Book Title: Subhashit Manjari Purvarddh
Author(s): Ajitsagarsuri, Pannalal Jain
Publisher: Shantilal Jain

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Page 185
________________ सुभापितमञ्जरी १५३ अर्था:- जिनके चित्त उपद्रव के होने पर भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होते वे ही धीर हैं, वे ही पवित्रता से युक्त है, और वैराग्य से उन्नत है ।।३८५॥ ___ संपत्ति और आपत्नि महापुरुषों के ही होती है संपदो महतामेव महतामेव चापदः । वर्धते क्षीयते चन्द्रो न तु तारागणः क्वचित् ।।३८६॥ अथू - महापुरुषों के ही संपदाए होती है और महापुरुषों के ही आपदाएं होती है क्योंकि चन्द्रमा ही बढ़ता है और घटता है ताराओं का समूह कहीं नही बढताघटता है ।३८६। महापुरुषो को विकार नहीं होता है गवादीनां पयोऽन्येद्य : सद्यो वा दधि जायते । क्षीरोदधिस्तु नाद्यापि महतां विकृतिः कुतः ॥३८७॥ अर्थ- गाय आदि का दूध दूसरे दिन अथवा शीघ्र ही दही बन जाता है परन्तु क्षीरसागर आज तक दहीरूप नहीं हो सका सो ठीक है क्याकि महापुरुषों के विकार कैसे हो सकता है ? ॥३८॥ उत्तम पुरुषों की प्रकृति में विकार नहीं होता मन्दाक्रान्ता दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तवर्ण घृष्टं धृष्टं पुनरपि पुनश्चन्दनं चारुगन्धम् ।

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