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सुभाषितमञ्जरी सज्जनप्रशंसा सज्जन विरले है
मालिनी छन्दः मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवनमुपकारणिभिः प्रीणयन्तः । परगुणपरमारणून् पर्वतीकुत्य नित्यं निजहादि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥३४३॥
अर्था:- जो मन वचन और काय मे पुण्यरूपी अमृत से परिपूर्ण है, जो उपकारों की परम्परा से तीनों लोकों को संतुष्ट करते है, और जो दूसरों के परमाणु तुल्य अल्पगुणों को पर्वत जैसा बडा बना कर निरन्तर अपने हृदय मे विकसित करते हैं ऐसे सज्जन पुरुष कितने है ? अर्थात् अत्यन्त विरले है ॥३४३॥
सज्जन पुण्यकार्यों से कभी तृप्त नहीं होते सुकृताय न तृप्यन्ति सन्तः सन्ततमप्यहो । विस्मर्तध्या न धर्मस्य समुपास्तिः कुतःक्वचित् ॥३४४॥ व:- आश्चर्य है कि सज्जन पुण्य कार्य के लिये कभी