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________________ सुभाषितमञ्जरी स्वयं योग्योपार्भवति पयसोऽन्ततमित्र । विमुक्तोऽयं यस्मा-दभव-दहन सिद्धभगवान् प्रपद्य ऽहंद्धम तमिह शरणं सिद्धि सुखदम् ॥३८॥ अर्थ - जिस प्रकार दूध के अन्दर घी चिरकाल से निबद्ध है उसी प्रकार यह जीव भी चिरकाल से पुण्य पाप और शरीर से निबद्ध है । जिस धर्म के प्रभाव से यह जीव अर्हन्त और सिद्ध हुए हैं उसी सिद्धि सुख को देने वाले जिनधर्म की मैं शरण को प्राप्त होता हूँ ॥३८|| धर्म की प्रधानता चत्वारो वित्तदायादा धर्मचौराग्निभूभुजः । ज्येष्ठेऽपमानिते पुंसि त्रयः कुप्यन्ति सादराः ॥३६॥ सर्थ:- धन के हिस्सेदार चार है-१ धर्म, चोर, अग्नि, और राजा । इनमें से ज्येष्ठ अर्थात् धर्म का अपमान होने पर उसके प्रति आदर रखने वाले शेष तीन कुपित्त हो जाते हैं ।।३।। धर्म ही सुख का कारण है धर्मपानं पिबेज्ज्ञानी प्रौढयुक्तिसमन्वितम् । ऋते धर्म न सौख्यं स्याद् दुःखसङ्गविवर्जितम् ४०॥ अर्थः. ज्ञानी मष्नुय को प्रबलयुक्तियो से सहित धर्म रूपी
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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