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सुभापितमञ्जरी अर्था- श्री अरहन्त भगवान् ने जिसके द्वारा पापरूपी शत्रुओं की सेना को सहज ही जीत लिया था. ऐसा जयनशील जिनेन्द्र प्रणीत रत्नत्रयरूपी अस्त्र हमेशा जयवन्त रहे ।
।४११॥ रत्नत्रय को नमस्कार रत्नत्रयं तज्जननातिमृत्युसर्पत्रयीदर्पहर नमामि । यद्धपणं प्राप्य भन्ति शिष्टा मुक्त विरुपाकृतयोऽप्यभीष्टाः
४१२।। सर्थ:- मै जन्मजरा और मृत्युपी तीन सर्पो के मद को हरने वाले उस रत्नत्रय सम्यग्दर्शन सम्यग्नान और सम्यक चारित्र को नमस्कार करता है। जिसका आभूपण प्राप्त कर साधुजन विरूप आकृति के धारक होकर भी मुक्तिरूपी स्त्री के प्रिय हो जाते है ।।४१२॥
निश्चय रत्नत्रय का स्वरूप
श्रद्धा स्वात्मैव शुद्धः प्रमदव गुरुपादेय इत्यञ्जमा दृक् । तस्यैव स्वानुभूत्या पृथगनुभवन विग्रहादेश्च संवित् ।। तत्रैवात्यन्ततप्तया मनसि लयमितेऽवस्थितिः ग्यस्य चर्या । स्वात्मानं भेदरत्नत्रयपर परमं तन्मयं विद्धि शुद्धम् ॥४१३॥ अर्था.- हे भेद रत्नत्रय मे तत्पर आराधकराज | सद्गुरु ने