Book Title: Subhashit Manjari Purvarddh
Author(s): Ajitsagarsuri, Pannalal Jain
Publisher: Shantilal Jain

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Page 177
________________ मुभाषितमञ्जरी १४५ कुलीन मनुप्य नम्रीभूत होते हैं नमन्ति माला वृना नमन्ति कुलना नराः । शुष्ककाष्ठाश्च मूर्खाश्च न नमन्ति कदाचन ।'३६७॥ अर्ज - फलो से युक्त वृक्ष और उचकुल में उत्पन्न हुए मनुष्य नम्र होते है चरखे काष्ठ ओर मूर्ख मनुष्य कभी नम्रीभूत नहीं होते ॥३६७॥ परमार्थ का ज्ञाता कौन? धर्मशास्त्र श्रुतौ शश्यल्लालगं यम्य मानसम् । परमात्र म एवेह सम्यग्जानाति नापरः ॥३६८॥ अर्थ- जिमका मन मदा धर्म शास्त्र के सुनने की लालसा ने युक्त रहता है, वही इस संसार में परमार्थ को अच्छी तरह जानता है दूमग नहीं ॥३६८॥ अन्तरन की बात को विचारने वाले अल्प हैं अन्योक्ति शार्दूलविक्रीडतच्छन्दः भ्रातः काञ्चनलेपगोपितवाहिस्ताम्राकृतिः साम्प्रतं मा भपीः कलश ! स्थिरीभव चिरं देवालयस्योपरि ।

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