________________
४५
सुभाषितमञ्जरी को सफल मानता हूँ।
सम्यग्दर्शन के धारक जीव ही धन्य हैं धन्यास्त एव संसारे बुधैः पूज्याः सुरैः स्तुताः । दृष्टिरत्नं न यौतं कदाचिन्मज सन्निधौ ॥१०६॥ अर्था:- ससार मे वे ही धन्य हैं, वे ही विद्वानो के द्वारा पूज्य है और वे ही देवो के द्वारा स्तुत्य हैं जिन्होने सम्यग्दर्शन स्पी रत्न को कभी मलिन नही होने दिया ।।१०६॥
सम्यग्दर्शन को कभी मलिन नही करना चाहिये मत्वेति दर्शनं जातु स्वप्नेऽपि मलसन्निविम् । निर्मलं मुक्ति सोपानं न नेतव्यं शिनार्थिभिः ॥१०७॥ अर्थ - यह जानकर मोक्ष के अभिलाषी पुरुषो को मुक्ति की सीढो स्वरूप निर्मल सम्यग्दर्शन को कभी स्वप्न मे भी मल के समीप नही ले जाना चाहिये ॥१०७॥
मलिन सम्यग्दर्शन से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती मलिने दर्पणे यद्ववप्रतिविम्बं न दृश्यते । सदोपे दर्शने तद्वन्मुक्तिस्त्रीवदनाम्बुजम् ॥१०८।।
अर्था- जिस प्रकार मलिन दर्पण मे प्रतिविम्ब नहीं दिखाई देता उसी प्रकार मलिन सम्यग्दर्शन मे मुक्ति रूपी स्त्री का मुख कमल नही दिखाई देता ॥१०॥