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सुभाषितमञ्जरी पुरुपे क्षिप्यते वस्तु धनं भूपादि गजतम् । हेमवाश्वगजादि ; न चेन्नश्यत्यसंशयम् । ३४८॥ अर्थ - धर्म के ज्ञाता, कुलीन, सत्यव्यवहारी, न्यायवान् , व्रतों से सुशोभित, सदाचार मे तत्पर, क्रोध रहित, शुद्ध, और बहुकुटुम्बी मनुष्य के पास ही धन, आभूपणादि, चांदी, सोना, घोडा तथा हाथी आदि वस्तुएं धरोहर रूप में रखी जाती है, अन्यथा वे निःसन्देह नष्ट हो जाती है ।३४७-३४८।
सत्पुरुष ही पुरुष है बदिता योऽथवा श्रोता श्रेयसां बचमां नरः । पुमान् स एव शेषस्तु शिल्पिकल्पितकाधिवत् ॥३४६॥ अर्थ:- जो कल्याणकारी वचनों को कहता है तथा सुनता है, वही पुरुष है, बाकी शिल्पकार के द्वारा निर्मित पुतले के समान है ॥३४६॥
सज्जन परकल्याण मे संतुष्ट रहते है तुष्यन्ति भोजने विधा मयूरा धनगर्जिते । महान्तः परकल्याणे नीचाः परविपत्तिषु ॥३५०॥ अर्था - ब्राह्मण भोजन मे संतुष्ट होते है, मयूर मेघ गर्जना मे संतुष्ट होते हैं, महापुरुष दूसरों की भलाई मे संतुष्ट होते है और नीच पुरुष दूसरोकी विपत्तिमे संतुष्ट होते है ।३५०/