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________________ सुभाषितमञ्जरी ढ़ रहने वाले तथा जगत् के पूजनीय हुए है। शीलवान नुष्य परभव मे भी देव दानव और मनुष्यों के सुख को तथा अविनाशी उत्कृष्ट मोक्ष सुख को प्राप्त करते है ||३६६॥ शील ही अनुपम धन है शीलं हि निर्मलकुलं सहगामिबन्धुः शीलं बलं निरुपमं धनमेव शीलम् । पाथेयमक्षयमलं निरपायरक्षा माक्षादयं गुण इति प्रवदन्ति सन्तः ॥३६६।। अर्थः- शील ही निर्मल कुल है, शील ही साथ जाने वाला वन्धु है, शील ही अनुपम बल है, शील ही धन है, गील ही अक्षय सम्बल है, शील ही निर्वाध रक्षा है और शील ही साक्षात् गुण है ऐसा सत्पुरुष कहते है ||३६६|| परदार मेवन कष्टकर है सन्मार्गस्खलनं विवेकदलनं प्रज्ञालतोन्मलनं गाम्भीर्योन्मथनं स्वकायदमनं नीचत्यसपाहनम् । सध्यानावरणं स्वधर्महरणं पापप्रपापूरणं धिक् कष्टं परदारलक्षणमिदं क्लेशानुभाजां नृणाम्।'४००॥ - जो सन्मार्ग से स्खलित करने वाला है. विवेक को
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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