Book Title: Subhashit Manjari Purvarddh
Author(s): Ajitsagarsuri, Pannalal Jain
Publisher: Shantilal Jain

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Page 171
________________ m सुभाषितमञ्जरो सज्जन का मन कुपित नहीं होता सायोः प्रकोपितस्यापि मनो याति न विक्रियाम् । न हि तापयितु शस्यं सागराम्भस्तणोल्फया ॥३५१॥ अर्थ - क्रोध उपजाये जाने पर भी सज्जन का मन विकार को प्राप्त नहीं होता सो ठीक है क्योंकि तृण की आग से समुद्र का पानी गर्म नहीं किया जा सकता ॥३५१।। सज्जन ही आदरणीय है सज्जनास्तु सतां पूर्व, समाधाः प्रयत्नतः । किं लोके लोष्टवत्प्राप्यं श्लाघ्यं रत्नमयत्नतः ॥३५२॥ अथ - सज्जन पुरुष ही प्रयत्न से, सज्जनों द्वारा आदरणीय है। क्या संसार मे श्लाघ्य रत्न बिना प्रयत्न के, मिट्टी के ढेले के समान प्राप्त हो सकता है ? नहीं हो सकता है। ___ सज्जनों के वचन अमृत तुल्य है जाग्रत्वं सौमनस्यं च, कुर्यात्सद्वागलं पर। अजलाशयसम्भूत- ममृतं हि सतां वचः ॥३५३॥ अर्थ- सज्जनों के वचन शाश्वतिक सावधानता, और मन की पवित्रता को करते हैं, विशेष क्या, सज्जनों के वचन जलाशय से उत्पन्न नही हुए, अमत के समान है ।।३५३।।

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