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सुभाषितमञ्जरो को नष्ट कर देती है एवं अत्यन्त अस्थिर है अतः इसे धिक्कार हो ॥३२६॥
सर्वतोऽपि सुदुःप्रेच्यां नरेन्द्राणामपि स्वयं । दृष्टि दृष्टिविपस्येव घिधिक लक्ष्मी भयावहाम् ॥३२७॥ अर्थ - जिस प्रकार दृष्टिविष सर्प की दृष्टि विषवैद्यों के लिए भी सब और से स्वयं अत्यन्त दुःख से देखने योग्य तथा भय उत्पन्न करने वाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी राजाओं के लिए भी सब और से अत्यन्त दुःख से देखने योग्य तथा भय उत्पन्न करने वाली है इसलिए इसे धिक्कार हो ॥३२॥ मूलमध्यान्तदुःस्पर्शा सर्वदाग्निशिखामिव । भास्वरामपि विग्लक्ष्मी सर्वसन्तापकारिणीम् ॥२२॥ अर्थ:- जिस प्रकार अग्नि की शिखा सदा मूल मध्य और अन्त मे दुःख कर स्पर्श से सहित है तथा देदीप्यमान होकर भी सबको सन्ताप करने वाली है। उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी श्रादि मध्य और अन्त में दुःरखकर स्पर्श से सहित है सब दशाओं मे दुःख देने वाली है तथा देदीप्यमान तेज से युक्त होने पर भी सबको सन्ताप उत्पन्न करने वाली है आकुलता की जननी है इसलिए इसे धिकार हो ॥३२८।।