुख हो अथवा भले ही मरण हो परन्तु इस ससार मे जब तक हूँ तब तक जिनेन्द्र भगवान में एक मेरी भक्ति बनी रहे ।।९।।
बसन्ततिलका
त्वां देव नित्यमभिवन्ध कृतप्रणामो
नान्यत्फलं परिमितं परिमार्गयामि । त्वय्येव भक्तिमचलां जिन से दिश त्वं या सर्वमभ्युदय मुक्तिफलं प्रस्ते ॥१०॥ अर्थ- हे देव । निरन्तर आपको वन्दना कर प्रणाम करता हुअा मैं अन्य परिमित फल की याचना नहीं करता
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सुभाषिनमञ्जरी किन्तु मैं यह याचना करता हूँ कि हे जिनेन्द्र ! आप ऐसा करे जिससे कि मेरी अचल भक्ति आप मे ही बनी रहे। ऐसी भक्ति जो कि समस्त स्वर्गादिक के अभ्युदय और मोक्ष के फल को उत्पन्न करता है ।।१०।।
आर्या एकापि समर्थेयं जिनभक्ति दुर्गाति निवायितुम् ।
पुण्यानि च पूरयितु दातुमुस्तिश्रियं कृतिनः ।।११।। अर्थ- यह जिन भक्ति अकेली ही दुगंति को दूर करने, पुण्य को पूर्ण करने और कुशल मनुष्यो को मोक्ष रूपी लक्ष्मी के प्रदान करने में समर्थ हे ॥११॥
अनुष्टुम् भवन्तमित्यभिष्टुत्य विष्टपातिगपौरुषम् ।
त्वय्येव भक्तिमकृशां प्रार्थये नान्यदर्यये॥१२।। अर्थ- हे भगवन । लोकोत्तर पराक्रम के धारक आपकी इस तरह स्तुति कर मैं यही चाहता हूँ कि मेरी अ'प मे ही बहुत भारी भक्ति बनी रहे, और कुछ नही चाहता हूँ ॥१२॥
हम भगवान का स्मरण किस तरह करते है ? निर्वाचो वचनाशया तृणभुजो मानुष्यजन्माशया
निःस्वा भूरिधनाराया कुतनपः सत् पदेहाशया ।
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सुभाषितमञ्जरी माः स्वर्गकलाशयाऽमृ तभुजो निर्वाणसोख्याशया
संध्यायन्ति दिवानिशं सुमनसा तद्वत्स्मरामो वयम् ॥१३॥ अर्थ- जिस प्रकार गू गेमनुष्य वचनो की प्राशा से तिर्णच मनुष्यभव की आशा से, निर्धन वहुत भारी धन की आशा से कुरूप, सुन्दर शरीर को आशा से, मनुष्य स्वर्ग की आशा से, और देव मोक्ष सुख की प्राशा से रात दिन ध्यान करते है उसी प्रकार हे भगवन् । हम अच्छे ह्रदय से आपका ध्यान करते हैं ।।१३।।
जिनेन्दार्चा
पञ्च शुद्धियाँ सदद्रव्यक्षेत्रमाला भाषाख्याः पन्चशुद्धयः
जिनपुजाप्रतिष्ठार्थ बुधैरुक्ताः पृथक पृथक ॥१४॥ अर्थ- विद्वानो ने जिन पूजा को प्रतिष्ठा के लिये द्रव्य शुद्धि, क्षेत्रशुद्धि , कालशुद्धि, प्रतिमाशुद्धि और भावशुद्धि के भेद से पांच शुद्धियो का पृथक पृथक निरूपण किया है ।।१४।।
कैसी प्रतिभा शुभ होती है निराभरणवस्त्रास्त्रविकारादोषवर्जिता ।
दशतालविनिर्माणा जिनार्चा शुभदा भवेत् ॥१५॥
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सुभाषितमञ्जरी अर्था -- जो आभूषण, वस्त्र, अस्त्र तथा मोह आदि के विकास रहित हो, निर्दोष हो और दशताल से जिसका निर्माण हुआ हो ऐसी जिन प्रतिमा शुभ होती है ।।१५।।
पूजा किस प्रकार की जाती है ? धौतवस्त्रं पवित्रं च ब्रह्मसूत्रं सभूषणम् । जिनपादार्चनागन्धं माल्यं धृत्वाऽर्चते जिनः ॥१६॥ अर्था:--धुले हुए पवित्र वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, जिन चरणचित की गन्ध और जिन चरण स्पर्शित माला धारण करजिनेन्द्र देव की पूजा की जाती है ॥१६॥
पूजा का प्राचार्य कौन हो सकता है ? दानशीलोपवासादि पुण्याचारक्रियारतः ।
एवं विधगुणाढयोऽहत्पूजकाचार्य इष्यते ॥१७॥ अर्थ -जो दान, शील, तथा उपवास आदि पुण्याचार विषयक क्रियाओ मे लीन हो तथा इसी प्रकार सम्यक्त
आदि अन्य गुरगो से युक्त हो वही अर्हन्त भगवान् का पूजकाचार्य हो सकता है ॥१७॥
पूज्य, पूजक, पूजा और पूजा का फल पूज्यो, जिनपतिः पूजा पुण्यहेतु र्जिनार्चना। ____ फलं साभ्युदया मुक्ति भव्यात्मा पूजको मतः ॥१८॥ अर्थ:- जिनेन्द्र भगवान् पूज्य हैं, भव्य जीव पूजक है
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सुभाषितमञ्जरी जिनेन्द्र भगवान् की अर्चा करना पुण्य वर्धक पूजा है, और स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति होना पूजा का फल है ।।१८॥
पूजा करने का अधिकारी अकुण्डगोलकः श्राद्धः शोचाचमनतत्परः । पितृमातृसुहद्वन्धुभार्याशुद्धो निरामयः ॥१६॥ अर्थ- जो कुण्ड' और गोकल २ न हो जो श्रद्धा गुण से सम्पन्न हो, जन्म मरण सम्बन्धी शौच को दूर करने मे . तत्पर हो, पिता माता मित्र भाई और भार्या से ,शुद्ध हो तथा निरोग हो वही पूजा का अधिकारी है ॥१६॥
शुचिः प्रसन्ननो गुरुदेवभक्त्तो दृढ़वतः सत्वदयासमेतः दक्षः पटु र्वीजपदावधारी जिनेन्द्रपजासु स एव शस्तः ।२०। अर्थ:- जो पवित्र हो, प्रसन्न हो, गुरु और देव का भक्त हो अपने व्रत मे दृढ रहने वाला हो, धैर्य और दया से सहित हो, समर्थ हो, चनुतु हो, और बीजाक्षर पदो का अवधारण करने वाला हो वही पुरुष जिनेन्द्र भगवान् को पूजा मे उत्तम माना गया है ।।२०।।
१ पति के न मरने पर अर्थात् जीवित रहते हुए अन्य पुरुष के संपर्क से जा सन्तान होती है उसे कुण्ड कहते हैं २ और पति
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सुभाषितमञ्जरी के मर जाने पर विधवा के अन्य पुरुष के सपर्क से जो सन्तान होती है उसे गोलक कहते हैं ।
नित्यपूजास्वयं शस्तः प्रोच्यते विनयान्वितः ।
पूजकोक्तगुणोपेतः सर्वशास्त्ररहस्यवित् ॥२१॥ अर्थ-- जो विनय से सहित हो, पूजक के कहे हुए गुणो से सहित हो, तथा समस्त शास्त्रो के रहस्य को जानने वाला हो, वही पुरुष नित्य पूजा मे प्रशस्त कहा जाता है ॥२१॥
पूजा कौन करे ? मौनसंयमसम्पन्न देवोपास्ति विधीयाताम् ।
दन्तधावनशुद्धास्यै धौंतवस्त्रपवित्रितः ॥२२॥ मर्थ - जो मौन सयम से सहित हैं, दातौन के द्वारा जिनका मुख शुद्ध हो गया है तथा जो धुले हुए वस्त्रो से पवित्र हो ऐसे मनुष्यों के द्वारा भगवान की पूजा की जाती है ।।२२॥
प्रतिष्ठा के समय पूजा का अनधिकारी अतिवालोऽतिवृद्धश्च यतिदीर्घोऽतिवामनः ।
हीनाधिकाङ्गो व्याधिष्ठो भ्रष्टो पवान् ॥२३॥ मायावी दूपकोऽविद्वानर्थी क्रोधी च लोभवान् ।
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सुभाषितमञ्जरी
१२ दुष्टात्मा व्रतहीनोहत्प्रतिष्ठायां न शस्यते ॥२४॥ अर्थ -- जो अत्यन्त बालक हो, अत्यन्त वृद्ध हो, अत्यन्त लम्बा हो अत्यन्त बौना हो, हीनाङ्ग हो, अधिकाङ्ग हो, बीमार हो, भ्रष्ट हो, जाति पतित हो, मूर्ख हो, कुरूप हो, मायावी हो, दोषदर्शी हो, अविद्वान हो, याचना करने वाला हो, क्रोधी हो, लोभी हो, दुष्ट प्रकृति का हो, और व्रतहीन हो, ऐसा व्यक्तिअर्हन्त भगवान् की प्रतिष्ठा मे अच्छा नही समझा जाता ।।२४।।
अनधिकारी मनुष्य के पूजक होने का फल ईदृशो यदि वाज्ञाना दयेर्चज्जिनपुङ्गवम् ।
देशो राष्ट्र' पुरं राज्यं राजा विश्वं विनश्यति ॥२५॥ अर्था - यदि अज्ञान वश ऐसा पुरुष जिनेन्द्र की पूजा करे तो देश राष्ट्र, नगर, राज्य और राजा सब नष्ट हो जाते है ।२४।
पूजन का काल और विधि त्रिसन्ध्यामाचरेत्पूजां चतुर्भक्तिः स्तवं तथा ।
उत्तमाचरणं प्रोक्तं जपध्यानस्तवान्वितम् ॥२६॥ अर्था - सिद्धभक्ति, पञ्च गुरुभक्ति, चैत्य. भक्ति और शान्ति भक्ति इन चार भक्तियो से संहित प्रातः
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सुभाषितमञ्जरी मध्याह्म और सायकाल इन तीनों सध्याओं में भगवान् की पूजा और स्तवन करना चाहिये । जप, ध्यान और स्तवन से सहित भगवान की पूजा को उत्तमाचरण कहा गया है ।२६॥
पुष्प से की जाने वाली पूजा का फल सामोदै जलोद्भुतैः पुष्पैर्यो जिनमर्चति ।
विमानं पुष्पकं प्राप्य स क्रीडति यथेप्सितम् ,२७। अर्थ-जो पुरुष पृथ्वी और जल में उत्पन्न हुए सुगन्धित पुष्पो से जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है वह पुष्पक विमान को पाकर इच्छानुसार क्रीडा करता है ॥२७॥
जिन मन्दिर में दीपक रखने का फल । यो जिनेन्द्रालये दीपं ददाति शुभभावतः ।
स्वयंप्रभशरीरोऽसौ जायते सुरस पनि ॥२८॥ अर्धा--जो भव्यात्मा शुभ भाव से जिन मन्दिर में दीपक देता है वह स्वर्ग में दैदीप्यमान शरीर का धारक देष होता है ।२८॥
धूप से पूजा का फल धूपयश्चन्दनाशुनगुर्वादिप्रभवं सुधीः । जिनानां ढौकयत्येष जायते सुरभिः सुरः ॥२६॥
जो बुद्धिमान पुरुष जिनेन्द्र भगवान की चन्दन तथा
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सुभाषितमञ्जरी . १४ कृष्णगुरु आदि से बनी हुई धूप समर्पित करता है वह सुगन्धित देव होता है ॥२क्षा
पूजा नमस्कार और भक्ति का फल जिनेन्द्राणां मुनीशानां पूजनात्पूज्यतापदम् । उच्चैगोत्रं नमस्कराद्भक्ते रुपं च सुन्दरम् ॥३०॥ अर्था:- जिनेन्द्र भगवान और मुंनिराजो की पूजा करने से पूज्यता का पद जिनेन्द्र भगवान तथा मुनिराजों के नमस्कार करने से उच्च गोत्र और इन्हीं की भषित करने से सुन्दर रूप प्राप्त होता है ।॥३०॥
__ पूजा की प्रेरणा शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्त्रं स्नानमाचरेत् ।
लक्षं त्यक्त्वा नृपाज्ञा च कोटिं त्यक्त्वा जिनार्चनम् अर्था- सौ काम, छोड़कर भोजन करना चाहिये, हजार काम छोड़कर स्नान करना चाहिये,'लाख काम छोड़कर राजा की आज्ञा का पालन करना चाहिये और करोड काम छोडकर जिनेन्द्र देव की पूजा करनी चाहिये ॥३१॥
पूजा से जन्म की सफलता पूजामाचरतां जगत्त्रयपतेः संघानं कुर्वतां
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सुभाषितमञ्जरी तीर्थानामभिवन्दनं विदधतां जैनं वचः शृण्वताम् ।। सद्दानं ददती तपश्च चरतां सत्लानुकम्पावता
येषां यान्ति दिनानि जन्म सकलं तेषां सपुण्यात्मनाम् अथं --जिनके दिन त्रिलोकी नाथ की पूजा करते हुए, सघ की पूजा करते हुए, तीर्थों की वन्दना करते हुए, जिनवाणी को सुनते हुए, समीचीन दान देते हुए, तपश्चरण करते हुए, और जीवद्या को धारण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं उन्ही पुण्यात्माओ का जन्म सफल है ॥३२॥
जिनधर्म प्रशंसा प्रज्ञानियों के न जानने से जिन धर्म की हीनता नही होती
शार्दूलविक्रीडितच्छनद घूका न घुमणि विदन्ति क्रिमु वा क्यास्य प्रकाशो गतः । काकाः पूर्णविधु न जातु विदितः कान्तिर्गतो क्यास्य-किम् ।
भेका ीरनिधि च कूपनिलया निन्दन्ति निन्दास्य का नान्येऽज्ञा जिनधर्ममत्र विदिता स्तस्यास्ति का हीनता॥३३॥ अर्थ- यदि उल्ल संर्य को नही जानते है तो क्या इससे
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सुभाषितमञ्जरी सूर्य का प्रकाश कही चला गया, ? यदि कौए पूर्ण चन्द्रमा को नहीं जानते हैं तो क्या इससे कही इसकी कान्ति चली गई ? यदि कुए में रहने वाला मेढक क्षीर समुद्र की निन्दा करते हैं तो क्या इससे इसकी निन्दा हो जाती है ? इसी तरह अन्य अज्ञानी जीव यदि जिन धर्म को नही जानते हैं तो क्या इससे इसकी कुछ हीनता होती है अर्थात् नही ॥३३॥
धर्म रूपी रसायन का पान प्रति दिन करना चाहिये इदं शरीरं परिणामदुर्बलं पतत्यवश्यं शतसन्धिजर्जरम् । किमौषधं यच्छसि नाम दुमते निरामय धर्मरसायनं पिव अर्थ:- सैकड़ो सन्धियो से जर्जर हुआ यह शरीर अन्त में दुबल होकर अवश्य ही नष्ट हो जाता है। हे दुर्बुद्धि तू इसे क्या औषध देता है ? तू तो रोग को नष्ट करने वाली धर्म रूपी रसायन को पी ॥३४॥
जिनधर्म की दुर्लभता दुर्लभ मानुष जन्म थार्यखण्ड च दुर्लभम् । दुर्लभं चोत्तम गोत्रं जिनधर्मः सुदुर्गमः ॥३शा
अर्थ:- मनुष्य जन्म दुर्लभ है, आर्यखण्ड दुर्लभ है, उत्तम , गोत्र दुर्लभ है और जिन धर्म अत्यन्त दुर्लभ है ॥३॥ .
जिन धर्म की अमूल्यता
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सुभाषितमञ्जरी १७ जिनधर्मस्य भव्यानां संसारोम्छेदकारिणः ।।
त्रैलोक्याधिकमूल्यस्य केन मूल्यं विधीयते ॥३६॥ अर्श - जो भव्य जोवो के ससार का उच्छेद करने वाला है तथा जिसका मूल्य तीन लोक से अधिक है उस जिनधर्म । का मूल्य किससे किया जा सकता है ?
धर्मात्माओ का धर्म भक्तिः श्रीवीतरागे भगवति करूणा प्राणिवणे समग्रे । दान दीने च पात्रे श्रवणमनुदिनं श्रद्धया सच्छुतीनाम् । पापे हेयत्वबुद्धिर्भवभयमथने मुक्तिमार्गेऽनुरागः सङ्गे निःसङ्गचित्त विषयविमुखता धर्मिणामेव धर्मः ।३७॥ अर्थ- श्री वीतराग भगवान् मे भक्ति होना, समस्त प्राणियो के समूह पर दया होना, दोन पात्र के लिये दान देना, प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक समीचीन शास्त्रो का सुनना, पाप मे हेयत्व बुद्धि का होना, ससार के भय को नष्ट करने वाले मोक्ष मार्ग से अनुराग करना, परिग्रह मे विरक्त चित्त का होना और विपयो से विरक्त रहना यह धर्मात्माओ का धर्म है ।३७)
धर्म ही सिद्धि मुख को देने वाला है
शिखरिणीच्छन्द । चिरं बद्धो जीरः सुकृतदुरिताभ्यां च वपुषा '
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सुभाषितमञ्जरी स्वयं योग्योपार्भवति पयसोऽन्ततमित्र । विमुक्तोऽयं यस्मा-दभव-दहन सिद्धभगवान् प्रपद्य ऽहंद्धम तमिह शरणं सिद्धि सुखदम् ॥३८॥ अर्थ - जिस प्रकार दूध के अन्दर घी चिरकाल से निबद्ध है उसी प्रकार यह जीव भी चिरकाल से पुण्य पाप और शरीर से निबद्ध है । जिस धर्म के प्रभाव से यह जीव अर्हन्त और सिद्ध हुए हैं उसी सिद्धि सुख को देने वाले जिनधर्म की मैं शरण को प्राप्त होता हूँ ॥३८||
धर्म की प्रधानता चत्वारो वित्तदायादा धर्मचौराग्निभूभुजः । ज्येष्ठेऽपमानिते पुंसि त्रयः कुप्यन्ति सादराः ॥३६॥ सर्थ:- धन के हिस्सेदार चार है-१ धर्म, चोर, अग्नि, और राजा । इनमें से ज्येष्ठ अर्थात् धर्म का अपमान होने पर उसके प्रति आदर रखने वाले शेष तीन कुपित्त हो जाते हैं ।।३।।
धर्म ही सुख का कारण है धर्मपानं पिबेज्ज्ञानी प्रौढयुक्तिसमन्वितम् । ऋते धर्म न सौख्यं स्याद् दुःखसङ्गविवर्जितम् ४०॥ अर्थः. ज्ञानी मष्नुय को प्रबलयुक्तियो से सहित धर्म रूपी
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सुभाषितमञ्जरी पेय का पान करना चाहिये क्योकि धर्म के बिना दुख के ससर्ग से रहित सुख नही होता ।।४० ।
धर्म की महीमा धर्मयुक्तस्य जीवम्य भृत्यः कल्पद्र मो भवेत् । चिन्तामणिः कर्मकरः कामधेनुश्च किङ्करी ॥४१॥ अर्थ धर्म सहित जीव का कल्प वृक्ष सेवक है, चिन्तामणि किङ्कर है और कामधेनु किङ्करी है ।।४।।
धर्मात्मा मनुष्य का अल्प जीवन भी अच्छा है वरं मुहूर्तमेकं च धर्मयुक्तस्य जीवितम् ।
तद्धीनस्य वृथा वर्ष कोटीकोटीविशेषत ॥४२ अर्थ- धर्म सहित मनुष्य का एक मुहुर्त का जीवन भी अच्छा है और धर्म रहित मनुष्य का कोटिकोटी वर्ष का जीवन भी व्यर्थ है ॥४२॥
धर्म ही जीवन है जीवन्तोऽपि मृता ज्ञेया धर्महीना हि मानवाः ।
मृता धर्मेण संयुक्ता इहामुत्र च जीविना ॥४३॥ अy - यथार्थ मे धर्म से रहित मनुष्य जोवित रहते हुए भी मृत जानने के योग्य है और धर्म से सहित मनुष्य मर
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सुभाषितमरी
२० कर भी इस लोक तथा परलोक दोनो मे जीवित है ।।४।।
जिन धर्म ही मुक्ति का कारण है सिद्धा सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति कालेऽन्तपरिवर्जिते ।
जिनदृप्टेन धर्मेण नेवान्येन कथञ्चन ॥४४॥ सर्या - आज तक जितने सिद्ध हुए हैं, वर्तमान मे सिद्ध हो हो रहे है, और अनन्त भविष्यकाल मे जितने सिद्ध होगे वे सव जैनधर्म से ही हुए है, हो रहे है, और होगे, अन्य प्रकार से , नही ॥४४॥
धर्म का अनादर करने वाले की मूढता अनादरं यो वितनोति धर्म कल्याणमालाफलकल्पवृक्षे । चिन्तामणिं हस्तगतं दुरारं मन्ये म मुग्धस्तृणपज्जहाति ।४५ आर्या - जो कल्याण परम्परा रूप फल को देने के लिये . कल्पवृक्ष स्वरूप धर्म का अनादर करता है । जान पडता है वह मूर्ख हाथ मे आये हुए दुर्लभ चिन्तामणि रत्न को तृण के समान छोड देना है ।।४।।
धर्म शोभा का कारण सस्येन देरा पयसाजाएड शोर्येण शस्त्री विटपी फलेन । धर्मेण शोभामुपयाति मयों मदेन दन्ती तुरगो जवेन।।४६
देश -धान्य से, कमल समूह जल से, शस्त्र का धारक
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सुभाषितमञ्जरो धर्महीन ननुष्य जल्दी नष्ट होता है छिन्नमलो यथा वृक्षो गतशीर्षों यथा भट । धर्महीनो नरस्तद्वत्कियत्कालं च तिष्ठति ॥४७॥ अर्था.- छिन्न मूल वृक्ष के समान और शिर रहित योद्धा के समान धर्म हीन मनुष्य कितने समय तक स्थित रह सकता है ।।४७।।
धर्म का लौकिक फल धर्मेण सुभगा नार्यों रूपलावण्यसंयुताः । कामदेवनिभाः पुत्रा कुटुम्बसुखसाधनम् ॥४८|| अर्था- धर्म से सौभाग्य शालिनी एव रूप और सौन्दर्य से सहित स्त्रिया, कामदेव के समान पुत्र और सुख का साधन कुटुम्ब प्राप्त होता है ।।४८| धर्मो कामदुधाधेनु धर्मश्चिन्तामणिमहान् । धर्म कल्पतरुः स्थेयान्धर्मो हि निधिरक्षय. ॥४६॥ अर्थ - धर्म मनोरथो को पूर्ण करने वाली कामधेनु है । बड़ाभारी चिन्तमणि रत्न है स्थिर रहने वाला कल्पवृक्ष है और अक्षय निधि है ।।४।।
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सुभाषितमञ्जरी अत्यन्तविशदा कीर्ति स्तवनाच्च जगत् त्रये ।
जायते धीमतो धर्मादन्यद्वा यच्च दुर्घटम् ॥५०॥ म्यर्थ - जिनेन्द्र देव का स्तवन करने से बुद्धिमान मनुष्य की तीनो लोको मे अत्यन्त उज्वल कीर्ति फैलती है तथा धर्म के प्रभाव से और भो असभव कार्य सभव हो जाते है ।५०।
गार्दूल विक्रीडितम् रम्यं रूपमरोगता गुणगणा कान्ता कुरङ्गीदृश । सौभाग्यं जनमान्यता सुमतय' संपत्तय कीर्तय । वैदुष्यं रतिरुत्तमेन गुरुणा योग सहायः सुखं धर्मादेव नृणां भान्ति ह्यनिशं धर्मे मतिर्दीयताम् ॥५१॥ अर्थ · मनुष्यो को सुन्दर रूप, निरोगता, गुणसमूह, मृगनयनी स्त्रिया, सौभाग्य, लोक मान्यता, सद्बुद्धि, सम्पत्ति कोति, पाण्डित्य, प्रीति, उत्तम गुरु का सानिध्य सहायता, और सुख धर्म से ही प्राप्त होते है इसलिये निरन्तर धर्म मे ही बुद्धि दीजिये ॥५१॥ कौ वशीकरणं धर्मो धर्मश्चिन्तामणि परः। उक्तेन बहुना किं वा सारं यद् यच्च दृश्यते ॥५२॥ अर्था - धर्म ही पृथ्वी पर वशी करण मन्त्र है धर्म ही
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सुभाषितमञ्रो उत्कृष्ट चिन्तामणि रत्न है अथवा बहुत कहने से क्या ? ससार मे जो जो सारभून वस्तु देखी जाती है वह सब धर्म से प्राप्त होती है ।
-: साधु प्रशंसा :विसृष्टसर्वसङ्गानां श्रमाणानां महात्मनाम् । कीर्तयाभि समाचार दरित होईनक्षमम् ।।५३।। अर्थ - मै सर्व परिग्रह के त्यागी महात्मा साधुनो के ममीचीन आचार का कीर्तन करता हूँ क्योकि सद् गुरुवो का गुण कीर्तन सर्व पापो को नष्ट करने में समर्थ है ॥५३॥
कौन क्या चाहता है ? मक्षिका व्रणमच्छिन्ति नमिच्छन्ति पार्थिवा. नीचा कलहमिच्छन्ति शान्तिमिच्छति साधव ।।४।।
मक्खिया घाव चाहती है, राजा धन चाहते है, नीच कलह चाहते है और साधु शान्ति चाहते है ॥५४॥
साधु दर्शन का फल साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधन । तीर्थ फलति कालेन सद्यः साधुसमागम.. ॥५५।।
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२४
सुभाषितमञ्जरी अर्था-साधुअो का दर्शन करना पुण्य है, क्योकि साधु तीर्थ स्वरूप है, अथवा तीर्थ से बढकर हैं, क्योकि तीर्थ तो कालान्तर मे फल देता है परन्तु साधुओ का समागम शीघ्र ही फल देता है ॥५५।।
गुरु ही पृथ्वी के रक्षक हैं गुरवः परमार्थेन यदि न स्युर्भवादृशाः । अधस्ततो धरित्रीयं ब्रजेन्मुक्ता धरैरिव अर्थ- गुरुयो से भक्त कहते हैं कि यदि वास्तव मे आप जैसे गुरु न हो तो यह पृथ्वी पर्वतो से मुक्त हुई के समान नीचे चली जावे अर्थात जिस प्रकार पर्वतो से छोडी हुई कोई वस्तु नीचे जाती है उसी प्रकार गुरुयो से छोड़ी हुई पृथ्वी नीचे जाती है -चारित्र से भ्रष्ट हो जाती है ॥५६।।
साधु समागम से कुछ दुर्लभ नहीं है साधोः समागमाल्लोके न किञ्चिदुर्लभं भवेत् । बहुजन्मसु न प्राप्ता बोधिर्येनाधिगम्यते ॥५७॥ अर्थ.- साधु समागम से ससार मे कुछ दुर्लभ नही है क्योकि उससे, जो अनेक जन्मो मे प्राप्त न हो सकी ऐसी बोधि प्राप्त हो जाती है ।।५८।।
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सुभाषितमञ्जरो
२५ साधु सगति फल साधुसङ्गमनासाद्य यो मुस्तेरालयं व्रजेत् । स चान्धः प्रस्वजन्मार्गे कथं मेहं समारं ।।५८॥ अर्थ- जो पुरुष साधु सगति को प्राप्त किये बिना मोक्ष को प्राप्त होना चाहता है वह अन्धा मार्ग मे हो लडखडा कर रह जाता है मेरु पर्वत पर कैसे चढ सकता है ? 1॥५८।। अन्योक्ति-आम और शर्करा का सवाद
शार्दूल विक्रीडितम् गर्व मा कुरु शर्करे तव गुणान् जानन्ति राज्ञां गृहे ".. ये दीना धनवर्जिताश्च कृपणाः स्वप्नेऽपि पश्यन्ति नो। अाम्रोऽहं मधुमकोमलकलैस्तृप्ता हि सर्वे जना रे रण्ड़े तब को गुणो मम फलैः सार्धं न किञ्चित्फलम् अर्थ - री शक्कर ! तू गर्व मत कर, तेरे गुणो को लोग राजाओ के घर मे ही जानते है परन्तु जो, दीन, निर्धन और कृपण पुरुष हैं वे तुझे स्वप्न मे भी नही देखते हैं । मैं आम हूँ, मेरे मीठे एव कोमल फलो से सब लोग संतुष्ट रहते हैं। री राड तेरा ऐसा कौनसा गुण है जो मेरे फलो की समानता कर सके । मेरे फल सबन, निर्धन-सभी के काम आते हैं। भावार्थ-साधु पुरुष वही है जो मब के काम आता है ।।५।।
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सुभापितमञ्जरी २६
जैन यातियो का प्रभाव स्पृष्टा यत्र मही तदचिकमनस्तत्रैति सत्तीर्थतांतेभ्यस्तेऽपि सुराः कृताञ्जलिपुटा नित्यं नमस्कुर्वते । तन्नाम स्मृतिमात्रतोऽपि जनता निष्कल्मपा जापते ये जेना यतयश्चिदात्मनिरता ध्यानं समातन्वते ॥६०|| अर्थ- चैतन्य स्वरूप प्रात्मा मे लीन रहने वाले जैन यति जहा ध्यान करते है वहा उनके चरण कमलो से स्पृष्य पृथ्वी समीचीन तीर्थता को प्राप्त होती है, ऐसी भूमि को देव लोग भी हाथ जोड कर निरन्तर नमस्कार करते है और उनके नाम के स्मरण मात्र से जन समूह निष्पाप हो जाता है ।।६।।
मुनिपद में पाये जाने वाले गुण
स्रग्धराछन्द नो दुष्कर्मप्रवृत्तिर्न कुयुवतिसुतस्वामिदुर्मास्यदुखं । राजादौ न प्रणामोऽशनवसनधनस्थानचिन्ता च नैव। ज्ञानाप्तिर्लोकपूजा प्रशमसुखरतिः प्रेत्य मोक्षायवाप्तिः श्रामण्येऽमी गुणाः स्युस्तदिह सुमतयस्तत्र यत्नं कुरुध्वम् अर्था:- मुनि पंद मे न खोटे कार्यों मे प्रवृति होती है और न दुष्ट स्त्री न दुष्ट पुत्र और न दुष्ट स्वामी के कुवंचनो का
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मुभाषितमञ्जरो दुख होता है, न राजा आदि को प्रणाम करना पडता है
और न भोजन वस्त्र, धन तथा स्थान प्रादि की चिन्ता करनी पडती है । इनके विपरीत ज्ञान की प्राप्ति होती है, लोक प्रतिष्ठा बढती है, शान्ति सुख मे प्रीति होती है और मरने के बाद मोक्ष आदि की प्राप्ति होती है । हे बुद्धिमानुजनो । चूकि मुनिपद मे ये गुण हैं इसलिये उसे प्राप्त करने का यत्न करो ॥६१॥
__दिगम्बर साधु क्या धारण करते है ? संतोष लोमनाशाय धृतिं च सुखशान्तये । ज्ञानं च तपसां वृद्धय धारयन्ति दिगम्बराः ॥६२॥ ' अर्था.- दिगम्बर साधु लोभ का नाश करने के लिये सतोष को, सुख शान्ति के लिये धैर्य को और तप की वृद्धि के लिये ज्ञान को धारण करते है ।।६२॥ ।
मुनि परिग्रह से रहित होते हैं अपि वालाग्रमात्रेण पापोपार्जनकारिणा । ग्रन्थेन रहिता धीरा मुनयः सिंहविक्रमा ॥६३।। अर्था-धीरवीर एव सिंह के समान पराक्रमी मुनि, पा पका उपार्जन करने वाला बाल के अग्रभाग बराबर भी परिग्रह अपने पास नही रखते ॥६३।।
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सुभाषितमञ्जरी
मुनिराज वन्दनीय है महायोगेश्वरा धीरा मनमा शिरसा गिरा। वन्यास्ते साधनो नित्यं सुरैरपि सुवेष्टिताः ।।६४॥
जो उत्कृष्ट ध्यान के स्वामी है, धीरवीर है तथा देव भी जिन्हे निरन्तर घेरे रहते है ऐसे साधु मन से, शिर से और वाणी से वन्दनीय है ॥६३।।
मुनिपद का माहात्म्य न च राजभयं न च चोरभयं नरलोकसुखं परलोकहितम् । वरकीर्तिकरं नरदेवनुतं श्रमणत्वमिदं रमणीयतरम् ॥६५॥ अथं - यह मुनिपद अत्यन्त रमणीय है क्योकि इसमे न राजा का भय रहता है न चोर का भय रहता है किन्तु इसके विपरीत उत्तम कीत्ति को करने वाला है और मनुष्य तथा देवो के द्वारा स्तुत है ।।६।।
मुनि कैसे होते है परित्यक्तावृतिर्गीष्मे समाप्तनियमस्थितिः । विहङ्ग इव निःसङ्गः केसरीव भयोज्झितः अर्थ - बिगम्बर मुनि ग्रीष्म ऋतु मे छाया आदि को आवरण से रहीत होते है, आवश्यक कार्यो मे अच्छी तरह
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२९
सुभाषितमञ्जरी स्थित रहते हैं, पक्षी के समान नि सङ्ग-निष्परिग्रह रहते हैं और सिंह के समान निर्भय होते हैं ॥६६॥
मुनिपद को कौन प्राप्त होते हैं ? ऐरण्डसदृशं ज्ञात्वा मनुष्यत्वमसारकम् । सङ्गन रहिता धन्याः श्रमणावमुपाश्रिताः ॥६७॥
अर्थ:- भाग्यशाली मनुष्य, मनुष्य भव को ऐरण के समान निसार जानकर परिग्रह से रहित होते हुए मुनिपद को प्राप्त होता है ।।६७॥
गुरुगौरवम्
गुरु किसे कहते हैं ? सर्वशास्त्रविदो धीराः सर्वसत्वहितकरः । रागद्व पविनिमुक्ता गुरवो गरिमान्विताः ॥६८॥ .
अर्था - जो समस्त शास्त्रो के ज्ञाता हैं, धीरवीर हैं, सब प्राणियो का हित करने वाले हैं, तथा रागद्वेष से रहित है ऐसे गुरु ही गौरव से गहित होते है ॥६८।।
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सुभाषितमञ्रोगुरु ही श्रेष्ठ बन्धु है
वसन्ततिलकावृत्तम् जन्माटवीपु कुटिलासु विनष्टमार्गान् । येऽत्यन्तनिवृतिपथं प्रतिबोधयन्ति । तेम्योऽधिकः प्रियतमो वसुधातलेऽस्मिन् कोऽन्योऽस्ति बन्धुरपरः परिगण्यमानः ॥६६॥ अर्था'- जो ससार रूपा कुटिल अटवियो मे मार्ग' भूले हुए मनुष्यो को अविनाशी मोक्ष का मार्ग बतलाते है उनसे अधिक आदरणीय प्रियतम बन्धु इम पृथ्वीतल पर दूसरा कौन है ? ॥६६॥
गुरु वाक्य ही औषध है मिथ्यादर्शन विज्ञान सन्निपात निपीडनात् । गुरुवाक्यप्रयोगेण मुच्यन्ते सर्वमानवाः ॥७०॥ मर्थः- समस्त मनुष्य गुरुप्रो के वचन रूपी औषध के प्रयोग द्वारा मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान रूपी सन्निपात की बीमारी से मुक्त हो जाते है ||७० । जगत मे गुरु ही रक्षक है कुटुम्बादिक नहो, यह बताते है
___शिखरणीच्छन्द । पिता माता भ्राता प्रियसहचरी सूनुनिवहः । । ।
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सुभाषितमञ्जर सुहृत्स्वामी माघत्करिभटरयाश्वं परिकरः । निमज्जन्तं जन्तु नरककुहरे रक्षितुमलं गुरोधर्माधर्मप्रकटनपरात् कोऽपि न परः ॥७१॥ अर्थ-धर्म और अधर्म को प्रकट करने मे तत्पर गुरु के सिवाय कोई दूसरा पिता, माता, भाई, प्रिय सखी, पुत्रममूह मित्र, स्वामी, मदोन्मत्त हाथी, योद्धा, रथ, घोडा तथा परिजन नरक रूपी गर्त मे डूबते हुए जीव की रक्षा करने मे समर्थ नही है ।।७१।। . :
गुरु ही नौका है संसाराब्धी निमग्नानां कर्मयादःप्रपूरिते । भविनांभव्यचित्तानां तरण्डं गुरखो मताः ।।७२।। अर्या कर्मरूपी मगरमच्छो से भरे हुए ससार रूपी समुद्र मे निमग्न भव्य प्राणियो को तारने के लिये गुरु नौका सदृश माने गये है ॥७२॥
तरण तारण गुरु
वशस्थवृत्तम् अवमुक्ते पथि य प्रपतते, प्रवर्तयत्यन्यजनं च निस्पृह । स सेवितव्य' स्वहितौपिणा गुरु, स्वयं तरंसारपितु नम परम अर्थ.- जो निर्दोष मार्ग मे स्वय प्रवर्तते है तथा नि स्पृह
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सुभाषितमञ्जरी भाव से दूसरो को प्रवर्ताते है । साथ ही जो स्वय तरते हैं तथा दूसरो को तारने मे समर्थ है ऐसे गुरु आत्म हितैषीजनो के द्वारा सेवनीय है ॥७३।
गुरु वचन ही पदार्थ दर्शक हैं अज्ञानान्धतम स्तोमविध्वस्ताशेषदर्शना । भव्या' पश्यन्ति मूदमार्या गुरुमानुषचोंऽशुभिः ॥७४॥ अर्था:-अज्ञान रूपी गाढ अन्धकार के समूह से जिनकी सम्पूर्ण दृष्टि नष्ट हो गई है, ऐसे भव्य जीव गुरु रूपी सूर्य के वचन रूपी किरणो के द्वारा सूक्ष्म पदार्थों का दर्शन करते है ॥७४॥
साधुओ का कषाय दमन
मालिनीछन्दः मरमपि हृदि येषां ध्यानवह्निप्रदीप्ते सकलभुवनमल्लं दह्यमानं विलोक्य । कृतिमिप इव नष्टास्ते कपाया न तस्मिन् पुनरपि हि समीयु साधवस्ते जयन्ति ॥७५।। अर्थ -ध्यान रूपो अग्नि से प्रदीप्त जिनके हृदय मे जलते. हुए सकल जगत् के मल्ल कामदेव को देख कर वे क्रोधादि कषाय, मानो बहाना बनाकर ही इस तरह भाग कर खडे
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सुभाषितमञ्जरो
३३ कि फिर वहा नही आये, वे गुरु जयवन्त हों ॥७॥
___ गुरु ही ससार समुद्र के तारक हैं भववाधि तितीन्ति सद्गुरुभ्यो विनापि ये। जिजीविपन्ति ते मूढा नन्वायुःकर्मवर्जिताः ॥७६॥ अर्थ - जो सद्गुरुप्रो के बिना भी ससार सागर को तैरने की इच्छा करते है वे मूर्ख आयु कर्म से रहित होकर जीवित रहने की इच्छा करते हैं ॥७६।।
गुरुत्रों के वचन सदा ग्राह्य हैं गुरूणां गुरुवुद्धीनां निःस्पृहाणामनेनसाम् । विचारचतुरेवाक्यं सदा संगृहयते बुधैः ॥७७॥ अर्थ - विशाल बुद्धि के धारक, निस्पृह एवं निष्पाप गुरुयो के वचन विचार निपुण विद्वानो के द्वारा सदा संग्रहीत किये जाते हैं ।।७७॥ गुरु ही मोक्ष मार्ग के प्राप्त कराने वाले हैं
वसन्ततिलका भ्रांतिप्रदेषु यहुवमसु जन्मकक्ष पन्थानमेकममृतस्य परं नयन्ति ।
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सुभाषितमञ्जरो थे लोकमुन्नतधियः प्रणमामि नित्यं सानप्यहं गुरुवरान् शिवमार्गमिच्छुः ॥७८।। अश्रू.- ससार रूपी अटवी मे भ्राति उत्पन्न करने वाले अनेक मार्गो मे भटके हुए मनुष्य को जो मोक्ष का एक पद्वितीय मार्ग प्राप्त कराते है, मोक्ष मार्ग का इच्छुक मैं उत्कृष्ट बुद्धि के धारक उन श्रेष्ठ गुरुयो को निरन्तर प्रणाम करता हूँ ॥७॥
नमस्कार करने योग्य गुरु
उपजातिछन्द अनध रत्नत्रयमस्पदोऽपि निर्ग्रन्थतायाः पदमद्वितीयम् । जयन्ति शान्ताः स्मरवधूनां वैधव्यदास्ते गुरवो नमस्याः॥ आर्या - जो अमूल्य रत्नत्रय रूप सम्पदा से सहित होकर भी निर्ग्रन्थता-निष्परिग्रहता के अद्वितीय स्थान है, शान्त है तथा काम की वाधा से युक्त स्त्रियो के लिये वैवव्य प्रदान करने वाले है वे गुरु नमस्कार करने योग्य है ॥७६।।
गुरु वचन की दुर्लभता वैभवं सकलं लोके सुलभं भववर्तिनाम् । तत्वार्थदर्शिनां तथ्यं गुरूणां दुर्लभं वचः ।।८०|| अर्थः- संसार मे प्राणियो को समस्त वैभव सुलभ है परन्तु
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३५
सुभाषितमञ्जरी तत्थार्थ के द्रष्टा गुरुप्रो के सत्य वचन दुर्लभ है ।।१०।।
गुरुप्रो के बिना तत्वज्ञान सभव नही है
उपजाति
बिना गुरुभ्यो गुणनीरविभ्यो जानाति तचं न विचक्षणोऽपि
पफर्ण पूर्णोज्जललोचनोऽपि दी विना परयति नान्धकारे अर्थ -गुण मागर गुरुयो के बिना विद्वान भी तत्व को नही जानता है सो ठीक ही है क्योकि अपने कानो तक लम्बे उज्जव नेत्रो को धारण करने वाला मनुष्य भी अन्धकार मे दीपक के बिना पदार्थ को नहीं देख पाता है ।।८१।।
गुरु ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं
शार्दूलविक्रीडित अक्षस्तेनसुदुर्धरा अतिखला जीवस्य लुण्ठन्ति ये वृत्तज्ञानगुणादिरत्ननिचितं भाएड जगत्तारकम् । तान् संनय यतीश्वरा यमधनुचादाय मार्गे स्थिताः ध्नन्ति ध्यानशरेण येऽत्र सुखिनस्ते यान्ति मुस्त्यालयम् अर्था जो अतिशय दुष्ट इन्द्रिय रूपो प्रबल चोर, जीवो को सम्यक चारित्र तथा ज्ञान प्रादि गुग रूपी रत्नो से परिपूर्ण जगत् को तारने वाले पात्र को लूटते है उन्हे जो मुनिगज
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सुभाषितमञ्जरो मार्ग में खडे हो चारित्र रूपी धनुप को लेकर तथ। बांधकर ध्यान रूपी वाण के द्वारा नष्ट करते है वे ही इस ससार मे सुखी है तथा मुक्ति मन्दिर को प्राप्त होते है ।।८२॥
गुरु सड्व का अभिनन्दन नक्षत्रावतपूरितं मरकतरथा विशानं नमः पीयुपा तिनारिये लकलितं सच्चन्द्रिकाचन्दनम् । यावन्मेरुकगणकङ्कण बरा धत्ते धरित्री वधू स्तावन्नन्दतु धर्मकर्मनिरतः श्रीजैनमक क्षितौ ॥३॥
M - मेरु पवत रूपी हस्तान के ककण को धारण करने वाली यह पृथ्वी रूपी वधू जब नक नक्षत्र रूपी अक्षतों से युक्त, चन्द्रमा रूपी नारियल से सहित एव चादनी रूपी चन्दन से सुशोभित आकाश रूपी विशाल नीलमणिमय स्थाल को धारण करती है तब तक धर्म कर्म मे लीन जैन गृत्यो का मव पृथ्वी पर आनन्द को प्राप्त हो-शिष्य प्रशिष्यो की परम्परा से वृद्धि युक्त हो ॥८३॥
___वे गुरु कल्याणकारी हो नि:पन्दीकृतचित्तचण्डविहगाः पञ्चाक्षकक्षान्तका ध्यानध्वस्तसमम्तकिल्विपधिपा विद्याम्बुधेः पारगाः ।
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३७
सुभाषितमञ्जरो लीलोन्मलितकमेकण्टकचपाः कारुण्यपुण्याशया योगीन्द्रा भवभीमदैत्यदलनाः कुर्वन्तु ते निवृतिम् ॥४॥ अर्था- जिन्होने मन रूपी प्रबल पक्षी को निश्चेष्ट कर दिया है, जो पञ्चेन्द्रिय रूपी वन को नष्ट करने वाले हैं, जिन्होने ध्यान के द्वारा समस्त पाप रूपी विष को नष्ट कर दिया है, जो विद्या रूपी सागर के पारगामी हैं, जिन्होंने कम रूपो काटो के समूह को अनायास ही उखाड दिया है, जिनका अभिप्राय दया से पुण्य रूप है, और जो संसार रूपी भयकर दैत्य को नष्ट करने वाले है ऐसे योगिराज-महामुनि तुम्हारा कल्याण करे ॥४॥
शिष्य का लक्षण गुरुभक्तो भवाद्भीनो विनीतो धार्मिकः सुधीः शान्तस्वान्तो वतन्द्राः शिष्टः शिष्योऽयमिष्यते ॥८५)
अर्थ- जो गुरु भक्त हो, ससार से भयभीत हो, विनीत हो धर्मात्मा हो, बुद्धिमान हो शान्तचित्त हो, आलस्य रहित हो, और सभ्य हो वह शिष्य कहा जाता है ।।८।।
गुरु से कोई ऋण रहित नही हो सकता गुरोः सनगरग्रामां ददाति मेदिनीं यदि । तथापि न भवत्येप कदाचिदनृण पुमान् ॥८६॥
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सुभाषितमञ्जरी अमर्थाः- यदि गुरु के लिये नगर और ग्राम से सहित पृथ्वी को देवे तो भी पुरुष कभी ऋण रहित नही हो सकता ।।६।।
स्याद्वादवन्दना
__ स्याद्वादवन्दना . 'स्याद्वादं सततं वन्दे सर्वप्राणिहितापहम् ।
समतामृतपूर्ण यद् विश्वभ्रान्तिहरं परम् ।'८७॥ अर्था:- जो समस्त प्राणियो का हित करने वाला है, समता रूपी अमृत से पूर्ण है तथा सब प्रकार की भ्रान्तियो को हरने वाला है उस श्रेष्ठ स्याद्वाद सिद्धान्त की मैं वन्दना करता हूँ।
अनेकान्तरवि
उपजाति ५. सर्वथैकान्तनयान्धकार निहन्त्यवश्य नयरश्मिजाले । विश्वप्रकाशं विदधाति नित्यं पायादनेकान्तरवि स.युष्मान् ॥ अर्थ:- जो नय रूपी किरणों के समूह से सर्वथा एकान्तनय रूपी अन्धकार को अवश्य ही नष्ट करता है तथा जो निरन्तर समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है वह अनेकान्त रूपी रवि तुम सब की रक्षा करे ॥८॥
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सुभापितमजरो
३६ जिन शासन की महिमा शामनं जिननापस्य भव खस्य नाशकम् । तस्यास्ति वातना यस्य स ती कृतिनां वर ॥८६।। अर्थ- जिनेन्द्र भगवान् का शासन सतार के दुवो का नाश करने वाला है। जिस पुरप के उम जिन शामन को वासना है वह कुशल एव बुद्धिमानो मे श्रेष्ठ है ।।८।।
जिन वाक्य सुखकारी है चन्द्रातपेन को दग्ध को मृतोऽमृतसेया। जैनवास्येन को नष्ट गुरुकोपेन को हत ॥१०॥ अधू. चादनी से कौन जला है ? अमृत पान से कौन मरा है ? जिन वाक्य से कौन नष्ट हुआ है ? और गुरु कोप से कौन मरा है ? ॥६॥
गुरुनिन्दानिषेधनम् . गुरु निन्दा का फल देवनिन्दी दरिद्रः स्याद् गुरुनिन्दी चतकी । स्वामिनिन्दी भवेष्टी गोत्रनिन्दी कुलनी ।।६१॥ अर्थ. देव को निन्दा करने वाला इन्द्रि होता है, गुरु की
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सुभाषितमरो निन्दा करने वाला पातकी होता है, स्वामी की निन्दा करने वाला कुठो होता है और गोत्र को निन्दा करने वाला कुल क्षया-कुल का क्षय करने वाला होता है ।।६।।
अविद्यमान दोषो के कथन का फल यो भापते दोपमविद्यमानं सतां गुणानां ग्रहणे च मकः । स पापभाक स्याद् स विनिन्दरुश्च यशोवय प्राणवधानगरीयान् ।
अर्था- जो किसी के अविद्यमान दोष को कहता है और विद्यमान गुणो के ग्रहण करने मे मूक रहता है वह पापी है तथा निन्दक है क्योकि यश का घात करना प्राणघात से कही अधिक है ।।१२।।
गुरु की निन्दा करने वाला स्वय दोषी होता है निन्दा य कुरुते सायोस्तया स्वं दूषयत्यसौ । रवौ भूतिं त्यजेयो हि मूर्ध्नि तस्यैव सा पतेत् ॥३३॥ अर्थ - जो गुरु की निन्दा करता है वह उस निम्मा के द्वारा अपने आपको दूषित करता है । जो सूर्य पर राख डालता है वह राख उसी के मस्तक पर पडती है ।।३।।
गुरु निन्दक संसार सागर मे डूबते हैं निमज्जन्ति भवाम्भोधो यतीनों दोषतत्पराः । किं चित्रं यद्भवेन्मृत्यु कालकूटविषादनात् ॥६४"
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४१
सुभाषितमञ्जरो अर्थ- गुरुयो के दोष खोजने मे तत्पर रहने वाले पुरुष ससार रूपी सागर मे डूबते है सो ठीक ही है क्योंकि कालकूट विष के खाने से यदि मृत्यु होती है इसमे क्या पाश्चर्य है ?
गुरु निन्दा से निन्धगति प्राप्त होती है
वीतरागे मनो शरते यो देपं कुरुतेऽधमः । धर्मवनिर्जनः सोऽपि निन्यो निन्यगतिं व्रजेन ॥६॥
अर्थ - जो अधम पुरुष राग द्वेष से रहित उत्तम मुनि से द्वेष करता है वह धर्मात्माजनों के द्वारा 'निन्दित होता है तथा स्वय निन्दगति को प्राप्त होता है ॥६॥
अनिन्दनीय की निन्दा नरक का कारण है
निन्दनीये का निन्दा स्वभावो गुणकीर्तनम् । अनिन्धषु च या निन्दा सा निन्दा नरकावहा ॥६६॥ शथं निन्दनीय लोगो को क्या निन्दा, करना है ? उनकी निन्दा तो स्वय प्रकट है। मनुष्य का स्वभाव तो गुणों का कीर्तन होना चाहिये । घनिन्दनीय लोगो की बोनिन्दा है वह नरक को प्राप्त कराने वाली है ॥६॥
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___ ४२
सुभाषितमञ्जरो नीतिज्ञ मनुष्य किनकी निन्दा नहीं करते है ?
रथाद्धताच्छन्दः स्वामिनं सुहृदमिष्टसेवकं मल्लभामनुजमात्मजं गुरुम् । मातरं च जनकं च वान्धवं दृपयन्ति नहि नीतिदिनः ।। अर्था:- नीति के जानने वाले मनुष्य, स्वामी, मित्र, इष्ट सेवक, स्त्री, छोटा भाई, पुत्र, गुरु, माता, पिता, और भाई की निन्दा नही करते ॥१७॥
मुनि निन्दा निगोद का कारण है मुक्त्वा दुःखशतान्युच्चैः सर्वासु श्वभ्रभूमिपु । निगोतेऽभिपतन्त्येते यतिदोपपगयणाः ॥१८॥ अर्थः- मुनियो के दोप खोजने मे तत्पर रहने वाले मनुष्य नरक की समस्त पृथिवीयो मे सैकड़ो दुःख भोगकर निगोद में पड़ते है ॥८॥
सम्यग्दर्शन प्रशंसा
सम्यग्दर्शन परम धर्म है दर्शनं परमो धर्मो दर्शनं शर्म निर्मलम् । दर्शनं भव्यजीवानां निवृतेः कारणं परम् ॥६६॥ अर्थ:- सम्यग्दर्शन परम धर्म है, सम्यग्दर्शन निर्मल सुख है
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४३
ONAMA
सुभाषितमञ्जरो और सम्यग्दर्शन भव्य जीवो के निर्वाण का कारण है ।।६।।
सम्यग्दर्शन रहित साधु निन्दनीय है दृन्टिहीनो भवेत्याधुः कुर्वन्नपि तपो महत् । दग्विशुद्ध सुरैमनिन्दनीयः पदे पदे ॥१०॥ अर्थ - सम्यग्दर्शन से रहित साधु महान तप करता हुआ भी गम्यग्दृष्टि देवो और मनुष्यो के द्वारा पद पद पर निन्दनीय होता है ॥१०॥
सम्यग्दर्शन सहित गृहस्थ प्रशसनीय है सम्यग्दृष्टिगृहस्योऽपि कुर्वन्नारम्भमञ्जसा । पूजनीयो भवेल्लोके नृनाकिातिभिः स्तुतः ॥१०१॥ अर्था.- सम्य दृष्टि मनुप्य रहस्थ होने पर भी तथा प्रशस्त प्रारम्भ करने पर भी लोक मे मनुप्यो और इन्द्रो के द्वारा पूजनीय एव स्तवनीय होता है ॥१०१।।
सम्यक्त्व के विना देव भी स्थावर होते हैं सम्यक्त्वेन विना देवा पार्तध्यान विधार ये । दिवच्युत्वा प्रजायन्ते स्थावरप्वत्र तरूलार ॥१०२॥ अर्ग:- सम्यवत्व के विना देव प्रार्तध्यान वर इसके फल स्वरूप स्वर्ग से च्युत हो स्थावर जोत्रो मे उत्पन्न होते है ।।
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सुभापितमञ्जरो
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सम्यग्दर्शन से मनुष्य तीर्थंकर होता है यतः वाहिनिर्गत्य चरित्या प्रास्तनाशुभम् । समदर्शनमाहात्न्यात्तीर्थनाथो भवेत्सुधीः ।।१०३।। अर्थ:- सम्यग्दर्शन के प्रभाव से भेद विज्ञानी प्राणी नरक से निकल कर तथा पहले के अशुभ कर्मों को खिपा कर तीर्थकर होता है ॥१.३॥
सम्यक्त्व के साथ नरक का वास भी अच्छा है सम्यस्त्वेन समं वासो नरकेऽपि वरं सताम् । सम्यक्त्वेन विना नैव निगासो राजते दिवि ॥१४॥ अर्थ - सम्यक्त्व के साथ सत्पुरुषो का नरक वास भी अच्छा है भोर सम्यक्त के बिना स्वर्ग का निवास भी शोभा नही देता ॥१०४॥
सम्यक्त्व से ही जन्म सफल है तस्यैव सफलं जन्म मन्येऽहं कृतिनो वि। शशाङ्कनिर्मलं येन स्वीकृत दर्शनं महत् ॥१०॥ भG - जिसने चन्द्रमा के समान निमल उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन स्वीकृत किया है पृथ्वी पर मैं उसी कुशल मनुष्य के जन्म
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सुभाषितमञ्जरी को सफल मानता हूँ।
सम्यग्दर्शन के धारक जीव ही धन्य हैं धन्यास्त एव संसारे बुधैः पूज्याः सुरैः स्तुताः । दृष्टिरत्नं न यौतं कदाचिन्मज सन्निधौ ॥१०६॥ अर्था:- ससार मे वे ही धन्य हैं, वे ही विद्वानो के द्वारा पूज्य है और वे ही देवो के द्वारा स्तुत्य हैं जिन्होने सम्यग्दर्शन स्पी रत्न को कभी मलिन नही होने दिया ।।१०६॥
सम्यग्दर्शन को कभी मलिन नही करना चाहिये मत्वेति दर्शनं जातु स्वप्नेऽपि मलसन्निविम् । निर्मलं मुक्ति सोपानं न नेतव्यं शिनार्थिभिः ॥१०७॥ अर्थ - यह जानकर मोक्ष के अभिलाषी पुरुषो को मुक्ति की सीढो स्वरूप निर्मल सम्यग्दर्शन को कभी स्वप्न मे भी मल के समीप नही ले जाना चाहिये ॥१०७॥
मलिन सम्यग्दर्शन से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती मलिने दर्पणे यद्ववप्रतिविम्बं न दृश्यते । सदोपे दर्शने तद्वन्मुक्तिस्त्रीवदनाम्बुजम् ॥१०८।।
अर्था- जिस प्रकार मलिन दर्पण मे प्रतिविम्ब नहीं दिखाई देता उसी प्रकार मलिन सम्यग्दर्शन मे मुक्ति रूपी स्त्री का मुख कमल नही दिखाई देता ॥१०॥
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सुभाषितमञ्जरी
सम्यग्दर्शन का ऐहलौकिक और पारलौकिक फल इन्द्राहमिन्द्रतीर्थेश लौकान्तिकमहात्मनाम् । बलादीनां पदान्यत्र महान्ति च सुरालये ॥ १०६ ।।
• सम्यग्दर्शन के प्रभाव से इस लोक और परलोक मे इन्द्र, अहमिन्द्र, तीर्थकर लौकान्तिक देव तथा बलभद्र आदि के बडे बडे पद प्राप्त होते है ॥ १०६ ॥
सम्यग्दर्शन सब पापो को नष्ट करने वाला है '
वसन्तलिका
पापं यदर्जितमेने कभवेदुरन्तं सम्यक्त्वमेतदखिलं महसा हिनस्ति भस्मीकरोति सहसा तृणकाष्ठराशि किं नोर्जितोज्ज्वलशिखो दहनः समृद्धः ॥ ११० ॥
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अनेक भंवो मे जो दुरन्त- दुखदायी पाप का सचय होता है उस पत्र को यह सम्यग्दर्शन शीघ्र ही नष्ट कर देता है सो ठीक ही है क्योकि प्रचण्ड और उज्ज्वल ज्वालाओ से युक्त देदीप्यमान अग्नि क्या तृण प्रोर काष्ठ की राशि को सहमा भस्म नही कर देती ?
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. सुभाषितमञ्जरो ४७
सम्यग्दर्शन से बढकर सुख नही है दर्शनबन्धो न परो बन्धुदर्शनलाभान्न परो लाभः । दर्शनमित्रान्न परं मित्रं दर्शनमौख्यान्न पर सौख्यम् ॥ अर्था - सम्यग्दर्शन रूपी बन्धु से बढकर दूसरा बन्धु नही है, सम्यग्दर्शन रूपी' लाभ से बढकर दूसरा लाभ नही है, सम्यग्दर्शन रूपी मित्र से बढकर दूसरा मित्र नहीं है और सम्यग्दर्शन रूपी सुख से बढकर दूसरा सुख नही है ॥१११।।
मभ्यग्दर्शन से बढकर बन्धु नही है सम्यक्त्वान्नापगे बन्धुः स्वामी विश्वहितंकरः। स्वर्गमुक्तिकरः पुमां पापघ्नश्च वृषप्रदः ॥११२॥ । अर्थ- मनुष्यो का सम्यग्दर्शन से बढकर दूसरा बन्धु नहीं है, सम्यग्दर्शन से बढकर दूसरा सर्व हितकारी स्वामी नही है, और सम्यग्दर्शन से बढकर दूसरा स्वर्ग तथा मोक्ष को प्राप्त कराने वाला, पापापहारी धर्म दायक नही है ।११२।।
सम्यक्त्व रूपी चिन्तामणि की विशेषता केवलं धनमत्र-सुखं दुखं ददात्यहो । सम्यक चिन्तामणि विश्वसुखं लोकत्रये सताम् ॥११३।। अर्था- धन तो केवल इसी लोक मे सुख और दुख देता है
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सुभापितमञ्जरो
४८ परन्तु सम्यक्त्व रूपी चिन्तामरिण तीनो लोको मे सत्पुरुषो को समस्त सुख प्रदान करता है ॥११३
सम्यग्दृष्टि ही मोक्ष मार्ग मे स्थित है मुक्तिमार्गस्यमे पाहं तं मन्ये पुरुषोत्तमम् । भोक्तार त्रिजगल्लचस्याः स्वीकृतं येन दर्शनम् ॥११४॥ अर्थः जिसने सम्यग्दर्शन स्वीकृत किया है मै उसी पुरुषोत्तम को मोक्ष के मार्ग मे स्थित तथा तीन जगत् की लक्ष्मी का भोगने वाला मानता हूँ ॥११४।।
सम्यग्दृष्टि ही यहा धनी है महाधनी स एवात्र मतो दक्षः परत्र च । अनयष्टि सद्रत्न हदि यस्य विराजते ॥११॥ अर्थ:- जिसके हृदय मे सम्यग्दर्शन रूपी अमूल्य रत्न सुशोभित है वही चतुर मनुष्यो के द्वारा इस लोक तथा परलोक मे महाधनी माना गया है ॥११५।।
सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र का मूल ज्ञानचारित्रयोमनं दर्शनं भापितं जिनः । सोपान प्रथमं मुक्तिधाम्नी बीजं वृपस्य च ॥११६॥ अर्था- जिनेन्द्र भगवान् ने सम्यग्दर्शन को ज्ञान और
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सुभाषितमञ्जरो चरित्र का मूल मोक्ष महल की पहली सीढी और धर्म का बोज कहा है। ॥११६।।
सम्यक्त्वान् की पहिचान क्षमावैराग्यसन्तोषदयावान् विषयातिगः । कपायमदसंहारी सम्यक्त्वभूषणो भवेत् ॥११७।। अर्थ · जो क्षमा वैराग्य संतोष और दया से सहित है, विषयो से परे है तथा कपायरूपी मद का सहरण करने वाला है वही सम्यक्त्व रूपो आभूषण से सहित होता है ।
क्षमा प्रशंसा क्षमावान् का दुर्जन क्या कर सकता है ? मत्यदुर्गसमारूढं शीलप्राकारवेष्टितम् । चमाखङ्गयुतं नित्यं दुर्जनः किं करिष्यति ।।११८॥ अर्था - जो सत्यरूपी किले पर चढा हुआ है, जो शील रूपी कोट से घिरा हुआ है तथा जो सदा क्षमारूपी खड्ग से सहित है दुर्जन उसका क्या कर सकता है। ।।११८।।
अकारण द्वेषी को सतुष्ट करना कठिन है। निमिष मुदिश्य हि य प्रकुप्यति ध्र वं सतस्यापगमे प्रसीदति । अकारणव पि मनस्तु यस्य वै कथं जनं त परितोपयिष्यति
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सुभाषितमञ्जरो अर्ज:- जो किसी कारण को लेकर कुपित होता है वह निश्चय ही उस कारण के दूर हो जाने पर प्रसन्न हो जाता है परन्तु जिसका मन बिना कारण ही द्वेप करता है उसे किस प्रकार सतुष्ट किया जा सकता है ।।११।।
क्षमारूप खड्ग की महिमा
क्षमाखन करे यस्य दुर्जनः कि करिष्यति । अतणे पतितो वन्हि स्वयमेवोपशाम्यति ।। १२० ॥
अर्थ:- क्षमा रूपी खग जिसके हाथ मे हो उसका दुर्जन क्या कर लेगा? क्योकि तृणरहित स्थान पर पडी हुई मग्नि स्वय ही शान्त हो जाती है ॥१२०।।
मुनियो का सम्बल क्षमा है
कस्यचित्सम्बलं विद्या कस्यचित्सम्बलं धनम् । कस्यचित्सम्बलं मात्ये मुनीनां सम्बलं क्षमा ।। १२१ ॥
अर्थः- किसी का सम्बल (नाश्ता ) विद्या है, किसी का
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सुभाषितमञ्जरो
५१ सम्बल धन है, किसी का सम्बल मनुष्यता है और मुनियो का सम्बल क्षमा है ।।१२।।
सबल निर्बल पर कोप नही करते यद्यपि रटति सरोपो मृगपतिपुरतोऽपि मत्तगोमायुः । तदपि न कुप्यति सिंहो ह्यसशि पुरुपे कुतः कोपः ॥१२२।। अर्था:- यद्यपि क्रोध से युक्त मत्त शृगाल सिह के सामने भी सब्द करता है तथापि सिंह कुपित नही होता सो ठीक है, क्योकि अपनी समानता न रखने वाले पुरुष पर क्रोध कैसे किया जा सकता है ? ॥१२२॥
क्षमा ही आभूषण है सुतवन्धुपदातीना-मपराधशतान्यपि । महात्मानः क्षमन्ते हि तेषां तद्धि विभूपणम् ।। १२३ ॥ अर्था महात्मा पुरुष पुत्र, बन्धु और सेवक प्रादि से सैकडो अपराध क्षमा करते है, सो ठीक ही है क्योकि क्षमा उनका प्राभूपण है ॥१२३॥
क्षमा करोडो ध्यान के समान हैं पुण्यकोटीसमं स्तोत्रं स्तोत्रकोटिसमो जपः । जपकोटीसमं ध्यानं ध्यानकोटीसमा क्षमा ॥ १२४॥
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सुभाषितमञ्जरो अर्था.- भगवान का स्तोत्र करोडो पुण्यकार्यों के समान है जप करोडो स्तोत्रो के समान है, ध्यान करोडो जपो के समान है और क्षमा करोडो ध्यानो के समान है ॥१२४॥
शान्तात्मा का लक्षण कालुष्यकारणे जाते दुर्निवारे गरीयसि । नान्तः सुभ्यति कस्मैचिच्छान्तात्माऽसो निगद्यते॥१२॥ अर्था - कलुषता का बहुत भारी दुनिवार कारण उपस्थित होने पर भी जो अन्तरङ्ग मे किसी से क्षोभ नही करता वह शान्तात्मा कहलाता है । ॥१२५।।
क्षमा से कर्म क्षय होते है क्षमया क्षीयते कम दुःखदं पूर्वसञ्चितम् । चित्तञ्च जायते शुद्ध विद्वपभयवर्जितम् ॥१२६॥
अर्थ- क्षमा से पूर्व सचित दु खदायी कर्म क्षीण हो जाते है तथा हृदयद्वप और भय से रहित होकर शुद्ध हो जाता है।
तपस्वियो का रूप क्षमा है पातिव्रत्यं स्त्रिया रूपं पिकीनां रूपकं स्वरः। विद्यारूपं कुरूपाणां क्षमारूपं तपस्विनाम् ॥१२७॥
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सुभाषितमञ्जरो अर्थ - स्त्री स्प पनिव्रत्य धर्म है, कोकिलापो का रुप स्वर है. कुरुप मनुष्यो का स्प विद्या है और तपस्वियो का रूप धमा है ।।१२७।।
क्षमावान् मनुष्यो का एक दोप (१) एकः क्षमावतां दोपो द्वितीयो नोपलभ्यते । यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः ॥१२८।। शशु क्षमावान मनुष्यो का एक ही दोष उपलब्ध है दूसरा नही, वह यह कि आमा मे युक्त मनुष्य को लोग असमर्थ समझते हैं ॥१२॥
क्षमा से क्या माध्य नही है ? क्षमार नमशस्तानां शक्तानां भूषणं नमा । चमावशीकृतोलोकः क्षमया किं न माध्यते।।१२६ ।।
थं मा असमर्थ मनुष्यो का बल है, और ममर्थ मनुष्यों का आभूपण है । साग ससार क्षमा से वग मे हो जाता है सो ठीक है क्षमा से नया नहीं मिद होता ? ||१२६।।
क्षमा ज्ञान का ग्राभरण है। नरम्याभररसप, रूपस्याभरण गुणाः । गुणम्याभरणं ज्ञानं तानस्याभरणं नमा१३०॥ .
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सुभाषितेमञ्जरी
५४
अर्था:- मनुष्य का आभरण रूप है, रूप का आभरण गुरण है, गुण का आभरेण ज्ञान है और ज्ञान का प्राभरण क्षमा है।
क्षान्ति मनुष्यो का हित करने वाली है शान्तिरेव मनुष्याणां मातेव हितकारिणी । माता कोपं समायाति क्षान्ति व कदाचन ।।१३१।। अर्था:- क्षमा ही मनुष्यो का माता के समान हित करने वाली है। विशेषता यह है कि माता तो कभी क्रोध को प्राप्त हो जाती है, परन्तु क्षमा कभी भी क्रोध को प्राप्त नही होती है।
क्षमा ही कार्य को सिद्ध करती है । पत्तमी कुरुते कार्य न क्रोधस्य वशं गतः । कार्यस्य साधिनी बुद्धिः सा च क्रोधेन नश्यति ।।१३२।। अर्था:- क्षमावान् मनुष्य जो कार्य करता है उसे क्रोधीमनुष्य नही कर सकता, क्योकि कार्य को सिद्ध करने वाली बुद्धि है, भौर बुद्धि क्रोध से नष्ट हो जाती है ।।१३२॥
क्षमा क्रोध को पराजिन करती है क्रोधयोधः कथंकारमहंकारं करोत्ययम् । लीलयैव पराजिग्ये क्षमया रामयापि यः ।।१३३।।
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सुभाषितमञ्जरे अर्था:- यह क्रोध रूपी सुभट अहकार क्यो करता है, जब कि वह स्त्री रूप (स्त्री लिंग ) क्षमा के द्वारा अनायास ही पराजित हो चुका है ॥१३३।।
मूर्ख अपराधी क्षमा के पात्र हैं अबुद्धिमाश्रितानां च क्षन्तव्यमपराधिनाम् न हि सर्वत्र पाण्डित्यं सुलभं पुरुषे क्वचित्।।१३४॥ अर्थः- मूर्ख अपराधियो को क्षमा करना चाहिये। क्योकि सभी पुरुषो मे, कही भी पाण्डित्य सुलभ नही है ।।१३४।।
क्रोध का पात्र क्रोध है अपकारिणि चेत्क्रोधः, क्रोधे क्रोधः कथं न ते । धर्मार्थकाममोक्षाणां चतुर्णा परिपन्थिनि ।।१३।।
अर्था:- यदि अपराधी पर क्रोध करना है तो धर्म, अर्थ काम और मोक्ष-चारो के विरोधी क्रोध पर तुझे क्रोध क्यो नही पाता है ? ॥१३।।
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सुभापितमजरो कधि निन्दा क्रोध ही प्रथम शत्रु है उपजाति छन्द.
क्रोधो हि शत्रः प्रथमो नराणां, देहस्थितो देहविनाशहेतुः । अग्निर्यथा काष्ठगतोऽपि गूढः, स एव काष्ठं दहतीह नित्यम्
अर्थ.- क्रोध ही मनुष्यो का सबसे पहला शत्रु, है क्योकि वह शरीर मे स्थित होता हुआ ही शरीर के नाश का कारण है। जैसे जो अग्नि काष्ठ मे स्थित होकर छिपी रहती है, वही इस ससार मे निरन्तर काष्ठ को जलाती है ॥१३६।।
क्रोध अनर्थ का मूल है क्रोयो मूलमनर्थानां, क्रोधः संसारवर्धनः । धर्मक्षयकरः क्रोधस्तरमात्क्रोधं विवर्जयेत् ।।१३७॥ - अर्थ - क्रोध अनर्थों का मूल है, क्रोध ससार को बढाने वाला है और क्रोध धर्म का क्षय करने वाला है। इसलिये क्रोध को छोड देना चाहिये ॥१३७॥
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सुभाषितमञ्जरो
पीछे दुःख, शोक आदि अन्य दुर्गतियो को भी देता है ॥१४०॥
क्रोध को छोडने का उपदेश तावत्तपो व्रतं ध्यानं स्वस्थचित्तं दयादिकम् । यावत्क्रोधो न जायेत तस्मात्क्रोधं त्यजेन्मुनिः ॥१४१॥ अर्थ - व्रत, ध्यान, स्वस्थ चित्त तथा दया आदिक तभी तक रहते है जब तक क्रोध उत्पन्न नही होता इसलिये मुनि को क्रोध छोड देना चाहिये ।।१४१।।
क्रोध रूप शत्रु दोनो लोको का विनाशक है लोकद्वयविनाशाय पापाय नरकाय च । स्वपरस्यापकाराय क्रोधशत्रुः शरीरिणाम ।।१४२।। अथ- क्रोधरूपी शत्रु मनुष्यो के दोनो लाको के विनाश के लिये, पाप के लिये, नरक के लिये तथा निज और पर के अपकार के लिये है ।।१४२॥
क्रोध के तीन भेद उत्तमस्य वणं कोपो मध्यस्य प्रहरद्वयम् । अधमस्य त्वहोरात्रं पापिष्ठस्य सदा भवेत् ।।१४३।। अर्था:- उत्तम मनुष्य का क्रोध क्षण भर ठहरता है, मध्यम
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सुभाषितमञ्जरो पुरुष का दो प्रहर ठहरता है, नीच का दिन-रात ठहरता है और अत्यन्त पापी मनुष्य का क्रोध सदा ठहरता है ।।१४३।।
क्रोध के प्रति क्रोध क्यो नही करते ? अपकुर्वति कोपश्चेत कि कोपाय न कुप्यति । त्रिवर्गस्यापवर्णस्य जीवितस्य च नाशिने ॥१४४॥ अर्थ - यदि अपकार करने वाले पर क्रोध किया जाता है तो त्रिवर्ग को, मोक्ष को और जीवन को नष्ट करने वाले क्रोध पर क्यो नही क्रोध करते हो ।।१४४।।
क्रोध के समान दूसग शत्रु नही है वरं विवर्धयति सख्यमपाकरोति रूपं विरूपयति निन्धमति तनोनि । दौर्भाग्यमानयति शातयते च कीर्ति लोकेऽत्र रोपसदृशो न हि शत्रुरस्ति ।।१४५'।
अर्थ - वैर को बढाता है, मित्रता को दूर करता है, रूप को विरूप करता है, निन्दितबुद्धि-दुर्बुद्धि को विस्तृत करता है, दौर्भाग्य को लाता है और कीर्ति को नष्ट करता है सच-- मुच ही इस ससार मे क्रोध के समान दूसरा शत्रु नहीं है।
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सुभाषितमञ्जरो असमर्थ मनुष्य का क्रोध क्या कर सकता है ? यस्य रुष्ठे भय नास्ति तुष्टे नेव धनागमः । निग्रहानुग्रही न रतः स रुष्टः किं करिष्यति ॥१४६॥ अथ - जि ।के क्रुद्ध होने पर भय नही हाता और सतुष्ट होने पर धन की प्राप्ति नही होती इस तरह जिसमे निग्रह और अनुग्रह करने की क्षमता नही हैं वह क्रुध होकर क्या करेगा ? ॥१४६।।
किनको कुपित नही करना चाहिये ? सूपकारं कवि वैद्य चन्दिनं शस्त्रपाणिकम् । स्वामिनं धनिनं मखें मर्मज्ञं न च कोपयेत्।।१४७॥ अर्थ. रसोइया, कवि, वैद्य, बन्दी, हथियार हाथ मे लिए हुए, स्वामी, धनी मूर्ख अोर मर्म को जानने वाला, इतने मनुष्यो को कुपित नही करना चाहिये ।।१४७।।
स्त्री स्वार्थ से ही पति को स्मरण करती है शोचन्ते न मृतं कदापि वनिता यद्यस्ति गेहे धनं तच्चेन्नास्ति रुदन्ति जीवनाधंया स्मृत्वा पुनः प्रत्यहम् । तन्नामापि च विस्मरन्ति कतिभि सर्दिनैवीन्धवाः कृत्वा तद्दहन क्रियां निजनिजव्यापारचिन्ताकुलाः ॥१४८॥
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सुभाषितमञ्जरो
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अर्थ - यदि घर मे धन है तो स्त्रिया मरे हुए पति के प्रति कभी शोक नही करती। यदि धन नहीं है तो आजीविका की बुद्धि से प्रति-दिन बार बार स्मरण कर रोती हैं फिर कुछ महीनो मे उसका नाम भी भूल जाती हैं। इस प्रकार भाई भी उसको दाहक्रिया कर अपने अपने कार्य की चिन्ता म निमग्न हो कुछ दिनो मे उसका नाम भूल जाते हैं ।।६४६।। नोट - यह श्लोक स्वार्थपरता प्रकरण का है।
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मान निषेधनम
मानी क्या करता है ? कायं कृन्तति सद्गुणांस्तिस्यति क्लेशं करोत्यात्मना मतु वाञ्छति ना तनोत्यविनयं लोकस्थितिं प्रोज्झति । मान्यं द्वष्टि जनं विमुञ्चति नयं शेते न भुङक्त सुखं मानी मान-शेन कष्टपतितः पापं चिनोत्याततम् ॥१४६॥ अर्थ - मानी मनुष्य काय को छेदता है, सद्गुणो को छिपाता है, अपने आप क्लेश करता है मरने की इच्छा करता है, अविनय को विस्तृत करता है, लोक मर्यादा को छोडता है,
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सुभाषितमञ्जरो माननीयजनों के प्रति द्वेष करता है, नीति को छोडना है न सोता और न सुख से खाता है इस तरह मानो मनुष्य मान के वश कष्ट मे पड़ कर अत्यधिक पाप का सचय करता है।
___ मान का फल यो मदान्धो न जानाति हिताहितविवेकताम् । स पूज्येषु मदं कृत्वा नरो भवति गर्दभः ।।१४६।। अर्थ - जो मद से अन्धा होकर हित और अहित के विवेक को छोड़ देता है वह मनुष्य पूज्य पुरुषो के विपय मे मद करके गधा होता है ।।१४६।।
मान छोडने का उपदेश देने वाले स्वय मान करते है आदिशान्ति परांश्चेति त्याज्यो मानकषायकः । स्वयं जैनगृहं दृष्ट्वा बहिस्तिष्ठन्ति नीचवत् ।।१५०।। अर्था- कितने ही लोग दूसरो को तो उपदेश देते है कि मान कषाय छोड़ने के योग्य है परन्तु जैन मन्दिर को देखकर स्वय नीच की तरह बाहर खडे रहते है ॥१५०।।
विनय का फल समस्तसपदां सङ्घ विदधाति वशं स्वकम् । • चिन्तामणिरिवाभीष्ठं विनयः कुरुते न किम् ।।१५१॥
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सुभापितमञ्जरी सर्या . विनयी मनुष्य समस्त सपदानो के समूह को अपने वश कर लेता है सो ठीक है क्योकि विनय चिन्तामणि के समान क्या नहीं करता है ? ।।१५१।।
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माया निन्दा
माया नरक का कारण है अर्थातौं प्रचुरप्रपञ्चरचने ये वेञ्चयन्ते परान् नूनं ते नरकं ब्रजन्ति पुरतः पापिवजा दन्यतः । प्राणाः प्राणिषु तन्निबन्धनतया तिष्ठन्ति नष्टे धने यावान दुःखमरो नृणां न मरणे तावानिह प्रायशः॥१५२॥ अर्था:- धन आदि के विषय मे जो लोग बहुत भारी छल कपट करके दूमरे लोगो को ठगते हैं वे दूसरे पापियो से पहले निश्चित ही नरक जाते है क्योकि प्राणी धन को प्राणों का कतारण होने से प्रारण समझते हैं और धन के नष्ट होने पर मनुष्यों को जितना दुःख होता है उतना प्राय मरण में भी नही होता ॥१२॥
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सुभाषितमञ्जरी मायावियो के सब अनुष्ठान व्यर्थ हैं कूटद्रव्यमिवासारं तपो धर्मत्रतादिकम् । भायाविनामनुष्ठानं सर्न भवति निष्फलम् ॥१५३॥
अर्थ:- मायावी मनुष्यो के तप, धर्म तथा व्रतादिक कूट द्रव्य-निर्माल्य के समान सार रहित है इसी तरह मायावी मनुष्यो के सब अनुष्ठान निष्फल है ।।१५३।।
___ मायावी का गुप्त पाप स्वय प्रकट होता है मयां करोति यो मढ, इन्द्रियादिकसेवने । गुप्तपापं स्वयं तस्य व्यक्तं भवति कुष्ठवत् ।।१५४।। अर्थ- जो मूर्ख इन्द्रियादिक के सेवन मे माया करता है उसका गुप्त पाप कुष्ठ के समान स्वय प्रकट हो जाता है ।
__ माया युक्त वचन त्याज्य है मायायुक्तं वचस्त्याज्यं माया संसारवर्धिनी । ! यदि सङ्गपरित्यागः कृतः कि मायया तव ॥१५५॥ अर्था:- मायायुक्त वचन छोडने योग्य है क्योकि माया ससार को बढाने वाली है । हे मुने | यदि तूने परिग्रह का त्याग किया है तो तुझे माया से क्या प्रयोजन है ? ॥१५५।।
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सुभाषितमञ्जरो
माया मनुष्य को स्त्री बना देती है दौर्भाग्यजननी माया माया दुर्गतिवर्तनी । नृणां स्त्रीत्वपदा माया ज्ञानिभिस्त्यज्यते ततः ॥१५६॥ अर्थ- माया दौर्भाग्य को उत्पन्न करने वाली है, माया दुर्गति मे ले जाने वाली है, और माया मनुष्यो को स्त्रीपर्याय प्रदान करने वाली है इसलिये उसका त्याग क्यिा जाता है ।
माया के दोष स्त्रैणषण्ठत्वतैरश्चनीचगोत्रपराममाः । मायादोपेण लभ्यन्ते पुसां जन्मनि जन्मनि ॥१५७।। अर्थाः स्त्रीत्व, नपुसकत्व, त्रियञ्चगति, नीच गोत्र और पराभव ये सब मनुष्यो को माया के दोष से भवभव मे प्राप्त होते है ॥१५॥ मुनि मायारूपी लता को ज्ञानरूपी शस्त्र से छेदते है
आर्या मायावल्लिमशेषां मोहमहातरुवरसमारूढाम् । विषयविषपुष्पसहिता लुनन्ति मुनयो ज्ञानशस्त्रेण।१५८।। अर्थ - मोहरूपी महावृक्ष के ऊपर चढी हुई तथा विषयरूपी विष पुष्प के सहित मायारूपी समस्तलता को मुनि ज्ञानरूपी शस्त्र के द्वारा छेदते है ||१५६।।
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सुभाषितमञ्जरो
तृष्णा निन्दा
लोभी को सुग्व नही होता न सुखं धनलुब्धस्य न धर्मो दुष्टचेतसः । न चार्थो भाग्यहीनम्य ह्योषधं न गतायुपः ।।१५६ ।। अर्थ धन के लोभी को सुखनही होता, दुष्ट चित्त वाले मनुष्यो से धर्म नही होता, भाग्यहीन को धन नहीं मिलता और जिसकी आयु समाप्त हो जाती है उसे औषधि नही लगती।
___ आशा को नष्ट करने वाले ही धन्य है धन्यास्त एव यैराशागक्षसी प्रहता भुवि । सन्तोषयष्टिमुष्ट्याद्यः सुखिनो जगदर्चिताः ।।१६०॥ अर्था - जिन्होने इस पृथ्वी पर सतोषरूपी लाठी तथा मुक्के आदि के द्वारा आशारूपी राक्षसी को नष्ट कर दिया है वे ही धन्य है, वे ही सुखी है तथा वे ही जगत् के द्वारा पूज्य हैं ।
तृष्णा एक लता है यस्या बीजमहंकृतिगुरुतरा मूलं ममेति ग्रहो। नित्यत्वस्मृतिरङ्करः सुतसुहज्जात्यादयः पल्लवाः ।
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सुभाषितमञ्जरी
६७ स्कन्धो दारपरिग्रहः परिभवः पुष्पं फलं दुर्गतिः सामे त्वल्ललितांघ्रिणा परशुना तृष्णालता लूयताम्।।१६१॥ अर्थ- बहुत भारी अहकार जिसका बीज है, ममताभाव जिसकी जड है। नित्यपना का स्मरण जिसका अङ्क र है, पुत्र, मित्र तथा कुटुम्ब आदि जिसके पल्लव है, स्त्री जिसका स्कन्ध है, तिरस्कार जिसका पुष्प है और दुर्गति जिसका फल है, ऐसी तृष्णारूपी लता हे भगवन् । आपके सुन्दर चरणरूपी परशु के द्वारा छिन्न भिन्न हो ? ।।१६१।।
आशा एक शृङ्खला है आशा नाम मनुष्याणां काचि दाश्चर्यश्रृङ्खला । यया बद्धाः प्रधावन्ति मुक्तास्ति-ठन्ति पङ्ग वत् ।।१६२।। अर्था:- आशा मनुष्यो के लिये एक विचित्र श्रृङ्खला है जिसके द्वारा बधे हुए मनुष्य दौडते है और जिससे छूटे हुए पड्गु के समान स्थित रहते है ॥१६२।।
आशा के दास सब के दास है
आर्या
आशाया ये दासास्ते दासाः सर्वलोकस्य । अाशा येषां दायी तेषां दासायते लोकः ॥१६३।।
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सुभाषितमञ्जरो अर्थ.. जो आगा के दाम है वे सब ससार के दास है और आशा जिनकी दासी है सव ससार उनका दास है ।।१६४॥
अाशा एक नदी है
शार्दूल वित्रीडितच्छन्द आशा नाम नदी मनोरथजना तृष्णातरङ्गाकुला रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी मोहावर्तसुदुस्तरातिगहना प्रोत्तुङ्गचिन्तातटी तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः।।१६५।।
अर्थः- जिसमे मनोरथ रूपी जल भरा है, जो तृष्णा रूपी तरङ्गो से व्याप्त है, जो राग रूपी मगरमच्छो से सहित है, जिसमे वितर्क-विकल्प रूपी पक्षी है, जो धैर्य रूपी वृक्ष को उखाडने वाली है, जो मोह रूपो कठिन भवर से व्याप्त है और चिन्ता ही जिसके ऊ चे किनारे है ऐसी आशा नाम की नदी है । विशुद्ध हृदय वाले जो मुनिराज उस प्राशा रूपी नदी के उस पार पहुँच जाते है वे ही सुखी है ।।१६।।
आशा एक गत है आशागतः प्रतिप्राणी यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥१६६।।
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सुभाषितमञ्जरी
६
अर्थ - प्रत्येक प्राणी के सामने अाशारूपी ऐसा गड्डा है जिसमे सारा ससार एक अणु के समान हैं फिर किसके लिये कितना प्राप्त हो सकता है, इसलिये हे भव्यजनो | तुम्हारी विषयो को इच्छा व्यर्थ है ॥१६६॥
__ तृष्णा धनिको को घुमाती है तृष्णादेवि नमस्तुभ्यं यया वित्तान्त्रिता अपि । अकृत्येषु नियोज्यन्ते भ्राम्यन्ते दुर्गमेष्वपि ॥१६७।। अर्था - हे तृष्णादेवि ! तुम्हे नमस्कार हो, जिसके द्वारा घनिक लोग भी खोटे कार्यों मे लगाये जाते है और दुर्गम स्थानो मे घुमाये जाते हैं ॥१६७।।
धनादिक से कभी कोई सतुष्ट नहीं हुआ धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु भोजनवृत्तिषु।। अतृप्ता मानवाः सर्ने याता यास्यान्ति यान्ति च ॥१६॥ अथ - धन, जोवन, स्त्री और भोजन के विषय मे सभी लोग असंतुष्ट होकर ही गये है, और जावेंगे और जा रहे हैं।
पतिव्रता स्त्री की तरह तृष्णा साथ नहीं छोडती च्युता दन्ता सिता केशा वाग्रोधः स्यात् पदे पदे। पातसज्जमिदं देहं तृष्णा साध्वी न मुञ्चति ॥१६६।।
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७०
सुभापितमञ्जरी. अयं:- दात गिर गये, बाल सफेद हो गये वाणी मे रुकावट पा गई और पद पद पर शरीर गिरने को हो गया, फिर भी तृष्णारूपी पतिव्रता स्त्री साथ नही छोडती ॥२६९।।
___ इच्छा उत्तरोत्तर बढती है इच्छति शती सहस्र सहस्री चापि लक्षमीहते कर्तुम् । लक्षाधिपश्च राज्यं राज्ये सति सकलचक्रवर्तित्वम् । १७०।। अर्थ - सौ रुपये का धनी हजार चाहता है, हजार का धनी लाख करना चाहता है, लाख का धनी राज्य चाहता है और राज्य होने पर पूर्ण चक्रवर्तिपना चाहता है ।।१७०।।
__ क्लेश का सागर कौन तैरते हैं . . धन्याः पुण्यभाजस्ते तैस्तीर्णः क्लेशसागरः । जगत्संमोहजननी यै-राशाराक्षसी जिता ॥१७१॥ अर्था:-ससार को मोह उत्पन्न करने वाली प्राशारूपी राक्षसी को जिन्होने जीत लिया है वे ही पुण्यात्मा भाग्यशाली हैं और उन्होने क्लेशरूपी सागर को पार कर पाया है ।।१७१।। : सत् पीर असत् पुरुष को तृष्णा मे अन्तर पलितैकदर्शनादपि सरति सतश्चित्तमाशु वैराग्यम् । प्रतिदिनमितरस्य पुनः सह जरया वर्द्ध'ते तृष्णा ।।१७२।।
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F
सुभाषितमञ्जरी अर्थ:- सज्जन का चित्त तो एक सफेद वाल के देखने से ही शीघ्र वैराग्य को प्राप्त हो जाता है परन्तु असज्जन को तृष्णा प्रतिदिन स्वाभाविक वेग से बढती जाती है ॥ ११७२।।
आशारूपी पिशाच दु ख का कारण है। आसापिसायगहिरो जीवो पावेइ दारुणं दुक्खं । 'आमा जाहँ णियत्ता ताहँ णियत्ता सयलदुक्खा। १७३५ अर्थ - आशा रूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त जीव दारुण दुःख पाता है जिन्होने आशा को रोक लिया उन्होने समस्त दुखों को रोक लिया है ।।१७३॥
तृष्णा निवृत्त नहीं होती चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरोऽपि सुरराजमीहते कत्तुम् । सुरराजोऽप्यूर्ध्वगति तथापि न निवर्तते तृष्णा ॥१७४॥ अर्थ- चक्रवर्ती देव पद चाहता है, देव इन्द्र पद चाहता है और इन्द्र सिद्ध पद चाहता है किसी तरह तृष्णा निवृत्त नही होती ।।१७४।।
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सुभाषितमञ्जरो
परिग्रह निन्दा
परिग्रह से सुख नही होता नो सङ्गाज्जायते सौख्यं, मोतसाधनमुत्तमम् । सङ्गाच्च जायते दुखं, संसारस्य निबन्धनम् ।।१७।। अर्था:- परिग्रह से मोक्ष को प्राप्त कराने वाला उत्तम सुख 'प्राप्त नहीं होता किन्तु इसके विपरीत ससार का कारण दुःख उत्पन्न होता है ।।१७५।।
परिग्रह नरक का कारण है आरम्भो जन्तुघातश्च, कषायाश्च परिग्रहात् । जायन्तेऽत्र ततः पात: प्राणिनां श्वभ्रसागरे ॥१७६० शर्था:- परिग्रह से, प्रारम्भ, जीवघात और कषाय उत्पन्न होती है तथा उनके कारण जीवो का नरक रूपो सागर मे पतन होता है ।।१७६॥ .. परिग्रह प्रीति का कारण नही है यास्यन्ति निर्दया नूनं ये दत्वा दाहमूर्जितम् । हृदि पुंसां कथं ते स्यु स्तव प्रीत्यै परिग्रहाः ॥१७७/
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सुभाषितमजरो
७३ अर्था - जो दया रहित परिग्रह पुरुषो के हृदय में बहुत भारी दाह देकर नष्ट होने वाले हैं वे तुम्हारी प्रीति के लिये कैसे हो सकते हैं ? ||१७७॥
धन अनर्थ का कारण है अर्थः कस्यानयों न भवति भरतः समस्तधनलाभरतः। चक्री चक्रे ऽनुज वधाय मनः प्रहतवैरिचक चक्र।।१७८॥ अर्थ . धन किसके लिये अनर्थ का क रण नही है ? जब कि भारत चक्रवर्ती ने शत्रुओ के समूह को नष्ट करने वाले चक्र रत्न प्राप्त होने पर छोटे भाई के बध के लिये मन किया था।
उस धन के लिये नमस्कार हो (२) अविश्वासनिदानाय महापातकहेतवे। पितृपुत्रविरोधाय हिरण्याय नमोस्तु ते ॥१७६ ।। अर्था - जो अविश्वास का कारण है, महापाप का हेतु है तथा पिता और पुत्र मे विरोध उत्पन्न करने वाला है उस स्वर्ण (धन) के लिये नमस्कार हो ।।१७६।।
परिग्रह सदा बन्ध का कारण है कादा चदको बन्धः क्रोधादेः कर्मणः सदा सङ्गात् । नातः क्वापि कदाचित्परिग्रहवतां जायते सिद्धिः ॥१८०।।
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सुभाषितमञ्जरी
५४ मर्श - क्रोधादि कर्मों से कदाचित् बन्ध होता है परन्तु परिग्रह से सदा बन्ध होता है अन परिग्रहो मनुष्यो को कही भी कभी भी सिद्धि नही होती ॥१८०।।
घन दुःख का कारण है .. द्रव्यं दुःखेन चायाति स्थितं दुःखेन रक्ष्यते । दुःखशोककरं पापं धिग्द्रव्यां दुखभाजनम् ।।१८१॥ . . . अर्थ धन दु ख से आता है और पाया हुआ दु ख से रक्षित होता है, धन दुखं और शोक को करने वाला है, पापरूप है, तथा दु ख का भाजन है ऐसे धन को धिक्कार है ॥१८१।।
परिग्रही मुनि निन्द्य है
शय्याहेतुतृणादानं मुनीनां निन्दितं बुधैः । . यः स द्रव्यादिकं गृह्णन् किं न निन्यो जिनागमे ॥१२॥
मी:- जब कि विद्वानो ने मुनियों के लिये शय्या के हेतु तृणो का ग्रहण करना भी निन्दनीय बतलाया है तब जो मुनि द्रव्य आदि का ग्रहण करता है वह जिनागर्म मे निन्द-- नीय क्यों नही है ? अवश्य है ।।१८।।
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सुभाषितमञ्जरो
७६ सब लोग धन के पीछे ही पडते हैं मूर्धाभिषिक्ताश्च निजास्त्वनेक मलिम्लुचाद्याश्च बहुप्रकारा। गृद्धाः परेऽप्यर्थवतीय सिहं यत्रामिपं तत्र वकाः पतन्ति।१८५॥ अर्श:- मूर्धाभिषिक्त राजा, निजी कुटुम्ब के लोग, तथा अनेक प्रकार के चोर आदि अन्य पुरुष गीधो के समान धनवान् के ऊपर पडते हैं - उसे घेरे रहते हैं इससे यह बात सिद्ध होती है कि जहा मास होता है वहा बगुले पड़ते हैं ।।१८५॥
धन सतोष का कारण नहीं है परिग्रहग्रहग्रस्तः सर्व गिलितुमिच्छति । घने न तस्य संतोषः मरित्पूर इवार्णवः ॥१८६। अर्थ - परिग्रहरूपी पिशाच से ग्रसा हुआ मनुष्य सबको निगलने की इच्छा करता है। जिस प्रकार नदी के प्रवाह में समुद्र को सतोष नही होता उसी प्रकार परिग्रही मनुष्य को परिग्रह मे सतोष नही होता ॥१८६।।
परिग्रह का त्याग ही पूजा का कारण है परिग्रही न पूज्येत निःपरिग्रहस्तु पूज्यते । तिष्ठन्ति भूभृतां भाले तन्दुलास्तुपवर्जिता' ।। १८७।।
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বুগাতিনমহী
ওও अर्थ - परिग्रही मनुष्य नहीं पूजा जाता किन्तु परिग्रह रहित मनुष्य पूजा जाता है क्याकि छिलके से रहित चावल राजानो के ललाट पर स्थित होते हैं ।।१८७॥
निष्परिग्रहता से क्या लाभ है ? साक्षाल्लसतीव संयमतरुनिर्भीकता रोहतीबोल्ला प्रतीष शान्तिपदबी शुद्धि दधातीव च । धर्मः शर्मकरः समस्तविषयव्यामुग्धता मूर्च्छतीवामङ्ग लसतीव लाघवगुणः स्वायत्तता क्रीडति १८८।।
अर्थ - निष्परिग्रहता मे ऐसा जान पडता है मानो मयभ-- रूपी वृक्ष साक्षात् लहलहा रहा हो, निर्भीकता बढ रही हो, शान्ति का मार्ग उल्लास को प्राप्त हो रहा हो, मुग्वकारी धर्म शुद्धि को धारण कर रहा हो, समस्त विषयो का व्यामोह मूछित हो रहा हो, भारहीनता सुशोभित हो रही हो और स्वाधीनता क्रीडा कर रही हो ।।१८८।।
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सुभाषितमञ्जरो
दया प्रशंसा
मब जीवो पर दया करना चाहिये सर्वप्राणिदया जिनेन्द्रगदिता स्वर्गार्गलोद्घाटिका सर्वश्रायसमुक्तिसौख्यजननी कीाकरा प्राणदा । संसाराम्बुधितारिका गुणकरी पापान्तिका प्राणिनां पद्रत्नत्रयभूमिका कुरु सदा सर्वेषु जीवेषु च ।।१८६।।
अर्श:- जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही हुई समस्त प्राणियो की दया स्वग के अर्गल को खोलने वाली है मोक्ष के समस्त सुखो को उत्पन्न करने वाली है, कीर्ति की खान है, प्राणो को देने वाली है, ससार समुद्र से तारने वाली है, गुणो को पैदा करने वाली है, प्राणियो के पाप को नष्ट करने वाली है तथा सभ्यक् रत्नत्रय की भूमिका है, हे भव्यजीवो । ऐसी दया को तुम सदा समस्त जीवो पर धारण करो ॥१८६।।
निर्दय मनुष्य, मनुष्य नही है बालेषु वृद्धषु च दुर्वलेषु भ्रष्टाधिकारेषु निराश्रयेषु । रोगाभियुक्त षु जनेषु लोके येषां कृपानास्ति न ते मनुष्याः।१६। अर्थ:- इस संसार मे बालको पर, वृद्धो पर, दुर्बलों पर,
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सुभाषितमञ्जरो अधिकार से भ्रष्टजनो पर, निराश्रितो पर और रोगीजनों पर जो दया नही करते हैं, वे मनुष्य नहीं है ॥१०॥
. दया विश्वास का कारण है विश्वसन्ति रिपयोऽपि दयालो, वित्रसन्नि सुहृदोऽप्यदयाच्च । प्राणसंशयपदं हि विहाय स्वार्थमीप्सति ननु स्तनयोऽपि॥१९१।।
अर्था.- दयालु मनुष्य का शत्रु भी विश्वास करते हैं और निर्दय मनुष्य से मित्र भी भयभीत रहते है। स्तन पान करने वाला शिशु भी जहा प्राणों का संशय है ऐसे स्थान को छोड कर अपना भला करना चाहता है ॥१६१५
दया ही सार है संसारे मानुषं सारं कौलीन्यं चापि मानुपे । कोलीन्ये धार्मिकत्वं च धार्मिकत्वे च सद्दया ॥१२॥ अर्था.. ससार मे मनुष्य जीवन सार है, मनुष्य जीवन में कुलीनता सार है, कुलीनता मे धार्मिकता सार है और धार्मि कता मे समीचीन दया सार है ।।१६२॥
दया सिद्धि का कारण है मनो दयानुविद्ध चेन्मुधा क्लिश्नासि सिद्धये । मनो दयापविद्ध चेन्मुधा क्लिश्नासि सिद्धये ॥१६३॥
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- सुभाषितमञ्जरी
E- यदि तेरा मन दया से रहित है तो सिद्धि प्राप्त करने के लिये व्यर्थ ही क्लेश उठाता है क्योकि दया के कारण सिद्धि नियम से प्राप्त होगी और यदि तेरा मन या से रहित है तो सिद्धि प्राप्त करने के लिये व्यर्थ ही क्लेग उठाता है क्योकि दया के विना तपश्चरणादि का क्लेश उठाने पर भी मिद्धि की प्राप्ति नही हो सकती ।।१६३।।
दयालु मनुष्य पर दोषोरोपण नही होता क्षिप्तोऽपि केनचिदोषो दयानॆ न प्ररोहति । तक्राइँ तृणवत् किन्तु गुणग्रामाव कल्पते ॥१६४।। भार्थी - जिस प्रकार छाछ मे गीली भूमि पर तृण नही जमता है उसी प्रकार दया से प्रार्द्र मनुष्य पर किसी के द्वारा लगाया हुआ दोष जमता नही है किन्तु गुण समूह का कारण होता है ।।१६४॥
निर्दय मनुष्य का तप तथा व्रताचरण व्यर्थ है तपस्यतु चिरं तीव्र व्रतयत्वतियच्छतु । निर्दयस्तत्फलैर्दीनः पीनश्च कां दयां चरन् ।१६५।। अर्थ - भले ही चिरकाल तक तीव्र तपश्चरण करो, व्रत करो और दान देप्रो परन्तु निर्दय मनुष्य उनके फल से रहित होता है और दया का प्राचरण करने वाला उनके फल से सहित होता है ॥१६॥
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सुभाषितमञ्जरी दयाहीन मनुष्य के सदाचार कैसे हो सकता हैयस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चारितं कुतः । नहि भूतद्रहां शापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत् ।।१६६।।
E - जिसे जीवदया नही है उसके सदाचार कैसे हो सकता है । वास्तव मे जीवघात करने वालो की कोई भी क्रिया श्रेयस्कर नही होती ।।१६६।।
दयालु मनुष्य की दुर्गति नही होती दयालोरव्रतस्यापि दुर्गतिः स्याददुर्गतिः । प्रतिनस्तु दयोनस्यादुर्गतिः स्याद्धि दुर्गतिः ॥१६७।। मर्श - दयालु मनुष्य भले ही व्रत रहित हो, परन्तु उसको दुर्गति, दुर्गति नहीं रहती-वह दुर्गति मे पड कर भी सुखोपभोग फरता है । और निर्दय मनुष्य भले ही व्रत सहित हो परन्तु सुगति भी उसके लिये दुर्गति हो जाती है, वह अच्छी गति में पहुँच कर भी दुर्गति का पात्र होता है ।।१६७।।
दयावान् मनुष्य ही दानी है सर्व दानं कृतं तेन सर्वे यज्ञाश्च भारताः। । । सर्वतीर्थाभिषेकाश्च यः कुर्यात्प्राणिनां दयाम् ।।१९८॥ सर्थ - हे पाण्डवो | जो प्राणियो को दया करता है उसने
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सुभाषितमञ्जरी
सब दान दिये हैं, सब यज्ञ किये हैं श्रीर सब तीर्थों में स्नान
किये हैं ||१८||
दया धर्म का मूल हैं
दयालो भवेद् धर्मोदया प्राण्यनुकम्पनम् । दयायाः परिरक्षार्थ गुणाः शेषाः प्रकीर्त्तिताः ॥ १६६
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:- धर्म दयामूलक है प्राणियो पर अनुकम्पा करना दया है तथा दया की रक्षा के लिये ही शेष- समस्त गुण कहे गये हैं ।
आहारदान प्रशंसा
मुनि भुक्तावशेष भोजन के भक्षरण का फल
श्रमणानां भुक्तशेषस्य भोजनेन नरो भवेत् । तुष्टिपृष्टिबलारोग्यदीर्घायुः समन्वितः ॥ २००॥
:- मुनियो के भोजन से प्रवशिष्ट पदार्थों का भोजन करने से मनुष्य तुष्टि, पुष्टि, बल, आरोग्य और दीर्घ प्रायु से सहित होता है ||२००
मुनियों को आहारदान का फल
बोणित्वसेस भुजइ सो 'जए जिद्दिट्ठ' | संसारसारसोक्खं कमसो व्विाणवरसोख ॥ २०१ ॥
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सुभाषितमञ्जरी
अर्था - जो मुनियो के भोजन से अवशिष्ट पदार्थों का भोजन करता है वह जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कर्थिन समार के श्रेष्ठसुख को भोगकर क्रम मे निर्वाण के उत्तम सुख को प्राप्त होता है ।।।२०१॥
पात्रदान का फल
सौधर्मादिषु कल्पेषु भुज्जते स्वेप्सितं सुखम् । मानवाः पात्रदानेन मनोवाकायशुद्धितः ।२०२॥ तत एत्य सुजायन्ते चक्रिणो वार्धचक्रिणः । इक्ष्वाक्वादिषु वंशेषु पात्रदानफलान्नगः ॥२-३॥ भक्तिपूर्वपदान लक्ष्मीः रयाइोगसं गुता । अनादरप्रदानेन लक्ष्मीः भ्यागोगवर्जिता ॥२०४॥ अर्थः- मन वचन काय की शुद्धि पूर्वक पात्र दान देने ये मनुष्य सौधर्म आदि स्वर्गों में अपने अभीष्ट व को भोगने है और वहा से आकर इक्ष्वाकु आदि दशो में चक्रवर्ती तथा अर्धचक्रवर्ती होते है। भक्तिपूर्वक दान देने से ऐसी लक्ष्मी प्राप्त होती है जो अपने भोग मे आती है और अनादरपूर्वक दान देने से ऐसी लक्ष्मी मिलती है जो अपने भोग मे नहीं पाती ॥२०२, २०३, २०४।।
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सुभापितमञ्जरी दानहीन मनुष्य की सपत्तिया निरर्थक है यस्य दानहीनस्य धनान्यायान्ति यान्ति किम् । अरण्यकुसुमानीव निरास्तभ्य संपदः ॥२०५॥ अर्था- दानहीन मनुष्य के धन प्राते है और जाते है इससे क्या ? उसकी सपदाए जङ्गल के फूलो के समान निरर्थक है ।
पात्रदान ही सफल होता है पात्रे दत्तं भवेत्सर्व पुण्याय गृहगेधिनाम् । शुक्तावेव हि मेघानां जलं मुस्ताफलं भवेत् ।।२०६॥ अर्था - पात्र के लिये दिया हुआ सब दान गृहरथो के पुण्य का कारण होता है क्योकि सीप मे पडा हुवा ही मेघो का जल मुक्ताफल होता है ॥२०६।।
दाता और पूजक का भाव कैसा होना चाहिये ? श्रद्धादिकगुणसम्पूर्णः कषायपरिवर्जितः । दातृपूजकयो वश्चान्योन्यश्रीतिसंयुतः ॥२०७।। अर्था - दान देने वाले और पूजा करने वाले मनुष्य का भाव श्रद्धादिगुणो से परिपूर्ण, कषाय से रहित, होना चाहिए तथा दाता और पात्र एव पूजक और पूज्य इन दोनो की परस्पर की प्रीति से सहित होना चाहिये ॥२०७।।
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सुभाषितमञ्जरो निर्दोष आहार कहा प्राप्त नही होतो,?. श्रावकाचारमुक्तानां हिंसोंदमविवर्तिनाम्। ' दयावमाविनीत्यादिगुणग्रामास्तचेतसाम् ।।२०।। मिथ्यादृष्टिपरीतानां स्वयं मिथ्यादृशामरम् । गेहिनां वेश्मसु भुक्ति निर्दोषा लभ्यते कथम् । २०६।। अर्थ - जो श्रावकाचार से रहित है, हिंसामय व्यापार करते हैं दया क्षर्मा तथा विनय आदि गुणो के समूह से शून्य हृदयं हैं, मिथ्यादृष्टियो से घिरे हुए हो, तथा स्वयं मिथ्याष्टिं हों, ऐसे गृहस्थो के घरो मे निर्दोष आहार कैसे प्राप्त हो सकता है?
- - .. ज्ञानदान प्रशंसा
ज्ञानदान-मुक्ति का कारण है यो ज्ञानदानं कुरुते मुनीनां स देवलोकस्य सुखानि भुक्त्वा, राज्यं चं सत्केवलबोधलीब्धि लब्ध्वा स्वयं मुक्तिपदं लभैता. अर्थ:- जो मुनियो के लिए ज्ञानदान करता है वह स्वैम लोके के सुख भोगं कर राज्य को प्राप्त होता है और केवल ज्ञान को प्राप्त कर स्वयं मोक्ष पद को प्राप्त होता है ।
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सुभाषितमञ्जरो ज्ञानदान से जीव मोक्ष पद को प्राप्त होता है मामरश्रियं भवत्वा भुवनोत्तमपूजिताम् । ज्ञानदानप्रसादेन जीवो गच्छति नितिम् ।।२११॥ अर्थ - जीव ज्ञानदान के प्रसाद से मनुष्य और देवो की लक्ष्मी का उपभोग कर लोकोत्तम पुरुषो के द्वारा पूजित मोक्ष को प्राप्त होता है ॥२११॥ ' ज्ञानदान देने वाले को सासारिक लक्ष्मी कठिन नही है : मुक्तिः प्रदीयते येन शास्त्रदानेन पावनी । । 'लक्ष्मी सांसारिकी तस्य प्रददानस्य कः श्रमः ॥२१२॥ अर्था.- जिस शास्त्रदान के द्वारा पवित्र मुक्ति प्रदान को जाती है उस शास्त्र दान को सांसारिक लक्ष्मी प्रदान करते हुए क्या श्रम होता है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥२१२।।
“शास्त्रदान किसे कहते हैं । लिखित्वा लेखयित्वा वा साधुभ्यो दीयते श्रुतम् । : , व्याख्यायतेऽथवा स्वेन-शास्त्रदानं तदुच्यते ॥२१३॥ : अर्थः- स्वयं लिख कर अथवा दूसरो से लिखवा कर मुनियों के लिये जो शास्त्र दिया जाता है अथवा. स्वय शास्त्र की व्याख्या की जाती है वह शास्त्रदान कहलाता है। '.
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सुभाषितमञ्जरो शास्त्रदान केवलज्ञान का कारण है लभ्यते केवलज्ञानं यतो विश्वावभासकम् । अपरज्ञानलाभेषु कीदृशी तस्य वर्णना ।।२१४॥ AR:- जिस शास्त्रदान से समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान प्राप्त होता है उससे अन्य शानों की प्राप्ति होती है यह वर्णन क्या महत्व रखता है ?
शास्त्रदान का फल - - शास्त्रदायी सतां पूज्यः सेवनीयो मनीषिणाम् । वादी वाग्मी कवि मान्यः ख्यातशिक्षः प्रजायते ॥२१॥ अर्था:- शास्त्रो का दान करने वाला मनुष्य सत्पुरुषो का पूज्य, विद्वानो का सव्य, वाद करने वाला, प्रशस्त वचन बोलने' वाला, कवि, मान्य और प्रसिद्ध शिक्षा से युक्त होता है ।२१४
· , शास्त्रदान से मनुष्य श्रेष्ठ विद्वान होता है तार्किका शाब्दिक: सार-सिद्धान्तशतसेवितः। ' शास्त्रदानेन जायेत मुनेविद्वच्छिरोमणिः ॥२१६॥ . वर्ण:- मुनि को शास्त्रदान देने से यह मनुष्य तर्कशास्त्र, .का ज्ञानी, ज्याकरण शास्त्र का ज्ञाता सैकड़ो सिद्धान्त ग्रन्थों का
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सुभाषितमञ्जरी ज्ञाता तथा विद्वानों मे शिरोमरिण होता है ॥२१६।।
औषधदान प्रशंसा औषधदान कर्मरूपी रोग को नष्ट करने वाला है औषधं यो मुनीनां संदत्ते पुण्याकरं बुध । देवलोके सुखं भुक्त्वा कर्मरोगादिकं क्षिपेत् ।।२१७।। अर्था:- जो विद्वान् पुरुष मुनियो के लिये पुण्य की खान स्वरूप औषध प्रदान करता है वह स्वर्ग लोक मे सुख, भोग कर कर्मरूपी रोगादिक का क्षय करता है और मोक्ष प्राप्त करता है।
औषधदान की उपयोगिता न शक्नोति तपः कतुं सरोगः संयतो यतः । ततो रोगापहारार्थं देयं प्रासुकमौषधम ॥२१८॥', अर्था - क्योकि रोगी मुनि तप करने में समर्थ नहीं है इस लिये रोग दूर करने के लिये उन्हे प्रामुक औषध देना चाहिये। 1 रोगियो को औषध देना चाहिये. . . .
रोगिभ्यो भेषजं देय रोगा देहविनाशकाः । देहनाशे कुतो ज्ञानं ज्ञानाभावे न निकृतिः ॥२९६'
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सुभाषितमञ्जरी
अर्थ · रोगियो को औषध देना चाहिये क्योकि रोग शरीर के नाशक हैं, शरीर का नाश होने पर ज्ञान कैसे हो सकता है और ज्ञान के बिना निर्वाण कैसे प्राप्त हो सकता है ? ॥२१॥
औषधदान से मनुष्य निरोग होता है । तस्मात् स्वशक्तितो दानं भैाज्यं मोक्षहेतवे। देय स्वयं भवेऽन्यस्मिन्भवेद् व्याधिविजितः ॥२२॥ अर्थ :- इसलिये मोक्ष प्राप्ति के निमित्त अपनी शक्ति के अनुसार औषधदान देना चाहिये क्योकि अौषधान देने वाला स्वय अन्यभव मे रोगो से रहित होना है ।।२२०।।
निरोग मनुष्य का सुख अकथनीय है। श्राजन्म जायते यस्य न व्याधिस्तनुतापकः । कि सुखं कथ्यते तात्य सिद्धस्येव महात्मनः ।।२२१॥ अर्थः- जिम मनुष्य के शरीर मे सताप उत्पन्न करने वाला रोग जीवन पर्यन्त नहीं होता सिद्ध महात्मा के ममान उमके' सुख का क्या कहना है, उसका सुख वचनअगोचर है ॥२२१।। ।
औषधदान देने वाले के रोग नष्ट होते है ध्वान्तं दिवाकरस्येव शीतं चित्ररुचेरिख ।। भैषज्यदायिनो देहाद् रोगित्वं प्रपलायते ॥२२२॥
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सुभाषितमञ्जगे अर्थ:- जिस प्रकार सूर्य से अन्धकार और अग्नि से शीत दूर भागता है उसी प्रकार औषधदान करने वाले मनुष्य के शरीर से रोगीपना दूर भागता है ।।२२२।।
औषधदान देने वाले के सगेगअवस्था नहीं होती न जायते मरोगत्वं जन्तो रौषधदायिनः । प्रावकं सेवमानस्य तुषारं हि पलायते ।।२२३॥ आर्या- औषधदान देने वाले के सरोगपना नही होता सो ठीक ही है क्योकि अग्नि की सेवा करने वाले के शीत भाग्य हो जाता है ॥२२३॥
औषनदान का महत्व पातपित्तकफोत्थान रोगैरेष न पीड्यते । दावैरिव जलस्थायी भेषजं येन दीयते ॥२२४॥ सर्थ:- जिस प्रकार जल में स्थित रहने वाला जीव दावामल से पीडित नहीं होता उसी प्रकार जिसने औषध प्रदाता की है वह वात्तपित और कफ से उत्पन्न होने वाले रोगों से पीडित नही होता ।।२२४". . .
प्रौषधदान का फल वचनो से अकथनीय है । येनौषधप्रदस्येह वचनैः कथ्यते फलम् ।
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मुभाषितमञ्जरी
चुलकै मीयते तेन पयो नूनं पयोनिधेः ॥ २२५ ॥
अथ - इम लोक मे जिसके द्वारा श्रौषधदान देने वाले का फल कहा जाता है उसके द्वारा मानो निश्चय से समुद्र के जल को चुल्लियो मे भर भर कर नापा जाता है ॥२२५॥
औषधदान देने वाले का फल कौन कह सकता है ? रक्ष्यते व्रतिनां येन शरीरं धर्ममाधनम् । पार्यते न फलं वक्तु तस्य भैषज्यदायिनः ॥ २२६ ॥
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अर्थ- जिसके द्वारा व्रतियों के धर्मसाधन कराने वाले शरीर की रक्षा की जाती है उस प्रोषधदान देने वाले का फल कहने मे नहा प्राता ॥२२६॥
ोष क्यों दी जाती है,
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न देहेन विना धर्मो न धर्मेण विना सुखम् ।
यतो तो देहरतार्थ भैषज्यं दीयते यतेः || २२७॥
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अर्थ :- क्योकि शरीर के बिना धर्म नही होता और धर्म के विना सुख नही होता, इसलिये शरीर की रक्षा के मर्थ मुनि को औषध दी जाती है ।
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शरीर की रक्षा करना चाहिये
शरीरं संयनाधारो रक्षणीयं तपस्विनाम् ।
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सुभाषितमञ्जरी
२ प्रासुकैरोपधैः पुसा यत्नतो मुक्तिकाङक्षिणा ।।२८॥ अर्था- तपस्वियो का शरीर सयम का आधार है इसलिये मुक्ति के अभिलाषी पुरुषो को प्रामुक औषधियो के द्वारा साधुवो के शरीर कीरक्षा करना चाहिये ॥२२८॥
___ औषधदान मे सब दान गभित है चारित्रं दर्शनं ज्ञान बाध्यायो विनयो जपः । सर्वेऽपि विहिता स्तेन दत्तं येनौषवं यतेः ॥२२६॥ अर्धा.. जिसने मुनि के लिये औषध दी है उसने चारित्र, दर्शन, ज्ञान, स्वाध्याय, विनय और जप आदि सभी कुछ दिये हैं ॥२२६॥
ज्ञान प्रशसा ' विवेक ही शोभा का कारण है हंसः श्वेतो वक; श्वेतः को भेदो वकहंमयोः । नीरक्षीरविवेके तु हंसो हंसो को वकः । २३०॥ अर्थः- हस सफेद है और बगुला भी सफेद है। बाह्म रूप रङ्ग की अपेक्षा बगुला और हस मे क्या भेद है ? परन्तु जब दूध और पानी को अलग अलग करना पडता है तब हस हस हो जाता है और बंगुला ही बना रह जाता है ।।२३०॥
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सुभाषितमञ्जरी कारः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाम्योः। प्राप्ते वसन्तसमये काकः काकः पिकः पिकः ॥२३१॥ अर्थ:- कौमा काला है और कोयल भी काली है परन्तु वसन्त का समय आने पर कौमा कौमा रह जाता है और कोयल कोयल हो जाती है ।।२३१।।
ज्ञानाराधना की प्रेरणा
मालिनी छन्द विमलगुणनिधानं विश्वविज्ञानबीज जिनमुनिगणसेव्यं सर्वतचप्रदीपम् । दुरितधनसमीर पुण्यतीर्थ जिनोक्ता मनइभमदसिंह ज्ञानमाराधय त्वम् ।।२३२॥ अर्थ - जो निर्मल गुणो का भण्डार है, समस्त विज्ञानों का बीज है, जिनेन्द्र और मुनियो के समूह से सेवनीय है, समस्त तत्वो का प्रकाशन करने वाला है, पापरूपी मेघ को प्रचण्ड वायु है, पवित्र तीर्थ रूप है, जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा गया है और मनरूपी हाथी के मद को नष्ट करने के लिये सिंह है ऐसे ज्ञान की हे भव्यजीवो तुम आराधना करो।
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सुभाषितमञ्जरी
ज्ञान क्या है? येनात्मा बुध्यते तन्वं मनो येन निरुध्यते । पापद्विमुच्यते येन तज्ञानं ज्ञानिनो विदुः ॥२३३॥ अर्थ:- जिससे प्रात्मा तत्त्व को जानता है, जिससे मन का निरोध होता है और जिसके द्वारा आत्मा पाप से छूटता है, शानी पुरुष उसे ज्ञान कहते हैं ॥२३३॥
प्रवल ज्ञान कौन है ? येन रागादयो दोषा. प्रणश्यन्ति द्रतं सताम् । संवेगाद्याः प्रवर्धन्ते गुणा ज्ञानं तदुर्जितम् ।।२३४॥ अर्थ:- जिसके द्वारा सत्पुरुषों के रागादि दोष शीघ्र ही नष्ट होते हैं तथा सवेग आदि गुणो की वृद्धि होती है वह प्रवल ज्ञान है-उत्कृष्ट ज्ञान है । २३४॥
ज्ञान का लक्षण येनातविषयेभ्योत्र विरज्य शिवमनि । ज्ञानी प्रवर्तते नित्यं तज्ज्ञानं जिनशासने ॥२३॥ अर्थ- जिसके द्वारा ज्ञानी जीव इन्द्रियो के विषयों से विरक्त होकर निरन्तर मोक्ष मार्ग मे प्रवृत्ति करता है जिन शासन मे वही ज्ञान कहा जाता है ॥२३॥
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सुभाषितमञ्जरी
ज्ञान की महिमा ज्ञानयुक्तो भवेज्जीव स्वर्गश्रीमुक्तिवल्लभः । ज्ञानहीनो भ्रमेन्नित्यं संसारे दुःखसागरे ॥२३६॥ अर्थ:- ज्ञान से युक्त जीव स्वर्ग की विभूति तथा मुक्ति का स्वामी होता है और ज्ञान रहित जीव दुखो के समुद्र स्वरूप इस ससार मे निरन्तर भ्रमण करता है ॥२३७॥
ज्ञानहीन मनुष्य गुण और अगुण को नही जानता ज्ञानहीनो न जानाति धर्मपारगुणागुणम् । हेयाहेयविवेकं च जात्यन्ध इव भास्करम ॥२३७॥ अर्थ - जिस प्रकार जन्मान्ध मनुष्य सूर्य को नहीं देखता है उसी प्रकार ज्ञानहीन मनुष्य धर्म के गुण, पाप के अवगुण तथा हेय और उपादेय के विवेक को नही जानता। .
उपकरणदान प्रशंसा
वस्त्रदान का फल आर्येभ्य आयिकाम्यश्च वस्त्रदानेन धीधनः । भरजोऽम्बरधारी स्याच्छुक्लध्यानी मवान्तरे ॥२३॥
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सुभाषितमञ्जरी
अर्थ:- ऐलक क्षुल्लक तथा आर्यिका के लिये वस्त्र देने से बुद्धिमान् मनुष्य इस भव मे उज्ज्वल वस्त्रो का धारी और भवान्तर मे शुक्लध्यान का धारक होता है ।२३८०
कमलानि महार्घाणि विशालानि धनानि च । वासोदानेन वासांनि संपद्यन्ते सहस्रशः ॥ २३६ ॥
अर्थ:- वस्त्रदान से हजारो वार कोमल, महामूल्य, विशाल
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और सघन वस्त्र प्राप्त होते हैं ||२३६||
पीछी और कमण्डलु के दान का फल
मयूरवर्हदानेन सपुत्रश्चिरर्जवित । दानात्कमण्डलो: पात्रे निर्मलाङ्गः शुचित्रतः ॥ २४० ॥
:- पात्र के लिये मयूरपुच्छ से निर्मित पीछी के देने से वह मनुष्य पुत्र सहित चिरकाल तक जीवित रहता है और कमण्डलु के देने से निर्मल शरीर और निरतिचार व्रत का धारक होता है || २४०॥
पेयदान का फल
ददती जनतानन्दं चन्द्रकान्तिरिवामला । जायते पानदानेन वाणी तापापनोदिनी । २४१ ॥
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सुभापितमञ्जरी अर्था:- पेय पदार्थो के दान से जनता को आनन्द देने वाली, चन्द्रमा की कान्ति के समान निर्मल और संताप को दूर करने वाली वाणी प्राप्त होती है ॥२४१।।
निवास दान का फल विचित्ररत्ननिर्माणः प्रोतुङ्गो बहुभूमिकः । लभ्यते वासदानेन वासश्चन्द्रकरोज्ज्वलः ॥२४२॥ अ - निवास स्थान के देने से चित्र विचित्र रत्नों से निर्मित, ऊंचा, अनेकतल्लों वाला एवं चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल भवन प्राप्त होता है ।।२४२।। .
मन्दिर में छत्र चामर आदि उपकरण चढ़ाने का फल छत्रचामरलम्बापताकादर्पणदिभिः । भूषयिचा जिनस्थानं याति विस्मयिनी गतिम् ॥२४३॥ अर्थ- छत्र, चामर, फन्नूस, पताका और दर्पण आदि के द्वारा जिन मन्दिर को विभूषित कर मनुष्य आश्चर्यकारक लक्ष्मी को प्राप्त होता है।
किस समय क्या देना चाहिये ? उष्णकाले जलं दद्यान्छीतकाले च कार्यसम् । प्राट्काले गृहं दद्यात्सर्वकाले च भोजनम् ।।२४४॥
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सुभाषितमञ्जरो अर्था:- उष्णकाल में जल देना चाहिये, शीतकाल में वस्त्र देना चाहिये, वर्षाकाल मे घर देना चाहिये ओर भोजन सब समय देना चाहिये ॥२४४॥
दान प्रशंसा
दान महिमा दानं दुर्गतिनारानं हितकरं दानं बुधाः कुर्वने दानेनैव गृहस्थता गुणवती दानाप यत्न सताम् । दानान्नास्त्यपरः सुभोगजनको दानस्य योग्या विदो दाने दातृमनःस्थितिं प्रकुरुते दानं ददध्वं जनाः ।।२४५॥ अर्थ-दान दुर्गति को नष्ट करने वाला है, विद्वान् लोग हितकारी दान देते हैं, दान से ही गृहस्थपना सफल होता है, दान के लिये सत्पुरुषों का प्रयत्न होता है, दान से बढ़ कर दूसरा कोई भोगों को उत्पन्न करने वाला नहीं है, विद्वान् दान देने के योग्य है, दाता का मन दान में स्थिर होता है इसलिये हे भव्यजनो ! दान देओ ॥२४॥
दान कीर्ति का कारण है दानानुसारिणी कीर्ति लक्ष्मीः पुण्यानुसारिणी। अभ्याससारिणी विद्या बुद्धिः कर्मानुसारिणी ॥२४६॥
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सुभाषितमञ्जरी अर्था.- कीर्ति दान के अनुसार फैलती है, लक्ष्मी पुण्य के अनुसार बढ़ती है, विद्या अभ्यास के अनुसार प्राप्त होती है और बुद्धि कर्म के अनुसार मिलती है ।।२४६॥
दानी किसे प्रिय नहीं होता ? दानामृतं यस्य करारविन्दे वाक्यामृतं यस्य मुखारविन्दे । दयामृतं यस्य मनोऽरविन्दे स वल्लभः कस्य नरस्य न स्यात् अर्थः- दानरूपी अमृत जिसके हस्त कमल मे है, वचनरूपी अमृत जिसके मुख कमल में है और दयारूपी अमत जिसके हृदयकमल मे है वह किस मनुष्य को प्रिय नहीं होता? अर्थात् सभी को प्रिय होता है।
दान से ही पूजा होती है त्याग एव गुणःश्लाध्यः किमन्यैगुणगशिभिः । . त्यागाज्जगति पूज्यन्ते पशुपाषाणपादपाः ॥२४७॥ अर्था- दान ही प्रशंसनीय गुण है, अन्य गुणों के समूह से क्या प्रयोजन है ? संसार में दान से ही पशु, पाषाण और वृक्ष पूजे जाते हैं ॥२४॥
दान के भेद अभयाहारभैषज्यश्रुतभेदाच्चतुर्विधम् । दानं मनीषिभिः प्रोक्तं शक्तिभक्तिसमाश्रयम् । २४८॥
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सुभाषितमञ्जरो अर्था:- अभय, आहार, औषध और शास्त्र के भेद से विद्वान् पुरुषों ने दान को चार प्रकार का कहा है । यह दान शक्ति और भक्ति के अनुसार दिया जाता है ॥२४॥
चार दानो का फल अभीतितोऽ त्युत्तमरूपवचमाहारतो भोगविभूतिमत्वम् । भैषज्यतो रोग निराकुलत्वं श्रुतादवश्यं श्रुतकेवलित्यम् ॥२४६।। अर्थ:- अभयदान से उत्तम रूप, आहारदान से भोगों का ऐश्वर्य, औषधदान से रोग सम्बन्धी निराकुलता और शास्त्र दान से श्रृत फेवली अवस्था प्राप्त होती है ॥२४॥
. न्यायोपात्त धन का ही दान करना चाहिये दत्तः स्वल्पोऽपिभद्राय स्यादर्थो न्यायसंचितः । श्रन्यायात्तः पुनर्दत्तः पुष्कलोऽपि फलोज्झितः ।२५०। अर्था:- यदि धन न्याय संचित है तो थोड़ा दिया हुआ भी लाभ के लिये होता है और धन अन्यायोपार्जित है तो बहुत दिया हुआ भी निष्फल जाता है ।।२५०॥
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१०१
सुभाषितमञ्जरी
हीन त्यागी का लक्षण स्वस्त्रस्य यस्तु पड्भागान् परिवागय योजयेत् । संचये तीन दशांशं च धर्मे त्यागी लघुश्च सः ॥२५॥ अर्था - जो अपने धन के छह भाग परिवार के लिये, तीन भाग संचय के लिये और दशवां भाग धर्म के लिये खर्च करता है वह हीन त्यागी है ॥२५॥
मध्यम त्यागी का लक्षण भागत्रयं तु पोष्याणे कोशार्थे तु द्वयीं सदा । पष्ठं दानाय यो युङक्त स त्यागी मध्यमो मतः ॥२५२।। अर्थ - जो अपनी आय के तीन भाग कुटुम्ब के लिये, दो भाग खजाने के लिये और छटवां भाग दान के लिये रखता है वह मध्यम त्यागी साना गया है ॥२५२॥
उत्तम त्यागी लक्षण भागद्वयीं कुटुम्बार्थे संचयार्थे तृतीयकम् । स्वरायो यस्य धर्मार्थो तुर्य त्यागी स सत्तमः ।।२५३॥ अर्थ - जो अपने धन के दो भाग कुटुम्ब के लिये, तीसरा भाग खजाने के लिये और चौथा भाग धर्म के लिये खर्च करता है वह उत्तम त्यागी है ॥२५३॥
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सुभाषितमञ्जरी
महादानी का लक्षण
इतो हीनं दत्ते सति सुविभवे यस्तु पुरुषो मतं तद् यत् किंचित्खलु न गणितं धार्मिकनरैः इमान भागांस्त्यक्त्वा वितरति बुधो यस्तु बहुधा महासच्चस्त्यागी भुवनविदितोऽसौ रविरिव । २५४ ।।
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अर्थ- जो मनुष्य वैभव के रहते हुए भी उपर्युक्त विभागों से कम दान देता है धार्मिक पुरुष उसे किसी गणना मे नहीं रखते तथा जो इन भागों को छोड कर बहुत दान देता है वह यहां उदार त्यागी है तथा सूर्य के समान संसार प्रसिद्ध है
विराग वाटिका
जन्म का फल क्या है ?
धर्मे रामः भुते चिन्ता दाने व्यसनमुत्तमम् । इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं संप्राप्तं जन्मनः फलम् || २५५ ।।
आ:- यदि धर्म में राग है, शास्त्र में चिन्ता है, दान में उत्तम व्यसन है और इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य है तो जन्म का फल प्राप्त हो गया ||२५||
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सुभाषितमञ्जरी
१०३ सद्धर्म की बुद्धि दुर्लभ है दुष्प्रापा गुरुकर्ममंचयवतां सद्धर्मबुद्धिनृणां जातायामपि दुर्लभः शुभगुरुः प्राप्तः स पुण्येन चेत् । कर्त न स्वहितं तथाप्यलममी स्वेच्छास्थितिव्याहताः किंव मः किमिहाश्रयेमहि किमाराध्येमहि मंसृतौ।।२५६॥ अर्थ - बहुत भारी कर्मों के संचय से युक्त मनुष्यों के लिये सद्धर्म की बुद्धि प्राप्त हो भी जाती है तो शुभगुरु का मिलना कठिन है, और यदि पुरयोदय से शुभ गुरु भी मिल जाता है तो स्वच्छन्द स्थिति से पीडित हुए मनुष्य आत्महित करने मे समर्थ नहीं होते । हम संसार मे किससे क्या कहे ? किस का आश्रय ले ? और किसकी आराधना करे ॥२५६।।
कल्याण की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये दारा मोक्षगृहार्गला विषधरा भोगाश्चलाः सम्पदोह्यायुर्वायुकदर्थिताम्बुलहरीतुल्यं सशल्यं जगत् । देहः श्वभ्रनिकेतनं कुगतिदं विश्वं कुटुम्ब चलं ज्ञात्वेतीह यतध्वमेव विबुधा नित्याप्तये श्रेयमः ॥२५७॥ अर्थः- स्त्रियां मोक्षरूपी घर के पागल है, भोग सांप हैं, सम्पदाएं चञ्चल हैं, आयु वायु से प्रेरित जल की तरङ्गों
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१०४
सुभाषितमञ्जरो
के समान हैं, संसार शल्य सहित है, शरीर नरक का घर है, संसार कुगति को देने वाला है और कुटुम्ब चञ्चल है ऐसा जान कर हे विद्वानो । कल्याण की प्राप्ति के लिये निरन्तर यत्न करो ||२७||
कल्याण की प्राप्ति के लिये क्या करना चाहिये ? त्यज दुर्जनसंसर्ग भज माधुममागमम् ।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताम् ॥ २५८ ॥
अर्थ- दुर्जन की संगति छोडो, सज्जन की संगति करो,
रात-दिन पुण्य करो और निरन्तर अनित्यता का स्मरण करो । तपोवन की महिमा
तपोवनं महादुःखसंसारक्षयकारणम् ।
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प्रच्छया न से किञ्चित्कार्य माशु विशाम्यहम् ॥ २५६ ।। अ.- तपोवन महादुःखों से युक्त संसार के क्षय का कारण हैं, मुझे किसी से पूछने से क्या प्रयोजन है मै तो शीघ्र ही इसमे प्रवेश करता हूं विरागी मनुष्य ऐसा विचार करता है । कैसा विचार निरन्तर करना चाहिये ?
aise hieraणः क्वत्यः किं प्राप्य किंनिमित्तकः । इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने हि मतिर्भवेत् ॥२६॥ अर्थ- मैं कौन हूँ? मै किस प्रकार के गुणों से सहित हूं, मैं कहां उत्पन्न हुआ हू. मुझे क्या प्राप्त करना है और मेरा क्या निमित्त है ऐसा विचार यदि प्रतिदिन नहीं किया जाता है तो नियम से बुद्धि खोटे स्थान में चली जाती है ॥२६० ॥
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सुभाषितमञ्जरी
१०५ वार वार क्या विचार करना चाहिये ? कः कालः कानि मित्राणि को देशः को व्ययागमौ । कश्चाहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्म हु ॥२६१।। अर्था - कौन समय है ? कौन मित्र है ? कौन देश है ? कौन खर्च और आय है ? कौन मै हूं ? और कौन मेरी शक्ति है इस तरह वार वार विचार करना चाहिये ।।२६१॥
· विचारवान् को गर्व नहीं होता कास्था सानि सुन्दरेऽपि परितो दंदह्यमानेऽग्निभिः कायादौ तु जरादिभिः प्रतिदिनं गच्छत्यवस्थान्तरम् । इत्यालोचयतो हदि प्रशमिनो भास्वद्विवेकोज्ज्वले गर्वस्यावसारः कुतोऽत्र घटते भावेषु सर्वेष्वपि ॥२६२॥ अर्था-जिस प्रकार अग्नि द्वारा चारों ओर से जलते हुए सुन्दर से सुन्दर महल मे कोई आदर नहीं होता उसी प्रकार बुढ़ापा आदि के द्वारा प्रतिदिन भिन्न २ अवस्था को प्राप्त होते हुए शरीर आदि मे क्या श्रादर करना है . . ' इस प्रकार का विचार करने वाले प्रशान्त मनुष्य के देदीप्यमान विवेक से उज्ज्वल हृदय मे समस्त पदार्थ विषयक गर्व का अवसर कैसे आ सकता है ? ॥२६२॥
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१०६ सुभाषितमञ्जरी
संसार मे कृतकृत्य कौन है ? लब्ध्वा जन्म कुले शुचौ नरवपुः शुद्धाशयं पुण्यतो वैराग्यं च करोति यः शुचितपो लोके स एकः कृती। तेनैवोज्झितगौरवेण यदि वा ध्यानामृतं पीयते प्रासादे कलशस्तदा मणिमयो हैमे समारोपितः ॥२६३॥
अर्थ - पुण्योदय से पवित्र कुल मे जन्म, मनुष्य शरीर, निर्मल अभिप्राय और वैराग्य को प्राप्त कर जो निर्दोष तप करता है संसार मे वही एक कृतकृत्य है। यदि वही कृतकृत्य मनुष्य अहंकार छोड़ कर ध्यानरूपी अमृत का पान करता है तो समझना चाहिये कि उसने सुवर्णमय महल के ऊपर मणिमय कलशा चढ़ाया है ॥२६३॥
श्रावक का लक्षण देवशास्त्रगुरूणां च भक्तो दानदयान्वितः। मदाष्टव्यसनहीनः श्रावकः कथितो जिनैः ॥२६४॥ अर्धा - जो देव शास्त्र और गुरु का भक्त हो, दान और दया से सहित हो तथा श्राठ मद और सात व्यसनों से रहित हो जिनेन्द्र भगवान ने उसे श्रावक कहा है ॥२६४॥
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सुभाषितमञ्जरी
मुनियों का चारित्र दुर्लभ है भव्यजीवा यदासाद्य लभन्ते संशयोज्झितम् । सम्यग्दर्शनसम्पन्ना गीर्वाणेन्द्रसुखं महत् ।। चारित्रं निरगाराणां शूराणां शान्तचेतसाम् । शिवं सुदुर्लभं सिद्ध सारं क्षुद्रभयावहम् ।।२६५॥ अर्थ- सम्यग्दर्शन से युक्त भव्यजीव जिसे पाकर निस्सन्देह इन्द्रों के बहुत भारी सुख को प्राप्त करते है तथा अतिशय दुर्लभ मोक्ष को भी प्राप्त होते है वह शूरवीर शान्त-चित्त मुनियों का चारित्र है। यह चारित्र अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा कायर पुरुषों को भय उत्पन्न करने वाला है ॥२६॥
जिनमार्ग के श्राश्रय विना इन्द्रियाँ शान्त नहीं होती चलान्युत्पथवृत्तानि दुःखदानि पराणि च । इन्द्रियाणि न शाम्यन्ति विना जिनपथाश्रयात् ।।२६६॥ अर्थाः-चञ्चल, कुमार्ग मे प्रवृत्त और अत्यन्त दुःख देनेवाली इन्द्रियाँ जिनमार्ग का आश्रय लिये विना शान्त नहीं होती।
तप से आत्मा शुद्ध होता है यथाग्निविधिना नप्तं द्रुतं शुध्यति काञ्चनम् । तथा कर्मकलङ्की चात्मा सुतपोऽग्निना ध्र वम् ॥२६७॥
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सुभाषितमञ्जरी अर्थ:- जिस प्रकार अग्नि की विधि से तपाया हुआ सुवर्ण शीघ्र शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार कर्मरूपी कलङ्क से युक्त आत्मा उत्तम तपरूपी अग्नि के द्वारा निश्चित ही शुद्ध हो जाता है ॥ २६७ ॥
चित्त की शुद्धि चित्त से होती है जलेन जनितः पङ्को जलेन परिशुद्धयति । चित्तेन जनितं पाप चित्तेन परिशुद्धयति ॥२६८॥ अर्था:- जिस प्रकार जल से उत्पन्न कीचड़ जल से दूर होता है उसी प्रकार चित्त से उत्पन्न पाप चित्त से-अच्छे विचार से दूर होता है ॥२६॥
तप की शुद्धि सब शुद्धियों से श्रेष्ठ है . सर्वासामेव शुद्धीनां तपःशुद्धिः प्रशस्यते । . . तपःशुद्धिप्रशुद्धानां किङ्करास्त्रिदशा नृणाम् ॥२६६।। अर्थः- तप की शुद्धि सब शुद्धियों मे प्रशस्त है क्योंकि तप की शुद्धि से शुद्ध मनुष्यों के देव भी किङ्कर होते है ॥२६॥
तापस तप से शुद्ध होते है वस्त्राद्याः समला यद्वद् धौता शुद्धन्ति वारिणा । तपोरूपेण तोयेन तद्वच्छुध्यन्ति तापसाः ।।२७०।।
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१०६ अर्था:- जिस प्रकार वस्त्र आदि मलिन पदार्थ पानी से धोने पर शुद्ध हो जाते है उसी प्रकार तपरूपी पानी से तापस शुद्ध हो जाते ।।२७०॥
गृहस्थाश्रम हितकारी नहीं है सर्व धर्ममयं क्वचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकं क्वाध्येतद्यवत्करोति चरितं प्रज्ञाधनानामपि । तस्मादेष तदन्धरज्जवलनं स्नानं गजस्याथवा मत्तोन्मत्तविचेष्टितं नहि हितो गेहाश्रमः सर्वथा । २५१५ अर्थ - मूल् की वात जाने दो बुद्धिरूपी धन के धारक भी गृहस्थों का चरित्र कभी तो सव काम धर्म मय करता है, कभी प्रायः पापमय करता है और कभी धर्म तथा पाप दोनों से युक्त करता है इसलिये उनका यह कार्य अन्धे की रस्सी वटने के समान अथवा हाथी के स्नान के समान है। गृहस्थ की चेष्टा मदिरा आदि के नशा मे मत्त अथवा पागल मनुष्य की चेष्टा के समान है यथार्थ में गृहस्थाश्रम सर्वथा हितकारी नहीं है ॥२७१॥
सब पदार्थ क्षणिक हैं
शिखरिणी छन्दः यदस्माभिदृष्टं क्षणिकमभवत्स्वप्नमिव तत् कियन्तो भावा स्युः स्मरणविषयादयगताः ।
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११०
सुभाषितमञ्जरी अहो पश्यत् पश्यत् स्वजनमखिलं यान्तमनिशं हतबीडं चेतस्तदपि न भवेत्सङ्गरहितम् ॥२७२। अर्था.- हम लोगों ने जिसे देखा था वह स्वान के समान क्षणिक हो गया। ऐसे कितने ही पदार्थ हैं जो हमारी स्मृति से भी ओझल हो गये है, और यह चित्त अपने समस्त आत्मीयजनों को निरन्तर जाता हुआ देख रहा है, फिर भी आश्चर्य है कि यह निर्लज्ज, परिग्रह से रहित नहीं होतादैगम्बरी दीक्षा धारण नहीं करता ॥२७२॥
निर्लज्ज मन विषयों की चाह करता है वपुः कुब्जीभूतं गतिरपि तथा यष्टिशरण। विशीर्णा दन्ताली श्रवणविकलं श्रोत्रयुगलम् । शिर शुक्लं चक्षुस्तिमिरपटलेरावृतमहो मनस्ते निर्लज्ज तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति ॥२७३।।
अर्थ- शरीर टेडा हो गया है, गति लाठी के सहारे हो गई है, दन्तपडिक्त विखर गई है, कर्णयुगल श्रवण शक्ति से रहित हो गये हैं, सिर सफेद हो गया है, और नेत्र अन्धकार के पटल से घिर गये हैं, फिर भी मेरा मन विषयों की चाह करता है ॥२७३।।
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सुभाषितमञ्जरी
१११ गृहस्थाश्रम में मतिमान् प्रीति नहीं करते कारागारनिभे घोरे चिन्तादुःखादिसंकुले । सर्वपायाकरीभूते धर्मविध्वंमकारणे ॥२७४॥ कामक्रोधमहामोह-रागाबन्धौ गृहाश्रमे । मतिमान को रतिं धत्ते ह्यनन्तभयदायिनि ॥२७॥
अर्था.- जो वन्दीगृह के समान है, भयंकर है, चिन्ता तथा दुःख आदि से व्याप्त है, सब पापों की खान है, धर्मनाश का कारण है, काम क्रोध महामिथ्यात्व तथा राग श्रादि का कूप है, और अनन्तभवों को देने वाला है, ऐसे गृहस्थाश्रम मे कौन बुद्धिमान् प्रीति करता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥२७४॥
स्थायी विराग के रहते, परम पद दुर्लभ नहीं है श्मसानेषु पुराणेषु भोगान्तेषु च या मतिः । सा मतिः सर्वदा काले न दूरं परमं पदम् ।।२७६॥ अर्थ-श्मशान भूमि मे, शास्त्र पठन कालमें तथा संभोग के अन्त मे जो विरागपूर्ण बुद्धि होती है वह यदि सदा बनी रहे तो परम पद निर्वाणधाम दूर नहीं है ॥२७६॥
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सुभाषितमञ्जरी
भोग तृप्ति के कारण नहीं हैं सुचिरं देवभोगेऽपि यो न तृप्तो हताशकः । स कथं तृप्तिमागच्छेन्मनुष्य भवभोगकैः ।।२७७॥ अर्थ:- जो जीव चिरकाल तक देवों के भोग, भोग कर भी तृप्त नहीं हुआ वह तृष्णालु, मनुष्यभव के स्वल्प भोगों से कैसे तृप्ति को प्राप्त होगा? ॥२७७॥
कषांयरूपी विष संयम को निःसार कर देता है संयमोत्तमपीयूषं सर्वाभिमतसिद्धिदम् ।। कषायविषसेकोऽयं निःसारीकुरुते क्षणात् ॥२७८॥ अर्था - यह कषायरूपी विष का सींचना, समस्त इष्ट सिद्धियों को देने वाले संयमरूपी उत्तम अमृत को क्षणभर मे निःसार कर देता हैं ॥२७॥
परम पद को कौन प्राप्त होते हैं ? संसारध्वंसिनी चयाँ ये कुर्वन्ति सदा नराः। रागद्वषहतिं कृत्वा ते यान्ति परमं पदम् ।।२७६ । अर्थ- जो मनुष्य सदा संसार को नष्ट करने वाली मुनि वृत्ति को करते है वे राग द्वेष का विघात कर परम पद को प्राप्त होते हैं ॥२७॥
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सुभाषितमञ्जरी
११३
संयम का क्या लक्षण व्रतानां धारणे दण्डत्यागः समितिपालनम् । कषायनिग्रहोऽक्षाणां जयः संयम इष्यते ।।२८०॥ अर्थ व्रतों का धारण करना, मन वचन काय की प्रवृत्ति रूप दण्डों का त्याग करना, समितियों का पालन करना, कषायों का निग्रह करना, और इन्द्रियों को जीतना संयम कहलाता है ॥२८॥
वैराग्य धारण करने की प्रेरणा वैराग्यसारं दुरितापहारं मुक्त्यङ्गनादानविवौ समर्थम् । पापारिवृक्षस्य महाकुंठारं सौख्याकरं त्वं भज सर्वकालम् ॥ अर्था:- हे आत्मन् ! पापों के नाशक, मुक्तिरूपी स्त्री के देने मे समर्थ, पापरूप वृक्ष को नष्ट करने के लिये तीक्ष्ण कुठार तथा सुखों की खान स्वरूप वैराग्य को तू सदा धारण कर ॥२८॥
तप धारण करने की प्रेरणा
स्वागताच्छन्दः कर्मपर्वतनिपातनवज्र स्वर्गमुक्तिसुखसाधनमन्त्रम् ! . मन्मथेन्द्रियदमं शुभवीजं त्वं तपः कुरु समीहितदात् ।२८२॥
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सुभाषितमजरो अर्थ:- जो कर्मरूपी पर्वत को गिराने के लिये वन है, स्वर्ग और मोक्ष का सुख प्राप्त कराने के लिये मन्त्र है, कामेन्द्रिय का दमन करने वाला है, शुभ कार्यों का बीज है तथा अभिलषित पदार्थों को देने वाला है ऐसे तप को तू कर।
जैनी दीक्षा कैसे प्राप्त होती है ? बोधिलाभाच्च वैराग्यात्काललब्ध्यादिसंश्रयात् । जैनी दीक्षां ससंस्कारां द्विजः संप्राप्तुमर्हति ॥२८३ अर्था:- रत्नत्रय की प्राप्ति से, वैराग्य से तथा काललब्धि आदि के आश्रय से द्विज-ब्राह्मण क्षत्रीय और वैश्य संस्कार से युक्त जैनी दीक्षा प्राप्त होने के योग्य है ॥२८३।।
भोगेच्छा से जन्म व्यर्थ होता है जन्मेदं वन्ध्यतां नीतं भवभोगोपलिप्सया। काचमल्येन विक्रीतो हन्त चिन्तमणिर्गथा ॥२८४] अर्थ- मैंने संसार सम्बन्धी भोगों की इच्छा से इस जन्म को निष्फल कर दिया। खेद है कि काच के मूल्य से चिन्तामणि रत्न को बेच दिया ॥२४॥
सप के विना कर्मसमूह नष्ट नहीं हो सकता कान्तारं न यथेतरो ज्वलयितु ददो दवाग्नि विना दावाग्नि न यथा पर शमयितु शक्तो विनाम्भोधरम् ।
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सुभाषितमञ्जरी
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निष्णातः पवनं विना निरमितु नान्यो यथाम्भोधरं कौघं तपमा विना किमपरं हन्तु समर्थस्तथा ।।२८।। अर्थ- जिस प्रकार दावानल के विना कोई दूसरा वन को जलाने के लिये समर्थ नहीं है, जिस प्रकार मेघ के विना कोई दूसरा दावानल को बुझाने मे समर्थ नहीं है, और जिस प्रकार पवन के विना कोई दूसरा मेघ को दूर कल्ने मे समर्थ नही है, उसी प्रकार तप के विना कोई दूसरा कर्म समूह को नष्ट करने के लिये समर्थ नहीं है ॥२८॥
____ तप जयवन्त रहे यस्मात्तीर्थकृतो भवन्ति भुवने भूरिप्रतापाश्रया श्चक्र शा हरयो गणेश्वरवलाः क्षोणीभृतो वव्रिणः । जायन्ते बलशालिनो गतरुजी यस्माच्च पूर्वर्षिभि-- र्यच्च घनकर्मपाशमथनं जीयात्तपस्तच्चिरम् ।।२८६॥ अर्थ:- जिस तप से मनुष्य संसार मे तीर्थकर होते है, बहुत भारी प्रताप के आधारभूत चक्रवर्ती होते हैं, नारायण होते हैं, जननायक बलभद्र होते है, राजा होते हैं, इन्द्र होते हैं, बलिष्ठ होते है, निरोग होते है और पूर्व ऋषि जिस तप को करते थे ऐसा तीव्र कर्मरूप पाश को नष्ट करने वाला वह तप चिरकाल तक जयवन्त रहे ।।२८६॥
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सुभाषितमञ्जरी
तप से पाप नष्ट होते हैं तपोभेषजयोगेन जन्ममृत्युजरारुजः । पञ्चाक्षारातिभिः सार्धं विलीयन्तेऽघराशयः ॥२८॥ अर्था:- तपरूपी औषध के योग से जन्म, मृत्यु और जरा रूपी रोग तथा पापों के समूह पञ्चेन्द्रिय रूपी शत्रुओं के साथ विलीन हो जाते है ॥२८॥
___ तप से मुक्ति सुलभ है तपः करोनि यो धीमान मुक्तिश्रीरञ्जिताशयः । स्वर्गो गृहाङ्गणस्तस्य राज्यसौख्यस्य का कथा ॥२८८॥ अर्थः- मुक्तिरूपी लक्ष्मी मे अनुरक्तचित्त होकर जो बुद्धिमान् तप करता है उसे स्वर्ग घर का आंगन है, राज्य सुख की क्या कथा है ? अर्थात् वह तो प्राप्त होता ही है ॥२८॥
तप का बल सबसे श्रेष्ठ बल है लोकत्रयेऽपि तन्नास्ति तपसा यन्न साध्यते । चलानां हि समस्तानां स्थितं मन्धि तपोबलम् ।।२८६।। अर्था:- तीनों लोकों मे वह वस्तु नहीं है जो तप से सिद्ध न होती हो । यथार्थ में तप का बल सब बलों के शिर पर स्थित है-सब बलों मे श्रेष्ठ है ॥२६॥
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सुभाषितमञ्जरी
११७ तपस्वी की शक्ति इन्द्र को दुर्लभ है न सा त्रिदशनाथस्य शक्तिः कान्ति द्य तपोधनस्य या साधोयथाभिमतकारिणी ॥२६०॥ अर्थ - तपस्वी साधु की यथाभिलषित कार्य को सिद्ध करने वाली जो शक्ति है, कान्ति है, द्य ति है और धति है वह इन्द्र के नहीं होती ॥२०॥
तप से सब वस्तुएं सुलभ है तपसालंकृतो जीवो यद् यद् वस्तु समीहते । तत्तदेव समायाति, भुवनत्रितये ध्र वम् ।।२६१ ॥ सुर्था - तप से सुशोभित जीव जिस-जिस वस्तु की चाह करता है, तीनों लोकों में नियम से वह उसी-उसी वस्तु को प्राप्त होता है ॥२६१॥ तपरूपी वृक्ष मोक्षरूपी फल को देने वाला है
सग्धराछन्दः मन्तोपस्थूलमूलः प्रशमपरिकरस्कन्धवन्धप्रपञ्चः पञ्चाक्षीरोधशाखः स्फुरतशमदलः शीलसंपत्प्रवालः । श्रद्धाम्भःपूरसेकाद्विपुलवलयुतैश्वर्य मौन्दर्य भोगः स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवपदफलदः स्यात्तय पादपोऽयम्
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११८
सुभाषितमञ्जरी मा :- संतोष ही जिसकी बडी मोटी जड है, शान्ति का परिकर ही जिसकी पींड है, पञ्चेन्द्रियों का दमन ही जिसकी शाखाएं है, प्रकट हुआ शमभाव ही जिसके पत्ते है, शीलरूप संपत्ति ही जिसकी नई कोंपल है, श्रद्धारूपी जल के सींचने से जिसके प्रबल ऐश्वर्य और सौन्दर्यरूपी भोग विस्तार को प्राप्त हुए है, रवर्गादि की प्राप्ति ही जिसके फूल है तथा जो मोक्षरूपी फल को देने वाला है ऐसा यह तप रूपी वृक्ष है ॥२२॥
___ तप से सब कुछ प्राप्त होता है यद् दूरं यच्च दुःसाध्यं यचन लोकत्रये स्थितम् । अनय वस्तु तत्सर्व प्राप्यते तपमाऽचिरात् । २६३॥ अर्था - जो वस्तु दूर है, दुःख से प्राप्त होने योग्य है, तीन लोकों मे कही स्थित है, और अमूल्य है वह सब तप के द्वारा शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है ।।२६३।। विशिष्टमिष्टं घटयत्युदारं, दूरस्थितं वस्त्वतिदुलभ च । जैनं तपः किंबहुनोदितेन, स्वश्रियं चाक्षयमोक्षलक्ष्मीम् अर्थ:- जो वस्तु अत्यन्त इष्ट है, महान् है, दूरस्थित है और अत्यन्त दुर्लभ है उसे भी जैन तप प्राप्त करा देना है । अथवा बहुत कहने से क्या ? जैन तप स्वर्ग की लक्ष्मी तथा अविनाशी मोक्ष लक्ष्मी को भी प्राप्त करा देता है ॥२६४॥
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सुभाषितमञ्जरो
११६ तप की ताड़ना मोक्ष सुख को देती है तपोभिस्ताडिता एव जीवाः शिवसुखस्पृशः । तन्दुला खलु मिद्धयन्ति मुसलैस्ताडिता भृशम् ॥२६॥ अर्था - जीव तपों से ताडित होकर ही मोक्ष सुख का स्पर्श कर पाते है क्योंकि मूसलों से ताडित चांवल अच्छी तरह सीझते है ॥६६॥
तप निःस्पृह होकर करना चाहिये पूजालाभप्रसिद्धयर्थं यत्तपस्तप्यते नृभिः । शोष एव शरीरस्य न तस्य तपसः फलम् ।।२६६।। अर्था:- जो तप पूजा और लाभ की सिद्वि के लिये मनुष्यों के द्वारा तपा जाता है उससे शरीर का शोषण ही होता है, उस तप का फल नहीं होता ॥२६॥
तप इन्द्रियों को वश करने वाला है तपः सर्वाक्षसारङ्गवशीकरणवागुरा। कपायतापमृटीका कर्माजीर्णहरीतकी ॥२६७।। अर्थ - तप, समस्त इन्द्रिय रूपी हरिणो को वश करने के लिये जाल है, कषायरूपी गर्मी को शान्त करने के लिये दाख है तथा कर्मरूपी अजीर्ण का शमन करने के लिये हर्ड है ।
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सुभापितमञ्जरी
शक्ति को न छिपा कर तप करना चाहिये अनाच्छाद्य स्वसामर्थ्य द्विषड्भेदं तपोऽनघम् । दुष्कर्मारण्यदावाग्नि विदध्यात्प्रत्यहं यतिः ॥२६८|| अर्थ-मुनि को चाहिये कि वह अपनी सामथ्र्य को न छिपा कर दुष्कर्मरूपी अटवी को जलाने के लिये दावानलस्वरूप बारह प्रकार का निर्दोष तप प्रतिदिन करे ।।२६८)
समर्थ युवापुरुष को तप अवश्य करना चाहिय ध्यानानुष्ठानशतात्मा युवा यो न तपस्यति । स जराजर्जरोऽन्येपां तपोविनकरः परम् । २६8 ।। अर्था - ध्यान की सामर्थ्य से युक्त होकर भी जो तरुण पुरुष तपश्चरण नहीं करता है वह अन्त मे वृद्धावस्था से जर्जर शरीर होकर दूसरों के तप मे अधिक विध्न करने वाला होता है ।।२६६॥
तप मुक्ति का पाथेय है नपो मुक्तिपुरीं गन्तु पाथेयं स्याद्धि पुष्कलम् । मुक्तिरामां वशीकतु तपो मन्त्रोऽङ्गिनां मतः ॥३००। अर्थ - तप, मुक्तिरूपी नगरी को जाने के लिये पर्याप्त सम्बल है और मुक्तिरूपी स्त्री को वश करने के लिये प्राणियों का वशीकरण मन्त्र है ॥३००।
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सुभाषितमञ्जरी
१२१ पुण्यशाली जीव तप करते है पुण्यवन्तो महोत्साहाः प्रबोधं परमं गताः । विषवद् षियान् दृष्टया ये तपस्यन्ति सज्जनाः ॥३०१॥ अर्थ - परम प्रबोध को प्राप्त हुए जो सज्जन विपयों को विष के समान देख कर बहुत भारी उत्साह से सहित होते हुए तप करते है वे पुण्यशाली है ॥३०१॥
तप ही मुक्ति का कारण है ये बुधा मुक्तिमापन्ना यान्ति याम्यन्ति निश्चितम् केवलं तपसा ते वै हेतुरन्यो न विद्यते ॥३०२।। अर्थ - जो विद्वान् मुक्ति को प्राप्त हुए है, हो रहे हैं और होंगे वे निश्चित ही एक तप के द्वारा हुए है, हो रहे है और होंगे, मुक्ति का दूसरा कारण नहीं है । ॥३०२।।
दीक्षा की प्रार्थना संसारकूपसंपातिहस्तालम्बनधारिणीम् । देहि दीक्षां विभो मह्य कर्मविच्छेदकारिणीम् ।।३०३॥ अर्था - कोई भव्य आचार्य से प्रार्थना करता है कि हे नाथ ! संसाररूपी कुए मे पडने वालों लिये हाथ का सहारा देने वाली तथा कर्मों का विच्छेद करने वाली दीक्षा मुझे दीजिये,
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१२२
सुभाषितमञ्जरो
दीक्षा की प्रार्थना प्रसीद वरद स्वात्मदीक्षया करुणाम्बुधे। मोहं महारिपु जेतुमिच्छामि त्वत्प्रसादतः ॥३०४॥ अर्था:- है, वरद । हे दयासागर ! प्रसन्न होना, आपके प्रसाद से मै जिन दीक्षा धारण कर मोह रूपी महा-शत्रु को जीतना चाहता हू ॥३०४॥
अहो मया प्रमत्तेन विषयान्धेन नेक्षिताः । कष्टं शरीरसंसारभोगनिस्मारता चिरम् ||३०५॥ अर्थ:- क्योंकि मुझ प्रमादी ने विषयों में अन्धा होकर इतने दिन तक शरीर संसार और भोगोंकी असारता नहीं देखी , यह बड़े खेद की बात है ।।३०५॥
___ दीक्षा किन्हें देना चाहिये ? विप्राः क्षत्रिया वेश्या ये सम्यक्त्वविभूषिताः । तेषां दीक्षा विदातव्या भिक्षा तत्रैव नान्यथा । ३०६॥ अर्था - जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सम्यग्दर्शन से विभूषित है उन्हे ही दीक्षा देना चाहिये तथा वे ही भिक्षा के पात्र हैं, अन्य नहीं ॥३०६॥
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सुभाषितमञ्जगे १२३
विरक्त मनुष्य की प्रार्थना भगवस्त्वत्प्रसादेन संप्राप्य जिनदीक्षणम् । तपोविधातुमिच्छामि निर्विएणो गृहवासतः ।।३०७१ अर्थ.- हे भगवन् । मैं गृहवास से उदास हो चुका हूं, अव आपके प्रसाद से जिन दीक्षा प्राप्त कर तप करना चाहता हूं।
दीक्षा योग्य मनुष्य कौन है ? शान्तो दान्तो दयायुक्तो मदमायाविवर्जितः । शास्त्ररागी कपायन्धो दीनायोग्यो भवेन्नरः ॥३०॥ अर्थ - जो शान्त हो, जितेन्द्रिय हो, दयालु हो, मद और माया ने रहित हो, शास्त्रो का अनुरागी हो और कषाय को नष्ट करने वाला हो। वह मनुष्य दीक्षा के योग्य हो सकता है ॥३०८।।
रागी और वीतराग की विशेषता चक्रवादिमल्लक्ष्मी वीतरागो विहाय । जिनदीक्षा समादत्ते, तृणं रागी न मुञ्चति ॥३०॥ अर्थ - वीतराग मनुष्य चक्रवर्ती आदि की प्रशस्त लक्ष्मी को छोड़कर जिनदीक्षा धारण कर लेता है और रागी मनुष्य तृण भी नहीं छोडता ॥३०॥
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१२४
सुभाषितमञ्जरी विना वैराग्य के दीक्षा का लेना निरर्थक है विरक्तत्वमनासाद्य दीक्षादानं करोति यः। तस्य जन्म वृथैव स्यादजाकएठे स्तनाविव ||३१०॥ अर्थ:- जो मनुष्य विरक्तता को प्राप्त किये विना दीक्षा ग्रहण करता है उसका जन्म बकरी के गले में स्थित स्तनों के समान निरर्थक है ॥३१०॥
यौवन के समय तप करना चाहिये यौवने कुरु भो मित्र ! तपो दुश्वरमञ्जसा । जिनदीक्षां समादाय, मुक्तिस्त्रीचित्तरञ्जिकाम् ॥३११॥ अः हे मित्र । मुक्तिरूपी स्त्री के चित्त को अनुरक्त करने वाली जिन दीक्षा लेकर यौवन के समय दुश्वर वास्तविक तप करो ॥३११॥
तप करने में समर्थ देह, देह है । मन्ये देहं तमेवाहं यश्चारित्रतपाक्षमः । परीषहसहे धीरं मतः पापकरः परः ॥३१२।। अर्थ--- मैं उसी शरीर को शरीर मानता हू जो चारित्र और तप के धारण मे समर्थ है तथा परीषहों के सहने में धीर है, अन्य शरीर पाप को करने वाला है ।।३१२॥
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सुभाषितमञ्जरी
पूर्व धर्म के प्रभाव से दीक्षा की प्राप्ति होती है
पूर्वधर्मानुभावेन पर निर्वेदमागतः । अभियाति महादीक्षां जिनेन्द्रमुख निर्गताम् ॥३१३ ॥
अ पूर्व धर्म के प्रभाव से यह जीव परमवैराग्य को प्राप्त हो जिनेन्द्र भगवान् के मुख से उपदिष्ट महादीक्षा को प्राप्त होता है ||३१३||
विरक्त पुरुष की अभिलाषा
कदा नु विपयस्त्यक्त्वा निर्गत्य स्नेहचारकात् । आचरिष्यामि जैनेन्द्रं तपोनिटितिकारणम् ॥३१४॥
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अ - सै स्नेह के कारागार से निकल कर तथा विषयों का परित्याग कर मोक्ष के कारण भूत जिनोपदिष्ठ तप का आचरण कब करूंगा ||३१४||
दीक्षा धारण करने की उत्कण्ठा
प्रतिपद्य कदर दीक्षां विहरिष्यामि मंदिनीम् 1. क्षपयित्वा कदा कर्म प्रपत्स्ये मिश्रयम् ॥३१५॥
अर्ध्या में दीक्षा धारण कर पृथ्वी पर कब विहार करूंगा और कर्मीका क्षय कर सिद्धालय - सोक्ष को कब प्राप्त करूंगा १
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१२६
सुभाषितमञ्जरी धीर मनुष्य तपोवन मे प्रवेश करते हैं अन्वयवतमस्माक मिदं यत्सूनवे श्रियम् । दचा संवेगिनो धीराः प्रविशन्ति तपोवनम् ॥३१६॥ अर्थ:- यह हमारा वंश परम्परा से चला आया व्रत है कि पुत्र के लिये लक्ष्मी देकर संसार से भयभीत धीर मनुष्य तपोवन मे प्रवेश करते हैं ॥३१६॥
भाग्यवान् कौन है ? भाग्यवन्तो महासचास्ते नराः श्लाघ्यचेष्टिताः । कपिभ्र भङ्ग रां लक्ष्मी ये तिरस्कृत्य दीक्षिताः ॥३१७।। मर्थ- महा शक्तिशाली तथा प्रशंसनीय चेष्टा से युक्त वे ही मनुष्य भाग्यवान हैं जो वानर की मोह के समान चञ्चल लक्ष्मी को तिरस्कृत कर दीक्षित हुए हैं ॥३१७}}
___ तपस्वियों के तप का फल लौकान्तिकपदं सारं गणेशादिपदं परम् । तपाफलेन जायेत तपस्विनां जगन्नुतम् ॥३१८॥ अर्थ- तपस्वियों को तप के फलस्वरूप जगत् के द्वारा स्तुत लौकान्तिक देवों का तथा गणधरादिकों का श्रेष्ठ परम पर प्राप्त होता है ।।३१।।
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सुभाषितमञ्जरी जितेन्द्रिय ही जिनमुद्रा धारण करते हैं इन्द्रियाणि न गुप्तानि जयं कृत्वा हृदश्च यैः। जिनमुद्रां समादाय तैरान्मा वञ्चितः शठैः ॥३१६॥
अर्थ - जिन्होंने हृदय को जीतकर इन्द्रियों को सुरक्षित नहीं किया है- उन्हे स्वाधीन नहीं किया है उन मूों ने जिनदीक्षा धारण कर अपने आपको ठगा है ॥३१॥
पञ्चेन्द्रियों को जीतने वाले विरले हैं दन्तीन्द्रदन्तदलनेकविधौ समर्थाः सन्त्यत्र रुद्रमृगराजवधे प्रवीणाः । आशीविषस्य च वशीकरणेऽपि दक्षाः पञ्चाननिर्जयपरास्तु न सन्ति माः ॥३२०॥ अर्थ - इस संसार में कितने ही मनुष्य बड़े बड़े हाथियों के दात तोडने में समर्थ हैं, कितने ही प्रचण्ड सिंहों के पक्ष में निपुण हैं, और कितने ही सांपों को वश करने में चन है, परन्तु पञ्चेन्द्रियों के जीतने में तत्पर नहीं हैं ।३२०॥ ।
___ कर्म किससे डरते हैं ? एवं प्रतिदिनं यस्य ध्यानं विमलचेतसः । भीतानीव न कुर्वन्ति तेन कर्माणि संगतिम् ॥३२॥
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सुभाषितमञ्जरी
अर्थ्य - निर्मल चित्त को धारण करने वाले जिस मनुष्य का ऐसा ध्यान प्रतिदिन रहता है, उससे डर कर ही मानों कर्म उसकी संगति नहीं करते ॥ ३२९ ॥
तप ही मुक्ति का कारण है
गता यान्ति च यास्यन्ति मुक्तिं येऽत्र मुमुक्षवः । कर्मान् केवलं हत्वा तपोभिस्ते न चान्यथा ॥ ३२२॥
अर्थः- इस संसार में जो मोक्षाभिलापी जन मोक्ष को गये है, जा रहे है, और जावेगे, वे सिर्फ तप के द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करके गये हैं, जा रहे है, और ज.वेगे अन्य प्रकार से नहीं || ३२२||
राज्यलक्ष्मी से विरक्त पुरुषों के विचार
.या राज्यलक्ष्मी बहुदुःखमाभ्या दुःखेनपाल्या चपलादुन्ता । नष्टापि दुःखानि चिरायते तस्यां कदा वा सुखलेशलेशः
अर्थ - जो राज्यलक्ष्मी बहुत दुःख से प्राप्त होती है, कठिनाई से जिसकी रक्षा होती है जो चपल है, जिसका अन्त दुखदाई है और जो नष्ट होकर भी चिरकाल तक दुःख उत्पन्न करती हैं, उस राज्यलक्ष्मी मे सुख का लेश कब हो सकता है ? अर्थात कभी नहीं हो सकता || ३२३||
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सुभाषितमञ्जरो वा दुःखमाध्या चपला दुरन्ता यस्या वियोगो बहुदुःखहेतुः । तस्या कृतेजन्तुरुपैति लचस्याः परिश्रमं पश्यत मोहमस्य ।। अर्था जो लक्ष्मी बढे कष्ट से उपार्जन की जाती है, चञ्चल है, तथा जिसका वियोग अत्यधिक दुःख का कारण है, ऐसी लक्ष्मी के लिए यह जीव इतना परिश्रम करता है । अहो देखो इसके मोह को ॥३२४॥
स्वच्छानामनुकूलानां संडतानां नृचेनसां । विपर्यासकरी लक्ष्मी धिक पङ्कर्द्धिमिवाम्भसाम् ।।३२५॥ अर्था - जिस प्रकार कीचड स्वच्छ अनुकूल एवं मिले हुए जल को मलिन कर देता है। उसी प्रकार यह लक्ष्मी स्वच्छ अनुकूल और मिले हुए मनुष्यों के चित्त को विपरीत कर देती है । अतः इसे धिक्कार हो ।।३२५॥
मधुरस्निग्धशीलानां चिरस्थरनेहहारिणीम् । चलाचलान्मिकां धिक् धिक् यन्त्रमूर्तिमिवश्रियम् । ३२६॥ अर्थ - जिस प्रकार यन्त्र मूर्ति ( कोल्हू ) मधुर एवं चिकण स्वभाव वाले तिलहनों के दीर्घकालिक तैल को हर लेती है, तथा अत्यन्त अस्थिर होती है। उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी मधुर एवं स्नेहपूर्ण स्वभाव वाले मनुष्यों के चिरकालिक स्नेह
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सुभाषितमञ्जरो को नष्ट कर देती है एवं अत्यन्त अस्थिर है अतः इसे धिक्कार हो ॥३२६॥
सर्वतोऽपि सुदुःप्रेच्यां नरेन्द्राणामपि स्वयं । दृष्टि दृष्टिविपस्येव घिधिक लक्ष्मी भयावहाम् ॥३२७॥ अर्थ - जिस प्रकार दृष्टिविष सर्प की दृष्टि विषवैद्यों के लिए भी सब और से स्वयं अत्यन्त दुःख से देखने योग्य तथा भय उत्पन्न करने वाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी राजाओं के लिए भी सब और से अत्यन्त दुःख से देखने योग्य तथा भय उत्पन्न करने वाली है इसलिए इसे धिक्कार हो ॥३२॥ मूलमध्यान्तदुःस्पर्शा सर्वदाग्निशिखामिव । भास्वरामपि विग्लक्ष्मी सर्वसन्तापकारिणीम् ॥२२॥ अर्थ:- जिस प्रकार अग्नि की शिखा सदा मूल मध्य और अन्त मे दुःख कर स्पर्श से सहित है तथा देदीप्यमान होकर भी सबको सन्ताप करने वाली है। उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी श्रादि मध्य और अन्त में दुःरखकर स्पर्श से सहित है सब दशाओं मे दुःख देने वाली है तथा देदीप्यमान तेज से युक्त होने पर भी सबको सन्ताप उत्पन्न करने वाली है आकुलता की जननी है इसलिए इसे धिकार हो ॥३२८।।
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सुभाषितमञ्जरा १३१ रात्रि भोजन निन्दा
रात्रि भोजन करने वाला कैस्ग होता' विरूपो विकलाङ्गःस्याइल्पायू रोगपीडितः । दुभंगो दुःकुलश्चैव नक्तंभोजी सदा नरः ॥३२६ ।। अर्थ -रात्रि भोजन करने वाला मनुष्य सदा विरूप, विकलाङ्ग, अल्पायु, रोगी, अभागा और नीचकुली होता है।
रात्रि मे भोजन करना योग्य नहीं है भानो; करैरसंस्पृष्ट मुच्छिष्टं प्रेतसंचरात् सूक्ष्मजीवाकुलं वापि निशि भोज्यं न युज्यते ॥३३०॥ म - रात्रि मे भोजन सूर्य की किरणों से अछूता, प्रेतों के सचार से जूठा और सूक्ष्म जीवों से युक्त होता है अतः करने योग्य नहीं है ॥३३०॥
रात्रि भोजी पशु तुल्य है विरोचनेऽस्तसंसर्ग गते ये मुज्जते जनाः । ते मानुषतया बद्धाः पशवो गदिता वुधैः ३३१॥ अर्श - सूर्य के अस्त हो जाने पर जो मनुष्य भोजन करते हैं वे विद्वानों द्वारा मनुष्य पर्याय से युक्त पशु कहे गये हैं।
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सुभाषितमञ्जरी रात्रि भोजन के लम्पटी पुरुष परभव मे क्या होते है अन्धाः कुब्जकवामनातित्रिफला अल्पायुषः प्राणिनः शोकक्लेशविपाददुःखबहुलाः कुष्ठादिरोगान्विताः । दारिद्रयोपहता अतीवचपला मन्दादराः म्युचव रात्रौ भोजनलम्पटाःपरभवे तियेच श्वभ्रादिपु ॥३३२॥ अर्था - रात्रि भोजन के लम्पट पुरुष यदि परभव मे मनुष्य होते है तो अन्धे, कुवडे, बौने, विकलाङ्ग, अल्पायु, शोकक्लेश और विषाद के दुख से युक्त, कुष्ठ आदि रोगों से सहित, दरिद्र, अत्यन्त चपल और आदरहीन होते है. तथा तिर्यञ्च और नरका मे यदि पैदा होते है तो उनके दुःख का कहना ही क्या है ? ॥३३२।।
रात्रि भोजन का दुष्परिणाम मक्षिकाकीटकेशादि भक्ष्यते पापजन्तुना । तमःपटलसंछन्नचक्षुषा पापबुद्धिना ॥३३३।। मर्थ · अन्धकार के समूह से जिसके नेत्र आच्छादित हो रहे है तथा जिसकी बुद्धि पापरूप हो रही है ऐसा पापी जीव रात्रि मे भोजन करते समय मक्खी, कीडे तथा बाल आदि हानिकर पदार्थ खा जाता है ॥३३३॥
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सुभाषितमजरी
रात्रिभोजी दुर्गति को नही देखता दर्शनागोचरीभूते सूर्ये परमलालसः । भुङ्क्ते पापमना जन्तु दुर्गतिं नावबुध्यते ॥३३४॥ अर्था:- तीव्र लालसा से युक्त पापी मनुष्य सूर्य के छिप जाने पर भोजन करता है परन्तु उससे होने वाली दुर्गति को नहीं जानता ॥३३४॥
रात्रिभोजन के दोष डाकिनीतभूतादिकुत्सितप्राणिभिः समम् । भुक्तं भवेत्तेन येन क्रियते रात्रिभोजनम् ।।३३५॥ अर्था - जो रात्रिभोजन करता है वह डाकिनी, प्रेत तथा भूत आदि निन्द्य प्राणियों के साथ भोजन करता है ।।३३।।
रात्रिभोजन के त्यागी पुरुष को उपवास का फल मिलता है मुहूर्त्तत्रिशतं कृत्वा काले याति तावति ।
आहारवर्जनं जन्तु-रूपवासफलं भजेत् ॥३३६॥ अर्थ:- जो पुरुष रात्रि के ३० मुहूर्त तक चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है वह उपवास के फल को प्राप्त होता है ॥३३६॥
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যুমালিনী __ रात्रिभोजन को धर्म बताने वाले दुःख प्राप्त करते है निशिभुक्तिरधर्मो ये धर्मत्वेन प्रकल्पितः । पापकर्मकठोराणां तेषां दुःखप्रबोधनम् ॥३३७॥ स - रात्रि में भोजन करना अधर्म है फिर भी इसे जिन्होंने धर्म बतलाया है वे पाप कर्म के उदय से क्रूर चिन है उन्हे दुःख की ही प्राप्ति होती है ॥३३७॥
रात्रिभोजी जिनशासन से विमुख है नक्तं दिवा च भुजानो विमुखो जिनशामने । कथं सुखी परत्र स्यानि तो नियमोज्झितः ॥३३८॥ अर्थ:- रात दिन भोजन करने वाला पुरुष जिन शासन से पराडमुःख है । जो व्रत रहित तथा नियम से शून्य है वह पर भव मे सुखी कैसे हो सकता है ? ॥३३८॥
___एक उपवास का फल मिलता है श्रोमुहूर्तमानं यः कुरुते भुक्तिवर्जनम् । फलं तस्योपवासेन समं मासेन जायते ॥३३६॥ अर्थ - जो दिन में एक मुहूर्त के लिये भी आहार का त्याग करता है उसे एक मास मे एक उपवास के बराबर फल मिलता है ॥३३॥
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सुभापितमञ्जरी
दो उपवास का फल मिलता है मुहूर्तट्टितयं यन्तु न भुङ्क्ते प्रतिवासरम् । पष्ठोपवामिता तस्य जन्तो मासेन जायते ॥३४०।। अर्था - जो प्रतिदिन दो मुहूर्त तक भोजन नहीं करता है वह मास में वेला अर्थात दो उपवास के फल को प्राप्त होता है ।।३४०॥
रात्रिभोजन के त्याग का फल निजकुलेकमण्डन त्रिजगदीशसम्पदम् । भजति यः स्वभावतस्त्यजति नक्तंभोजनम् ।।३४१॥ अर्थ - जो स्वभाव से ही रात्रि भोजन का त्याग करता है वह अपने कुल का आभूषण होता हुआ त्रिलोकीनाथ की सम्पत्ति को प्राप्त होता है ।।३४१॥ दिन भर उपवास रखकर रात्रि मे भोजन करना ठीक नहीं है त्याज्यमेतत्परं लोके यत्प्रपीडय दिवा दुपा।
आत्मानं रजनीभुक्त्या गमयत्यर्जितं शुभम् । ३४२॥ अर्था । दिन भर भूख से अपने आपको पीडिन कर जो शुभ कर्म अर्जित किया है उसे वह रात्रिभोजन से दूर कर दता है । लोक मे यह प्रथा अत्यन्त त्याज्य है ।।३४२॥
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सुभाषितमञ्जरी सज्जनप्रशंसा सज्जन विरले है
मालिनी छन्दः मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवनमुपकारणिभिः प्रीणयन्तः । परगुणपरमारणून् पर्वतीकुत्य नित्यं निजहादि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥३४३॥
अर्था:- जो मन वचन और काय मे पुण्यरूपी अमृत से परिपूर्ण है, जो उपकारों की परम्परा से तीनों लोकों को संतुष्ट करते है, और जो दूसरों के परमाणु तुल्य अल्पगुणों को पर्वत जैसा बडा बना कर निरन्तर अपने हृदय मे विकसित करते हैं ऐसे सज्जन पुरुष कितने है ? अर्थात् अत्यन्त विरले है ॥३४३॥
सज्जन पुण्यकार्यों से कभी तृप्त नहीं होते सुकृताय न तृप्यन्ति सन्तः सन्ततमप्यहो । विस्मर्तध्या न धर्मस्य समुपास्तिः कुतःक्वचित् ॥३४४॥ व:- आश्चर्य है कि सज्जन पुण्य कार्य के लिये कभी
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सुभाषितमञ्जरी
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संतुष्ट नहीं होते अर्थात् पुण्य कार्य करने की उनकी सदा इच्छा बनी रहती है। किसी कारण से कहीं भी धर्म की उपासना न भुलना चाहिये ॥३४४॥
गुरु औरदे व की उपासना सदा करना चाहिये आजन्मगुरुदेवानां माननं युज्यते सताम् । रोगादिभिः पुनस्तस्य क्षति नैंव विदोपकृत् ॥३४५।। अर्था - सज्जनों को निम्रन्थ गुरु और वीतरागदेव की उपासना जन्म पर्यन्त करना चाहिये। रोगादि के कारण यदि कभी वाधा पडती है तो वह दोषोत्पादक नहीं है ॥३४॥
सज्जन कभी वैर को प्राप्त नहीं होते सुजनो न याति वैरं परहितनिरतो विनाशकालेऽपि । छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरमयति मुखं कुठारस्य ॥३४६।। अर्थ - दूसरे के हित करने मे तत्पर सज्जन, 'विनाशकाल मे भी वैर को प्राप्त नहीं होता सो ठीक है क्योंकि चन्दन का वृक्ष कटते समय भी कुल्हाडे के मुख को सुगन्धित कर देता है।
धरोहर किसके पास रखी जाती है ? धर्मज्ञे कुलजे सत्ये सुन्याये व्रतशालिनि । सदाचाररतेऽक्रोधे शुद्ध बहुकुटुम्बिनि ॥३४७॥
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सुभाषितमञ्जरी पुरुपे क्षिप्यते वस्तु धनं भूपादि गजतम् । हेमवाश्वगजादि ; न चेन्नश्यत्यसंशयम् । ३४८॥ अर्थ - धर्म के ज्ञाता, कुलीन, सत्यव्यवहारी, न्यायवान् , व्रतों से सुशोभित, सदाचार मे तत्पर, क्रोध रहित, शुद्ध, और बहुकुटुम्बी मनुष्य के पास ही धन, आभूपणादि, चांदी, सोना, घोडा तथा हाथी आदि वस्तुएं धरोहर रूप में रखी जाती है, अन्यथा वे निःसन्देह नष्ट हो जाती है ।३४७-३४८।
सत्पुरुष ही पुरुष है बदिता योऽथवा श्रोता श्रेयसां बचमां नरः । पुमान् स एव शेषस्तु शिल्पिकल्पितकाधिवत् ॥३४६॥ अर्थ:- जो कल्याणकारी वचनों को कहता है तथा सुनता है, वही पुरुष है, बाकी शिल्पकार के द्वारा निर्मित पुतले के समान है ॥३४६॥
सज्जन परकल्याण मे संतुष्ट रहते है तुष्यन्ति भोजने विधा मयूरा धनगर्जिते । महान्तः परकल्याणे नीचाः परविपत्तिषु ॥३५०॥ अर्था - ब्राह्मण भोजन मे संतुष्ट होते है, मयूर मेघ गर्जना मे संतुष्ट होते हैं, महापुरुष दूसरों की भलाई मे संतुष्ट होते है और नीच पुरुष दूसरोकी विपत्तिमे संतुष्ट होते है ।३५०/
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सुभाषितमञ्जरो सज्जन का मन कुपित नहीं होता सायोः प्रकोपितस्यापि मनो याति न विक्रियाम् । न हि तापयितु शस्यं सागराम्भस्तणोल्फया ॥३५१॥ अर्थ - क्रोध उपजाये जाने पर भी सज्जन का मन विकार को प्राप्त नहीं होता सो ठीक है क्योंकि तृण की आग से समुद्र का पानी गर्म नहीं किया जा सकता ॥३५१।।
सज्जन ही आदरणीय है सज्जनास्तु सतां पूर्व, समाधाः प्रयत्नतः । किं लोके लोष्टवत्प्राप्यं श्लाघ्यं रत्नमयत्नतः ॥३५२॥ अथ - सज्जन पुरुष ही प्रयत्न से, सज्जनों द्वारा आदरणीय है। क्या संसार मे श्लाघ्य रत्न बिना प्रयत्न के, मिट्टी के ढेले के समान प्राप्त हो सकता है ? नहीं हो सकता है।
___ सज्जनों के वचन अमृत तुल्य है जाग्रत्वं सौमनस्यं च, कुर्यात्सद्वागलं पर। अजलाशयसम्भूत- ममृतं हि सतां वचः ॥३५३॥ अर्थ- सज्जनों के वचन शाश्वतिक सावधानता, और मन की पवित्रता को करते हैं, विशेष क्या, सज्जनों के वचन जलाशय से उत्पन्न नही हुए, अमत के समान है ।।३५३।।
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१४० सुभाषितमञ्जरो
सज्जनों का मन विकारी नहीं होता न हि विक्रयते चेतः सतां तद्धतुसन्निधौ । किं गोष्पदनलक्षोभी, क्षोमयेज्जलधे जलम् ॥३५४।। अर्थ- सज्जनों का मन विकार के कारण मिलने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता है। जैसे गाय के खुर प्रमाण गहरे जल मात्र को मैला कर सकने वाला मेढ़क समुद्र के जल को मैला कर सकता है ? नहीं ॥३५४॥
सज्जनों के बिना संसार का अस्तित्व नहीं । यत्र क्वापि हि सन्त्येव, सन्तः सार्वगुणोदयाः । क्वचित् किमपि सौजन्यं, नोचेल्लोकाकुतो भवेत् ।३५५॥ अर्थ सर्व के हितकारी गुणो सहित सज्जन, सर्वत्र नहीं मिलते है, कहीं कहीं पर ही होते है। क्योकि यदि संसार मे सज्जनता की गंध न रहे तो संसार का अस्तित्व ही नहीं रह सकेगा ।।३५५।
सज्जन सज्जनों से पूज्य होते है । पूज्या अपि स्वयं सन्तः, सज्जनानां हि पूजकाः । पूज्यत्वं नाम किन्नु स्यात्, पूज्यपूजाव्यतिक्रमे ॥३५६॥
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सुभाषितमञ्जरो
अर्थ- स्वयं पूज्यनीय भी सज्जन, सज्जनों के पूजक होते है, क्योंकि पूज्य पुरुषों की पूजा का उल्लंघन करने पर, पूज्य पना कसे हो सकता है ? किन्तु नहीं हो सकता है ॥३५६॥
सननों का चित्त कैसा होता है ? सम्पत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलम् । आपत्सु तु महाशै नशि नामंघातककेशम् ॥३५७॥
अर्श - सम्पत्तियों में महापुरुषों का चित्त नीलकमल के समान कोमल होता है ओर आपत्तियों में किसी वडे पर्वत की शिलाओं के समान कठोर होता है।
सज्जन संसर्गदोष से विकार को प्राप्त नहीं होते नहि संमगदोपेण विक्रियां यान्ति मायवः । भुजङ्ग वेष्टयमानोऽपि चन्दनो न विषायते ॥३५८॥ अर्थः- सज्जन पुरुष संसर्ग के दोष से विकार को प्राप्त नहीं होते सो ठीक ही है क्योकि सांपों से लिपटा हुआ चन्दन का वृक्ष विषरूप नहीं होता ॥३५८।।
सजनों का स्वभाव कैसा होता है ? संपदि विनयावनता विपदि समारूढगर्वगिरिशिखराः । ज्ञाने मौनाभरणाश्चित्रचरित्रा जयन्ति भुवि सन्तः ।३५६
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१४२ - सुभाषितमञ्जरी अथः:- जो संपत्ति मे विनय से नम्रीभूत रहते है, विपत्ति से गर्वरूपी पर्वत की शिखर पर चढ़ते है और ज्ञानमे मौनरूपी आभूषण से सहित है ऐसे विचित्र स्वभाव को धारण करने वाले सज्जन पृथ्वी में जयवन्त हो ॥३५६॥
महापुरुषों की एकरूपता होती है उदये सविता रागी रागी चास्तमये तथा । संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ॥३६०॥ मार्थ- सूर्य उदयकाल मे लाल रहता है और अस्तकाल मे भी लाल रहता है सो ठीक है क्योंकि संपत्ति और विपत्ति मे महापुरुषों के एक रूपता रहती है ॥३६०॥
सज्जन सब मे समान रहते है अञ्जलिस्थानि पुष्पाणि वासयन्ति करद्वयम् । अहो सुमनसां वृत्तिमिदक्षिणयो; समा ॥३३॥ अर्था.- अजलि मे स्थित फूल दोनों हाथों को सुवासित करते है सो ठीक है क्योंकि सज्जनों की वृत्ति वाम और दक्षिण ( पक्ष मे अनुकूल तथा प्रतिकूल ) पुरुषों मे समान रहती है ॥३६१॥
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सुभाषितमञ्जरी
विकार ही अच्छे बुरे की पहिचान है. न जारजातस्य ललाटचिह्न', न साधुजातस्य ललाटपमम् । यदा यदासो भजते विकारं तदा तदासौ खलु जारजातः ।३६२॥ अर्थ- जार से उत्पन्न हुए मनुष्य के ललाट पर कोई चित नहीं होता और न सज्जन मे उत्पन्न हुए मनुष्य के ललाट पर कमल होता है परन्तु जब जब वह विकार भाव को प्राप्त होता है तब तब पता चलता है कि वह जार से उत्पन्न है ॥३६२॥
कुलीन ,पुरुष के लक्षण क्या है ? न च हसति नाभ्यसूयति न परं परिभवति नाप्रियंवदति । न क्षिप्यां कथां कथयनि लक्षणमेतत्कुलीनस्य ॥३६३॥ अर्घा:- न दूसरे की हंसी करता है, न ईर्ष्या करता है, न दूसरे का अनादर करता है, न अप्रिय वचन बोलता है,
और न आक्षेप के योग्य कथा कहता है यह कुलीन मनुष्य के लक्षण हैं ॥३६३॥
सज्जन और दुर्जन की विशेषता । दिव्यमानरसं पीत्वा गर्व नायाति कोकिलः । पीत्वा कर्दमपानीयं मेको वटवटायते ॥३६४॥
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१४४
सुभाषितमञ्जरी
अर्थ- कोयल आम के उत्तम ग्स को पीकर गर्व को प्राप्त नहीं होती परन्तु मेढ़क कीचड से मिला हुआ पानी पी कर टर टर्र करता है ३६४॥
सज्जन और दुर्जन मे अन्तर नारिकेलममाकाग दृश्यन्ते किल सज्जनाः । अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः ॥३६॥ अर्था- सज्जन नारियल के समान दिखाई देते है, और दुर्जन बेर के समान बाहर ही मनोहर रहते है ।।३६५।
सुशील मनुष्यों को कोई नष्ट नहीं कर सकता ? न मज्जयत्यम्वुनिधिः सुशीलान् , न दग्धुमीशो ज्वलदर्चिराग्निः । न देवता लवयितु समर्था विघ्ना विनश्यन्ति चिनी प्रयत्नात् ।।३६६॥ अर्था- सुशील मनुष्यों को समुद्र नहीं डुबाता है, जलती हुई ज्वालाओं से युक्त अग्नि जलाने में समर्थ नहीं है, और देवता लांघने मे समर्थ नहीं हैं, उनके विघ्न बिना प्रयत्न के ही नष्ट हो जाते हैं ॥३६६।।
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मुभाषितमञ्जरी
१४५ कुलीन मनुप्य नम्रीभूत होते हैं नमन्ति माला वृना नमन्ति कुलना नराः । शुष्ककाष्ठाश्च मूर्खाश्च न नमन्ति कदाचन ।'३६७॥ अर्ज - फलो से युक्त वृक्ष और उचकुल में उत्पन्न हुए मनुष्य नम्र होते है चरखे काष्ठ ओर मूर्ख मनुष्य कभी नम्रीभूत नहीं होते ॥३६७॥
परमार्थ का ज्ञाता कौन? धर्मशास्त्र श्रुतौ शश्यल्लालगं यम्य मानसम् । परमात्र म एवेह सम्यग्जानाति नापरः ॥३६८॥ अर्थ- जिमका मन मदा धर्म शास्त्र के सुनने की लालसा ने युक्त रहता है, वही इस संसार में परमार्थ को अच्छी तरह जानता है दूमग नहीं ॥३६८॥ अन्तरन की बात को विचारने वाले अल्प हैं
अन्योक्ति
शार्दूलविक्रीडतच्छन्दः भ्रातः काञ्चनलेपगोपितवाहिस्ताम्राकृतिः साम्प्रतं मा भपीः कलश ! स्थिरीभव चिरं देवालयस्योपरि ।
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१४६
सुभाषितमञ्जरी
ताम्रत्वं गतमे काञ्चनमयी कीर्तिः स्थिरा तेऽधुना नान्तः केऽपि विचारयन्ति नियतं लोका वहिवु द्धयः ।३६६।
अर्थ- सुवर्ण के लेप से जिसकी तामे की बाह्य श्राकृति छिप गई है, ऐसे हे भाई कलश | इस समय तू डर मत, मन्दिर के ऊपर चिर काल के लिये स्थिर हो जा, तेरा ताम का रूप चला गया है अब तो तेरी सुवर्णमय कीर्ति स्थिर हो गई क्योंकि अन्तरङ्ग की बात का कोई विचार नहीं करते, सचमुच ही लोग बहिर्बुद्धि है-केवल बाह्य रूप को देखते हैं।
सज्जन का हृदय कैसा होता है ?
कोमलं हृदयं नूनं साधूनां नवनीतवत् । परसन्तापसन्तप्तं परसोख्यसुखावहम् ॥३७ ।। अ - सज्जनों का हृदय सचमुच ही मक्खन के समान कोमल होता है, इसीलिये तो वह दूसरों के संताप से संतप्त होता है और दूसरों के सुख से सुखी रहता है ॥३७०॥
सज्जन और दुर्जन की मित्रता कैसी होती है ? इक्षोरग्रे क्रमशः पर्वणि पोणि- यथा रसविशेषः । तद्वत्सज्जनमैत्री विपरीतानां तु विपरीता ॥३७१॥
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सुभापितमञ्जरी जिस प्रकार ईख के आगे आने की पोर में क्रम से रस की विशेषता होती जाती है उसी प्रकार सज्जन की मित्रता आगे आगे विशिष्ट-अधिक अधिक होती जाती है परन्तु दुर्जनो की मित्रता इससे विपरीत होती है ।।३७१।।
पुरुषोत्तम कौन है ? गजानो यं प्रशंसन्ति यं प्रशंसन्ति वै द्विजाः ।। साधयो यं प्रशंसन्ति य पार्थ पुरुषोत्तमः।३७२।। अर्थः- राजा जिसकी प्रशंसा करते है, ब्राह्मण जिसकी प्रशंशा करते है और साधु जिसको प्रशंसा करते है हे अजुन । वह पुरुषोत्तम है ।।३७२॥
मनुष्यों के चार भेद तेतु सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थ परित्यज्य ये सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये। . तेऽमी मानुपराक्षसाः परहितं स्वर्थाय निघ्नन्ति ये ये निम्नन्ति निरर्थकं परहित ते के न जानीमहे ।३७३। अर्थ:- जो स्वार्थ को छोड कर परार्थ करने में तत्पर रहते है वे सत्पुरुष है, जो स्वार्थ का विरोध न कर परार्थ करने में तत्पर रहते है, वे सामान्य पुरुष हैं, जो स्वार्थ के लिये
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सुभाषितमलगे परार्थ को नष्ट करते है वे मनुप्यों में राक्षस हैं और जो विना प्रयोजन ही दूसरों का हित नष्ट करते है वे कौन हैं यह हम नहीं जानते ॥३७३।।
महापुरुष का लक्षण प्रारम्भे सर्वकार्याणि विचार्याणि पुनः पुनः । प्रारब्धस्यान्तगमनं महापुरुषलक्षणम् ॥२७४॥ अर्था:- प्रारम्भ मे सब कार्यों का बार बार विचार कर लेना चाहिये पश्चात् प्रारम्भ किये हुए कार्य को पूरा करना चाहिये यही महापुरुष का लक्षण है ॥३७४।।
महात्माओं के प्रकृतिसिद्धगुण
द्रुतविलिम्वितच्छन्दः विपदिधैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः। यशसि चाभिरुचि र्व्यसनं श्र तो प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम
॥३७॥ अर्थः- विपत्ति मे धैर्य, ऐश्वर्य मे क्षमा, सभा मे बोलने की चतुराई, युद्ध मे पराक्रम, यश मे इच्छा और शास्त्र मे व्यसनसक्ति, यह सब महात्माओं मे स्वभाव से सिद्ध होते है ।
॥३७५||
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सुभापितमञ्जरी
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उत्तम पुरुष कव भोजन करते है ? पितु र्मातुः शिशोः पात्रगर्भिणीवृद्धरोगिणाम् । प्रथमं भोजनं दत्वा स्वयं भोक्तव्यमुत्तमैः ।।३७६।। अ - पिता, माता , बालक , मुनि आदि योग्य पात्र , गर्भिणी स्त्री, वृद्ध और रोगी मनुष्यों को पहले भोजन देकर पीछे उत्तम पुरुषों को स्वयं भोजन करना चाहिये ॥३७६।।
किनके पद पद पर तीर्थ है ? परद्रव्येषु ये हयन्धाः परस्त्रीषु नपुसंकाः । परापवादने मूकास्तेपां तीर्थं पदे पदे ॥३७७॥ अर्थ - जो दूसरे के धन मे अन्धे है, परस्त्रियों के विषय ने नपुसंक है और दूसरे की निन्दा करने मे गूगे है उन्हे पद पद पर तीर्थ हैं ॥३७७||
देवताओं के समान पुरुप कौन है ? परपरिवादनमकाः परदोपनिदर्शने चान्धाः । परकटुकवचनवधिरास्ते पुरुपा देवतासदृशाः ॥३७८॥ अर्थ:- जो दूसरे की निन्दा करने मे गूगे है, दूसरे के दोष देखने मे अन्धे हैं और दूसरे के कडए वचन सुनने में वहरे है वे पुरुष देवता के समान हैं ॥३७८॥
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सुभाषितमञ्जरो कुलीन मनुष्य नीच कार्य नहीं करते बनेऽपि सिंहा गजमांसभक्षिणो, बुभुक्षिता नैव तृणांश्चरन्ति, एवं कुलीना व्यसनाभिभूता, न नीचकर्माणि समाचरन्ति ।
॥३७६ ॥ अर्थ:- जिस प्रकार सिंह वन मे भी हाथी का मास खाते है भूख से पीडिन होने पर घास नहीं खाते उसी प्रकार कुलीन मनुष्य व्यसनों से युक्त होने पर भी नीच कार्य नहीं करते।
सज्जन किनके वन्द्य नहीं है ? वदनं प्रसादसदनं हृदयं सदयं सुधामुचो वाचः । करण परोपकरण येषा केपां न ते बन्धाः ॥३८ ॥ मर्था - जिनका मुख प्रसन्नता का घर है, हृदय दया से पहित है, वचन अमत को झराते है और इन्द्रियां परोपकार करती है वे सज्जन किनके वन्द्य नहीं है ॥३८०॥
सज्जनों के लक्षण क्या है ? गर्व नोद्वहते न निन्दति परं नो भाषते निष्टुरं प्रोक्तं केनचिदप्रियं हि सहते क्रोधं च नालम्बते । श्रुत्वा काव्यमलक्षणं परकृतं संतिष्ठते मूकबद दोपांश्छादयते गुणान् प्रथयते चैतत्सतां लक्षणम् ।३८११
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रासर की जिन्दा करता है, न कठोर वचन बोलता है, कोई अप्रिय बात कहता है तो उन सह लेना है, क्रोध का आश्रय नहीं लेता है, दूसरे के द्वारा रचित दोपपूर्ण काव्य को सुन कर जो गूगे की तरह चुप बैठा रहता है जो दूसरे के दोषों को छुपाता है तथा गुरखें को विस्तृत करता है वह सज्जन है। सज्जन का यही लक्षण है ।८१॥
___ महापुरुष छोटे पुरुषों पर क्रोध नहीं करते तृणानि नोन्मनयति प्रभजनो मृदनि नीचैःप्रणतानि सर्वतः । नमुनिछतानव तरून्प्रवाधने महान महन्स्वेव करोनि विक्रमम् ।।३८२॥
अर्थः- 'प्रांची सब ओर से नीचे भुके हुए तृणों को नहीं ग्वादती. ऊंचं वृक्षों को ही उखादती है सो ठीक है क्योंधि महापुरप महापुरुषों पर ही पराकम करते हैं ॥३२॥
सजनों से पृ. ची सुशोभित है अप्रियवचनदरिद्रः प्रियवचनाटय : स्वदारपरितुष्टैः । परपग्विाद निपुनः क्यविन्क्वचिन्मण्डिता वसुधा ।३३।
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१५२
सुभाषितमञ्जरी अर्थ - जो अप्रिय वचनों के विपय मे दरिद्र है, प्रिय वचनों से सम्पन्न है, अपनी स्त्री मे संतुष्ट है, और परनिन्दा से दूर है ऐसे पुरुषों से पृथ्वी कहीं कहीं सुशोभित है ॥३८३॥
साधु कौन है ?
पृथ्वीच्छन्दः जयन्ति जितमत्सराः परहितार्थमभ्युद्यताः स्वयं विगतदोपकाः परविपत्तिखेदाबहाः । महापुरुषसंकथाश्रवणजातरोमोग्दमाः समस्तदुरितार्णवे प्रकटसेतवः साधवः ॥३८४॥
अर्थ- जिन्होंने ईर्ष्या को जीत लिया है, जो परहित के लिये तत्पर रहते है, जो स्वयं दोष रहित है, जो दूसरों की विपत्ति मे खेद धारण करते है, जो महापुरुषों की कथा सुन कर रोमाञ्चित होते है और जो समस्त पुरुषों के पापरूपी समुद्र मे प्रकट पुल है वे साधु है ॥३८४॥
___धीर कौन है ? ते धीरास्ते शुचित्वाट्या स्ते वैराग्यसमुन्नताः । विक्रियन्ते न चेतांसि सति येषामुपद्रवे ॥३८५।।
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सुभापितमञ्जरी
१५३ अर्था:- जिनके चित्त उपद्रव के होने पर भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होते वे ही धीर हैं, वे ही पवित्रता से युक्त है, और वैराग्य से उन्नत है ।।३८५॥ ___ संपत्ति और आपत्नि महापुरुषों के ही होती है संपदो महतामेव महतामेव चापदः । वर्धते क्षीयते चन्द्रो न तु तारागणः क्वचित् ।।३८६॥ अथू - महापुरुषों के ही संपदाए होती है और महापुरुषों के ही आपदाएं होती है क्योंकि चन्द्रमा ही बढ़ता है और घटता है ताराओं का समूह कहीं नही बढताघटता है ।३८६।
महापुरुषो को विकार नहीं होता है गवादीनां पयोऽन्येद्य : सद्यो वा दधि जायते । क्षीरोदधिस्तु नाद्यापि महतां विकृतिः कुतः ॥३८७॥ अर्थ- गाय आदि का दूध दूसरे दिन अथवा शीघ्र ही दही बन जाता है परन्तु क्षीरसागर आज तक दहीरूप नहीं हो सका सो ठीक है क्याकि महापुरुषों के विकार कैसे हो सकता है ? ॥३८॥ उत्तम पुरुषों की प्रकृति में विकार नहीं होता
मन्दाक्रान्ता दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तवर्ण घृष्टं धृष्टं पुनरपि पुनश्चन्दनं चारुगन्धम् ।
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१५४
सुभाषितमञ्जरी छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादुदं चेक्षुदण्ड प्राणान्तेऽपि प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमानाम् ।।३८८।।
अर्था.सुवर्ण वार वार जलाये जाने पर भी सुन्दर वर्ण का धारक होता है, चन्दन वार वार घिसे जाने पर भी सुन्दर गन्ध से युक्त होता है और ईख बार वार काटे जाने पर भी मधुर स्वाद को देने वाला होता है सो ठीक ही है क्योंकि प्राणान्त होने पर भी उत्तम मनुष्यों की प्रकृतिस्वभाव मे विकार नहीं होता ॥३८८॥
महापुरुषों का सब अनुसरण करते है मत्तवारणसंचण्णे व्रजन्ति हरिणाः पथि। प्रविशन्ति भटा युद्ध महाभटपुरस्सराः ।।३८६॥ भास्वताभासितानर्थान् सुखेनालोकते जनः । सूचीमुखविनिर्भिन्नं मणिं विशति सूत्रकम् ।।३६०।। अर्था:- मत्त हाथी के द्वारा चले हुए मार्ग मे हरिण चलते हैं, महायोद्धा को आगे कर साधारण योद्धा युद्ध मे प्रवेश करते है सूर्य के द्वारा प्रकाशित पदार्थों को लोग अच्छी तरह देखते है और सूई के अप्रभाग से भिन्न मणि मे सूत्र प्रवेश करता है ।।३८६-३६०॥
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सुभाषितमञ्जरी
१५५ सज्जनों को अनादर से दुःख होता है
अन्योक्ति न दुःख दह्यमाने मे न च्छेदे न च वर्षणे । एकमेव महादुःखं गुञ्जया सह तोलनम् ॥३६१।। अर्थ - सुवर्ण कहता है कि मुझे जलाने पर दुःख नहीं होता, काटने पर दुःख नहीं होता और घसीटने मे दुःख नहीं होता किन्तु गुमची के साथ तोला जाना यही एक मुझे सबसे बड़ा दुःख है ॥३६१।।
ब्रह्मचर्य प्रशंसा
ब्रह्मचर्य धारण करने की प्रेरणा संसाराम्बुधितारकं सुखकरं देवैः सदा पूजितं मुक्तिद्वारमपारपुण्यजनकं धीरैः सदा सेवितम् । सम्यग्दर्शनबोधवृत्तगुणमद्भाण्डं पवित्रं परं हयत्रामुत्र च सौख्यगेहमपरं त्वं ब्रह्मचर्य भज ॥३६२॥ अर्था:- जो संसाररूपी समुद्र से तारने वाला है, सुख को करने वाला है देवोंके द्वारा सदा पूजित है, मुक्ति का द्वार है,
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सुभाषितमञ्जरी अपार पुण्य का जनक है, धीर मनुष्यों के द्वारा सदा सेवित है, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र गुणों का उत्तम पात्र है, परम पवित्र है, तथा इस लोक और परलोक मे सुख का घर है ऐसे ब्रह्मचर्य को तुम धारण करो ।।३६२॥
ब्रह्मचर्य ही श्रेष्ठ है ब्रह्मवयं भवेत्सारं सर्वेषां गुणशालिनाम् । ब्रह्मचर्यस्य भङ्गन गुणाः सर्वे पलायिताः ॥३६३॥ अर्थ.- सभी गुणी मनुष्यो मे ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। क्योंकि ब्रह्मचर्य के भड्न होने से सब गुण नष्ट हो जाते है ॥३६३।।
ब्रह्मचर्य स्वर्ग और मोक्ष का हेतु है ब्रह्मचर्यमपि पालय सार धर्मसारगुणदं भवतारम् । स्वर्गमुक्तिगृहप्रापणहेतु दुःखसागरविलङ्घनसेतुम् ।३६४। अर्था -जो सारभूत है, धर्म आदि श्रेष्ठ गुणों को देने वाला है, संसार से तारने वाला है, स्वर्ग और मोक्षरूपी घर की प्राप्ति का हेतु है तथा दुखरूपी सागर को पार करने के लिये सेतु है ऐसे ब्रह्मचर्य का पालन करो ॥३६४॥
ब्रह्मचर्य के बिना सव व्रत व्यर्थ है ब्रह्मचर्य भवेन्मलं सर्वस्या व्रतसन्नतेः । ब्रह्मचर्यस्य भङ्ग न व्रतानि स्युर्वृथानृणाम् ॥३६॥
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सुभाषितमञ्जरी
१५७ अ - ब्रह्मचर्य समस्त व्रत समूह का मूल है । ब्रह्मचर्य के भङ्ग होने से मनुष्यो के व्रत व्यर्थ हो जाते है ॥३६॥
परस्त्री सेवन का फल बन्ध धं धनभ्र श शोक ताप कुलक्षयम् । दुःखद कलह मृत्यु लभन्ने पारदारिकाः ॥३६६।। अधू-परस्त्रीसेवी पुरुष, बन्ध, वध, धननाश, शोक, संताप, कुलक्षय, दुःखदायक कलह और मृत्यु को प्राप्त होते है ।३६६
अब्रह्मचर्य से क्या नष्ट होता है ? आयुम्तेजो बलं वीर्या प्रज्ञा श्रीश्च महायशः । पुण्य सुप्रीतिमा व हन्यतेऽब्रह्मसेवनात् ॥३६॥ अर्थ :- अब्रह्म-कुशील सेवन करने से, आयु, तेज, बल, वीर्य, लक्ष्मी, विपुलयश, पुण्य और उत्तम प्रीति नष्ट हो जाती है ॥३६७।।
शीलबत शाश्वतसुख का कारण है ये शीलवन्तो मनुजा व्यतीता दृढव्रतास्ते जगत प्रपूज्याः । परत्र देवासुरमानुपेषु पर सुखं शाश्वतमप्नुवन्ति ॥३९८॥ अर्था - जो शीलवान मनुष्य हो चुके है वे अपने व्रत पर
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सुभाषितमञ्जरी
ढ़ रहने वाले तथा जगत् के पूजनीय हुए है। शीलवान नुष्य परभव मे भी देव दानव और मनुष्यों के सुख को तथा अविनाशी उत्कृष्ट मोक्ष सुख को प्राप्त करते है ||३६६॥
शील ही अनुपम धन है शीलं हि निर्मलकुलं सहगामिबन्धुः शीलं बलं निरुपमं धनमेव शीलम् । पाथेयमक्षयमलं निरपायरक्षा माक्षादयं गुण इति प्रवदन्ति सन्तः ॥३६६।। अर्थः- शील ही निर्मल कुल है, शील ही साथ जाने वाला वन्धु है, शील ही अनुपम बल है, शील ही धन है, गील ही अक्षय सम्बल है, शील ही निर्वाध रक्षा है और शील ही साक्षात् गुण है ऐसा सत्पुरुष कहते है ||३६६||
परदार मेवन कष्टकर है सन्मार्गस्खलनं विवेकदलनं प्रज्ञालतोन्मलनं गाम्भीर्योन्मथनं स्वकायदमनं नीचत्यसपाहनम् । सध्यानावरणं स्वधर्महरणं पापप्रपापूरणं धिक् कष्टं परदारलक्षणमिदं क्लेशानुभाजां नृणाम्।'४००॥
- जो सन्मार्ग से स्खलित करने वाला है. विवेक को
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सुभापितमञ्जरो
१५६ नष्ट करने वाला है, प्रज्ञारूपी लता को उखाडने वाला है, गाम्भीर्य को दूर करने वाला है, अपने शरीर का दमन करने वाला है, नीचत्व को प्राप्त कराने वाला है, समीचीन ध्यान को रोकने वाला है, आत्मधर्म का हरण करने वाला है और पापरूपी प्याऊ को भरने वाला है ऐसे क्लेशभोजी मनुष्यों के इम परस्त्री संवन रूप कष्ट को विकार है ।।४००||
कामाग्नि का सताप वडा प्रक्ल है विनोऽत्रुधरवातः प्लावितोऽप्यम्बुराशिभिः । न हि त्यजति संताप कामवह्निप्रदीपितः ।।४०१॥ अर्थ:- कामाग्नि से संतप्त मनुष्य मेघों के समूह में सींचे जाने पर तथा समुद्रों में डुबोये जाने पर भी मंताप को नहीं छोड़ता है ॥४०॥
चौर्यनिन्दा
चौर्य के त्याग की निन्दा सकलविबुधनिन्य दुःखसंतापनीज विषमनरकमार्ग बन्युविच्छेदहेतुम् । मुगतिकरममारं पापवृक्षस्य कन्द न्यज सकलमदत्तं त्वं यदा मुक्तिहेतोः ॥४०२॥
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सुभाषितमञ्जगे
मिश्र - समस्त विद्वानों के द्वारा निन्दनीय, दुःख एवं संताप का कारण, नरक का विषम मार्ग बन्धुश्रा के वियोग का हेतु, कुगति को करने वाला सारहीन, तथा पापस्पी वृक्ष का कन्द ऐसे समस्त अदत्तादान को तुम मुक्ति की प्राप्ति के अर्थ सदा के लिये छोडो ॥४०२।।
सबसे श्रेष्ठ अर्थ शौच है सर्वेषामेव शोचानामर्थशोचं विशिष्यते । योऽर्थेषु शुचिः स शुचि नवृद्धादिमि. शुचिः ॥४०३। अर्थः- सब प्रकार की पवित्रताओं मे धन की पवित्रता अपनी विशेषता रखती है। जो धन के विषय मे पवित्र है वह पवित्र है वृद्वावस्था आदि के कारण मनुष्य पवित्र नहीं होता। ४०३॥
__ चोरी से हानि सौजन्यं हन्यतेभ्रशो वित्रम्भम्य धृतादिपु । विपत्तिः प्राणपर्यन्ता मित्रबन्ध्यादिभिः सह । ४०४॥ गुणप्रमवसंदृब्धा कीर्ति रम्लानमालिका । लतेव दावपंश्लिष्टा सद्यः चौवेंण हन्यते ॥४॥ तच्च लोभोदयेनेव दुविषाकेन केनचित् । द्वयेन तेन बध्नाति दुरायु दुष्टचेष्टया ॥४०६॥
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मुभापितमञ्जरी
अर्थ- चोरी से सौजन्य नष्ट हो जाना है, धरोहर पाटि रखने में विश्वास चला जाता है, मित्र तथा बन्धु श्रादि के साथ प्राणान्त विपत्ति प्राप्त होती है, गुणरूपी फलो से गुम्फित कीर्तिरूपी ताजी माला दावाग्नि से झुलसी लता के समान शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। वह चोरी की आदत किमी बहुन भारी लोभ कष्ट के उदय से ही होती है। लोभ और चोरी उन दोनो से यह जीवन प्रवृत्ति द्वारा खोटी आयु का बन्ध करता है ॥४०४, ४०५, ४०६॥
रत्नत्रय प्रशंसा
रत्नत्रय के धारक ही मत्पुरुप है सम्यग्दर्शनज्ञानचाग्वित्रितयं हितम् । तद्वन्तः सर्वदा सन्तः कथयन्ति जिनेश्वराः ॥४०७।। अर्था.. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र ये नीनों ही हितकर है जो मदान नन्ति व मत्स्य है irसा जिनेन्द्र भगवान कहते है ॥१७॥
रत्नत्रय की महिमा प्राप्ते रन्ननये नाप्नं जगति मानवैः । गते रत्नत्रये लोक हारिनो रन्नसंग्रहः ॥१०॥
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सुभाषितमञ्जरी
"अ - रत्नत्रय के प्राप्त होने पर संसार मे मनुष्यों को सब कुछ प्राप्त हो जाता है और रत्नत्रय के चले जाने पर रत्नों का संग्रह लुट जाता है ॥४०८॥
रत्नत्रय से ही जन्म सफल होता है लब्धं जन्मफन्लं तेन सम्यक्त्वं च जीवितम् । येनावाप्तमिदं पूतं रत्नत्रयमनिन्दितम् ॥४०६।। अर्थ - उसी ने जन्म का फल पाया और उसी ने सम्यक्त्व को जीवित किया जिसने कि इस पवित्र एवं प्रशंसनीय रत्नत्रय को प्राप्त किया है । ४०६||
__ रत्नत्रय का फल सदृष्टिसज्ज्ञानतपोऽन्विता ये चक्र श्वरत्वं च सुरेश्वरत्वम् प्रकृष्टसौख्यामहमिन्द्रतां च, संपादयन्त्येव न संशयोऽस्ति अर्थ - जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् तप से सहित है वे चक्रवर्ती पद को तथा उत्कृष्ट सुख से युक्त अहमिन्द्र पद को नियम से प्राप्त करते है इसमे संशय नहीं है ।
॥४१०॥ रत्नत्रयरूपी अस्त्र जयवन्त रहे रत्नत्रयं जैनं जैत्रमस्त्रं जयत्यदः । येनाव्याज व्यजेष्टाईन् दुरितारातिवाहिनीम् ॥४११॥
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१६३
सुभापितमञ्जरी अर्था- श्री अरहन्त भगवान् ने जिसके द्वारा पापरूपी शत्रुओं की सेना को सहज ही जीत लिया था. ऐसा जयनशील जिनेन्द्र प्रणीत रत्नत्रयरूपी अस्त्र हमेशा जयवन्त रहे ।
।४११॥ रत्नत्रय को नमस्कार रत्नत्रयं तज्जननातिमृत्युसर्पत्रयीदर्पहर नमामि । यद्धपणं प्राप्य भन्ति शिष्टा मुक्त विरुपाकृतयोऽप्यभीष्टाः
४१२।। सर्थ:- मै जन्मजरा और मृत्युपी तीन सर्पो के मद को हरने वाले उस रत्नत्रय सम्यग्दर्शन सम्यग्नान और सम्यक चारित्र को नमस्कार करता है। जिसका आभूपण प्राप्त कर साधुजन विरूप आकृति के धारक होकर भी मुक्तिरूपी स्त्री के प्रिय हो जाते है ।।४१२॥
निश्चय रत्नत्रय का स्वरूप
श्रद्धा स्वात्मैव शुद्धः प्रमदव गुरुपादेय इत्यञ्जमा दृक् । तस्यैव स्वानुभूत्या पृथगनुभवन विग्रहादेश्च संवित् ।। तत्रैवात्यन्ततप्तया मनसि लयमितेऽवस्थितिः ग्यस्य चर्या । स्वात्मानं भेदरत्नत्रयपर परमं तन्मयं विद्धि शुद्धम् ॥४१३॥ अर्था.- हे भेद रत्नत्रय मे तत्पर आराधकराज | सद्गुरु ने
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सुभाषितमञ्जरी
उपदेश दिया है कि आनन्दमय द्रव्य और भाव कर्मो से रहित केवल निजात्मा ही मुमुक्षुओ के द्वारा उपादेय है। इस प्रकार से शुद्र स्वात्मरूप अभिनिवेश ही निश्चय सम्यग्दर्शन है और उस शुद्ध स्वात्मा का ही स्वानुभूति के द्वारा मन वचन काय से पृथक चितवन करना परमार्थभूत सम्यग्ज्ञान है । तथा उस शुद्ध निज स्वरूप मे ही अत्यन्त नैतृष्ण भाव से मन को लय करके अवस्थान करना निश्चय चारित्र है अतः तू अपने को परम शुद्ध सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमय समझ ॥४१३॥
रत्नत्रय कैसा है भज रत्नत्रयं प्रत्न, भव्यलोकैकभूपणम् । तोषणं मुक्तिकान्तायाः, पूपणं ध्वान्तसन्ततः ।।४१४।। अर्था- मै सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी उस श्रेष्ठ रत्नत्रय की आराधना करता हूँ जो कि भव्यजीवों का मुख्य आभूषण है, मुक्तिरूपी कान्ता को सन्तुष्ट करने वाला है और अज्ञानान्धकार के समूह को नष्ट करने वाला है,
॥४१४|| भवभुजगनागदमनी, दुःखमहादानशमनजलवृष्टिः । मुक्तिसुखामृत परमी, जयति दृगादित्रयी सम्यक् ॥४१५।।
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सुभाषितमञ्जरी
'१६५ अथ :- जो सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्न संसार रूपी सर्प का दमन करने के लिये नागदमनी के समान है, दुखःरूपी दावानल को शान्त करने के लिये जलवृष्टि के समान हैं , तथा मोक्ष सुखरूप अमृत के तालाब के समान है, वे सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्न भले प्रकार जयवन्त होते है ।।४१५॥
याचा परिहार सबसे याचना न करो
अन्योक्ति रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्र यतामम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः। केचिद् वृष्टिभि रायन्ति धरणी गर्जन्ति केचिद् वृथा यं य पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा व हि दीनं वचः ।४१६॥ अर्था:- हे मित्र चातक | क्षण भर के लिये सावधान चित्त होकर सुनो, यद्यपि श्राकाश मे बहुत से मेघ रहते है तथापि सभी मेघ ऐसे नहीं होते। उनमे कोई तो वृष्टि से पृथ्वी को श्रा करते हैं और कोई व्यर्थ ही गरजते है इसलिये तू जिसे जिसे देखता है उसके आगे दीन वचन मत बोल ।४१६॥
याचना के पूर्व ही गुण रहते है पीछे नहीं तावत्सत्यगुणालयः पटुमतिस्तावत्सतां वल्लभः शूरः सच्चरितः कलङ्करहितो मानी कृतज्ञः कविः ।
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सुभाषितमञ्जरो ददो धमरतः सुशील गुणवान् घातप्रतिष्ठान्वितो यानिष्टुरवज्रयातमदृशं देहीति नो भापते ॥४१७॥ अर्थ - यह मनुष्य जब तक कठोर वज्रधात के समान 'देहि' देवो इस प्रकार के दीन वचन को नही कहता है तभी तक वास्तविक गुणों का घर रहता है, तभीतक तीक्ष्ण बुद्धि रहती है, तभी तक सज्जनों को प्रिय, शूरवीर, सदाचारी, कलङ्क रहित, मानी, कृतज्ञ, कवि, चतुर, धर्मात्मा, सुशीलगुण से युक्त और प्राप्त प्रतिष्टा से सहित होता है ॥४१७॥
याचक के शरीर मे मरण के चिह प्रकट होते है - गात्रसङ्ग स्वरो हीनो ह्यगास्वेदो महाभयम् । मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके । ४१८| अर्था:- शरीर का टूटना, स्वर का हीन होना, शरीरे से पसीना छूटना और महाभय होना इस तरह जो चिह्न मरण के समय होते है वे सब याचक मे होते हैं ॥४१८॥ .
याचना कष्टकर है देहीति वास्यं वचनेषु अष्ट्र, नास्तीतिवाक्यं च ततोऽतिकष्टम्, गृहतुवाक्यं वचनेषु राजा नेच्छामि वाक्यां च ततोऽधिराजः अर्थः- 'देहि'-- 'देओ' इस प्रकार का वचन, वचनों मे कष्ट है । 'नास्ति'- 'नही है। इस प्रकार का वचन उससे भी
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सुभापितमञ्जरी
१६७ अधिक कट है। 'गृहातु'- 'लेओ', इस प्रकार का वाक्य वचनो मे राजा है और 'नेच्छामि' 'मै नहीं चाहता हू' इस प्रकार का वाक्य उससे भी अधिक बडा राजा है ॥४१॥
. भिक्षुक निन्दा अनाहूताः स्त्रयं यान्ति रसास्वादविलोलुपाः । निवारिता न गच्छन्ति माक्षिका इत्र भिक्षुकाः ॥४२०॥ अर्था.- रसास्वाद के लोभी भिक्षुक मक्खियों के समान विना बुलाये स्वयं आ जाते है और हटाये जाने पर भी नहीं हटते है ॥४२०॥
याचना से क्या नष्ट होता है देहीति वचनं श्र त्या देहस्थाः पञ्चदेवताः । । नश्यन्ति तत्क्षणादेव श्रीहीधीस्मृति कीर्तयः ॥४२१॥ अर्थ- 'दहि' 'देवो' यह वचन सुन कर शरीर में रहने वाले पांच देवता- श्री, ह्री, धी, स्मृति और कीर्ति. तत्क्षण नष्ठ हो जाते है अर्थात् याचना करने वाले की लक्ष्मी, लज्जा, बुद्धि, स्मरणशक्ति और कीर्ति नष्ट हो जाती है ॥४२१॥ ___याचक के कुल मे जन्म लेना अच्छा नहीं है वर पदिबने वासो वर पाषाणपर्वते । : ... वरं नीचकुले जन्म न जन्म याचके कुले ॥४२२॥ .. . . अर्थाः- पक्षियो के वन मे रहना अच्छा, पत्थरों के पर्वत पर
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सुभाषितमञ्जरी रहना अच्छा और नीच कुल मे जन्म लेना अच्छा परन्तु याचक के कुल में जन्म लेना अच्छा नहीं है ॥४२२॥
काक और याचक में अन्तर काक आह्वयते काकान् याचको न तु याचकान् । काळयाचकयोर्मध्ये वरं काको न याचकः ॥४२३॥ अर्थ:- एक कौआ दूसरे कौओं को बुला लेता है परन्तु एक याचक दूसरे याचकों को नहीं बुलाता इस तरह कौत्रा और याचक इन दोनों मे कौश्रा अच्छा है याचक नहीं ।४२३॥
___ याचना करना अच्छा नहीं तीक्ष्णधारेण खङ्गन वरं जिह्वा विधा कृता । न तु मानं परित्यज्य देहि देहीति जल्पनम् ।।४२४॥ अर्थः- पैनी धार वाले कृपाण से जीभ के दो टुकडे कर लेना अच्छा परन्तु मान छोड कर "देहि देहि" ऐसा करना अच्छा नहीं ॥४२४॥
भिक्षुक क्या शिक्षा देता है ? द्वार द्वारमटन् भिक्षुः शिक्षयते न याचते। अदचा मादृशो मा भू देवा त्वं त्वादृशो भव । ४२५।। आय-द्वार द्वार पर घूमता हुया भिक्षुक याचना नहीं करता है किन्तु सभी को ऐसी शिक्षा देता है कि दान न देकर मेरे समान मत बनो किन्तु देकर अपने समान बनो । ॥४२५।।
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