Book Title: Subhashit Manjari Purvarddh
Author(s): Ajitsagarsuri, Pannalal Jain
Publisher: Shantilal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 178
________________ १४६ सुभाषितमञ्जरी ताम्रत्वं गतमे काञ्चनमयी कीर्तिः स्थिरा तेऽधुना नान्तः केऽपि विचारयन्ति नियतं लोका वहिवु द्धयः ।३६६। अर्थ- सुवर्ण के लेप से जिसकी तामे की बाह्य श्राकृति छिप गई है, ऐसे हे भाई कलश | इस समय तू डर मत, मन्दिर के ऊपर चिर काल के लिये स्थिर हो जा, तेरा ताम का रूप चला गया है अब तो तेरी सुवर्णमय कीर्ति स्थिर हो गई क्योंकि अन्तरङ्ग की बात का कोई विचार नहीं करते, सचमुच ही लोग बहिर्बुद्धि है-केवल बाह्य रूप को देखते हैं। सज्जन का हृदय कैसा होता है ? कोमलं हृदयं नूनं साधूनां नवनीतवत् । परसन्तापसन्तप्तं परसोख्यसुखावहम् ॥३७ ।। अ - सज्जनों का हृदय सचमुच ही मक्खन के समान कोमल होता है, इसीलिये तो वह दूसरों के संताप से संतप्त होता है और दूसरों के सुख से सुखी रहता है ॥३७०॥ सज्जन और दुर्जन की मित्रता कैसी होती है ? इक्षोरग्रे क्रमशः पर्वणि पोणि- यथा रसविशेषः । तद्वत्सज्जनमैत्री विपरीतानां तु विपरीता ॥३७१॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201