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सुभाषितमञ्जरी
उपदेश दिया है कि आनन्दमय द्रव्य और भाव कर्मो से रहित केवल निजात्मा ही मुमुक्षुओ के द्वारा उपादेय है। इस प्रकार से शुद्र स्वात्मरूप अभिनिवेश ही निश्चय सम्यग्दर्शन है और उस शुद्ध स्वात्मा का ही स्वानुभूति के द्वारा मन वचन काय से पृथक चितवन करना परमार्थभूत सम्यग्ज्ञान है । तथा उस शुद्ध निज स्वरूप मे ही अत्यन्त नैतृष्ण भाव से मन को लय करके अवस्थान करना निश्चय चारित्र है अतः तू अपने को परम शुद्ध सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमय समझ ॥४१३॥
रत्नत्रय कैसा है भज रत्नत्रयं प्रत्न, भव्यलोकैकभूपणम् । तोषणं मुक्तिकान्तायाः, पूपणं ध्वान्तसन्ततः ।।४१४।। अर्था- मै सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी उस श्रेष्ठ रत्नत्रय की आराधना करता हूँ जो कि भव्यजीवों का मुख्य आभूषण है, मुक्तिरूपी कान्ता को सन्तुष्ट करने वाला है और अज्ञानान्धकार के समूह को नष्ट करने वाला है,
॥४१४|| भवभुजगनागदमनी, दुःखमहादानशमनजलवृष्टिः । मुक्तिसुखामृत परमी, जयति दृगादित्रयी सम्यक् ॥४१५।।