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सुभाषितमञ्जरी
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अर्थ - प्रत्येक प्राणी के सामने अाशारूपी ऐसा गड्डा है जिसमे सारा ससार एक अणु के समान हैं फिर किसके लिये कितना प्राप्त हो सकता है, इसलिये हे भव्यजनो | तुम्हारी विषयो को इच्छा व्यर्थ है ॥१६६॥
__ तृष्णा धनिको को घुमाती है तृष्णादेवि नमस्तुभ्यं यया वित्तान्त्रिता अपि । अकृत्येषु नियोज्यन्ते भ्राम्यन्ते दुर्गमेष्वपि ॥१६७।। अर्था - हे तृष्णादेवि ! तुम्हे नमस्कार हो, जिसके द्वारा घनिक लोग भी खोटे कार्यों मे लगाये जाते है और दुर्गम स्थानो मे घुमाये जाते हैं ॥१६७।।
धनादिक से कभी कोई सतुष्ट नहीं हुआ धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु भोजनवृत्तिषु।। अतृप्ता मानवाः सर्ने याता यास्यान्ति यान्ति च ॥१६॥ अथ - धन, जोवन, स्त्री और भोजन के विषय मे सभी लोग असंतुष्ट होकर ही गये है, और जावेंगे और जा रहे हैं।
पतिव्रता स्त्री की तरह तृष्णा साथ नहीं छोडती च्युता दन्ता सिता केशा वाग्रोधः स्यात् पदे पदे। पातसज्जमिदं देहं तृष्णा साध्वी न मुञ्चति ॥१६६।।