Book Title: Subhashit Manjari Purvarddh
Author(s): Ajitsagarsuri, Pannalal Jain
Publisher: Shantilal Jain

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Page 169
________________ सुभाषितमञ्जरी १३७ संतुष्ट नहीं होते अर्थात् पुण्य कार्य करने की उनकी सदा इच्छा बनी रहती है। किसी कारण से कहीं भी धर्म की उपासना न भुलना चाहिये ॥३४४॥ गुरु औरदे व की उपासना सदा करना चाहिये आजन्मगुरुदेवानां माननं युज्यते सताम् । रोगादिभिः पुनस्तस्य क्षति नैंव विदोपकृत् ॥३४५।। अर्था - सज्जनों को निम्रन्थ गुरु और वीतरागदेव की उपासना जन्म पर्यन्त करना चाहिये। रोगादि के कारण यदि कभी वाधा पडती है तो वह दोषोत्पादक नहीं है ॥३४॥ सज्जन कभी वैर को प्राप्त नहीं होते सुजनो न याति वैरं परहितनिरतो विनाशकालेऽपि । छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरमयति मुखं कुठारस्य ॥३४६।। अर्थ - दूसरे के हित करने मे तत्पर सज्जन, 'विनाशकाल मे भी वैर को प्राप्त नहीं होता सो ठीक है क्योंकि चन्दन का वृक्ष कटते समय भी कुल्हाडे के मुख को सुगन्धित कर देता है। धरोहर किसके पास रखी जाती है ? धर्मज्ञे कुलजे सत्ये सुन्याये व्रतशालिनि । सदाचाररतेऽक्रोधे शुद्ध बहुकुटुम्बिनि ॥३४७॥

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