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सुभाषितमञ्जरा १३१ रात्रि भोजन निन्दा
रात्रि भोजन करने वाला कैस्ग होता' विरूपो विकलाङ्गःस्याइल्पायू रोगपीडितः । दुभंगो दुःकुलश्चैव नक्तंभोजी सदा नरः ॥३२६ ।। अर्थ -रात्रि भोजन करने वाला मनुष्य सदा विरूप, विकलाङ्ग, अल्पायु, रोगी, अभागा और नीचकुली होता है।
रात्रि मे भोजन करना योग्य नहीं है भानो; करैरसंस्पृष्ट मुच्छिष्टं प्रेतसंचरात् सूक्ष्मजीवाकुलं वापि निशि भोज्यं न युज्यते ॥३३०॥ म - रात्रि मे भोजन सूर्य की किरणों से अछूता, प्रेतों के सचार से जूठा और सूक्ष्म जीवों से युक्त होता है अतः करने योग्य नहीं है ॥३३०॥
रात्रि भोजी पशु तुल्य है विरोचनेऽस्तसंसर्ग गते ये मुज्जते जनाः । ते मानुषतया बद्धाः पशवो गदिता वुधैः ३३१॥ अर्श - सूर्य के अस्त हो जाने पर जो मनुष्य भोजन करते हैं वे विद्वानों द्वारा मनुष्य पर्याय से युक्त पशु कहे गये हैं।