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सुभाषितमञ्जरो ददो धमरतः सुशील गुणवान् घातप्रतिष्ठान्वितो यानिष्टुरवज्रयातमदृशं देहीति नो भापते ॥४१७॥ अर्थ - यह मनुष्य जब तक कठोर वज्रधात के समान 'देहि' देवो इस प्रकार के दीन वचन को नही कहता है तभी तक वास्तविक गुणों का घर रहता है, तभीतक तीक्ष्ण बुद्धि रहती है, तभी तक सज्जनों को प्रिय, शूरवीर, सदाचारी, कलङ्क रहित, मानी, कृतज्ञ, कवि, चतुर, धर्मात्मा, सुशीलगुण से युक्त और प्राप्त प्रतिष्टा से सहित होता है ॥४१७॥
याचक के शरीर मे मरण के चिह प्रकट होते है - गात्रसङ्ग स्वरो हीनो ह्यगास्वेदो महाभयम् । मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके । ४१८| अर्था:- शरीर का टूटना, स्वर का हीन होना, शरीरे से पसीना छूटना और महाभय होना इस तरह जो चिह्न मरण के समय होते है वे सब याचक मे होते हैं ॥४१८॥ .
याचना कष्टकर है देहीति वास्यं वचनेषु अष्ट्र, नास्तीतिवाक्यं च ततोऽतिकष्टम्, गृहतुवाक्यं वचनेषु राजा नेच्छामि वाक्यां च ततोऽधिराजः अर्थः- 'देहि'-- 'देओ' इस प्रकार का वचन, वचनों मे कष्ट है । 'नास्ति'- 'नही है। इस प्रकार का वचन उससे भी