Book Title: Subhashit Manjari Purvarddh
Author(s): Ajitsagarsuri, Pannalal Jain
Publisher: Shantilal Jain

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Page 186
________________ १५४ सुभाषितमञ्जरी छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादुदं चेक्षुदण्ड प्राणान्तेऽपि प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमानाम् ।।३८८।। अर्था.सुवर्ण वार वार जलाये जाने पर भी सुन्दर वर्ण का धारक होता है, चन्दन वार वार घिसे जाने पर भी सुन्दर गन्ध से युक्त होता है और ईख बार वार काटे जाने पर भी मधुर स्वाद को देने वाला होता है सो ठीक ही है क्योंकि प्राणान्त होने पर भी उत्तम मनुष्यों की प्रकृतिस्वभाव मे विकार नहीं होता ॥३८८॥ महापुरुषों का सब अनुसरण करते है मत्तवारणसंचण्णे व्रजन्ति हरिणाः पथि। प्रविशन्ति भटा युद्ध महाभटपुरस्सराः ।।३८६॥ भास्वताभासितानर्थान् सुखेनालोकते जनः । सूचीमुखविनिर्भिन्नं मणिं विशति सूत्रकम् ।।३६०।। अर्था:- मत्त हाथी के द्वारा चले हुए मार्ग मे हरिण चलते हैं, महायोद्धा को आगे कर साधारण योद्धा युद्ध मे प्रवेश करते है सूर्य के द्वारा प्रकाशित पदार्थों को लोग अच्छी तरह देखते है और सूई के अप्रभाग से भिन्न मणि मे सूत्र प्रवेश करता है ।।३८६-३६०॥

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