Book Title: Subhashit Manjari Purvarddh
Author(s): Ajitsagarsuri, Pannalal Jain
Publisher: Shantilal Jain

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Page 191
________________ सुभापितमञ्जरो १५६ नष्ट करने वाला है, प्रज्ञारूपी लता को उखाडने वाला है, गाम्भीर्य को दूर करने वाला है, अपने शरीर का दमन करने वाला है, नीचत्व को प्राप्त कराने वाला है, समीचीन ध्यान को रोकने वाला है, आत्मधर्म का हरण करने वाला है और पापरूपी प्याऊ को भरने वाला है ऐसे क्लेशभोजी मनुष्यों के इम परस्त्री संवन रूप कष्ट को विकार है ।।४००|| कामाग्नि का सताप वडा प्रक्ल है विनोऽत्रुधरवातः प्लावितोऽप्यम्बुराशिभिः । न हि त्यजति संताप कामवह्निप्रदीपितः ।।४०१॥ अर्थ:- कामाग्नि से संतप्त मनुष्य मेघों के समूह में सींचे जाने पर तथा समुद्रों में डुबोये जाने पर भी मंताप को नहीं छोड़ता है ॥४०॥ चौर्यनिन्दा चौर्य के त्याग की निन्दा सकलविबुधनिन्य दुःखसंतापनीज विषमनरकमार्ग बन्युविच्छेदहेतुम् । मुगतिकरममारं पापवृक्षस्य कन्द न्यज सकलमदत्तं त्वं यदा मुक्तिहेतोः ॥४०२॥

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