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सुभाषितमञ्जरी विना वैराग्य के दीक्षा का लेना निरर्थक है विरक्तत्वमनासाद्य दीक्षादानं करोति यः। तस्य जन्म वृथैव स्यादजाकएठे स्तनाविव ||३१०॥ अर्थ:- जो मनुष्य विरक्तता को प्राप्त किये विना दीक्षा ग्रहण करता है उसका जन्म बकरी के गले में स्थित स्तनों के समान निरर्थक है ॥३१०॥
यौवन के समय तप करना चाहिये यौवने कुरु भो मित्र ! तपो दुश्वरमञ्जसा । जिनदीक्षां समादाय, मुक्तिस्त्रीचित्तरञ्जिकाम् ॥३११॥ अः हे मित्र । मुक्तिरूपी स्त्री के चित्त को अनुरक्त करने वाली जिन दीक्षा लेकर यौवन के समय दुश्वर वास्तविक तप करो ॥३११॥
तप करने में समर्थ देह, देह है । मन्ये देहं तमेवाहं यश्चारित्रतपाक्षमः । परीषहसहे धीरं मतः पापकरः परः ॥३१२।। अर्थ--- मैं उसी शरीर को शरीर मानता हू जो चारित्र और तप के धारण मे समर्थ है तथा परीषहों के सहने में धीर है, अन्य शरीर पाप को करने वाला है ।।३१२॥