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सुभाषितमञ्जरो
दीक्षा की प्रार्थना प्रसीद वरद स्वात्मदीक्षया करुणाम्बुधे। मोहं महारिपु जेतुमिच्छामि त्वत्प्रसादतः ॥३०४॥ अर्था:- है, वरद । हे दयासागर ! प्रसन्न होना, आपके प्रसाद से मै जिन दीक्षा धारण कर मोह रूपी महा-शत्रु को जीतना चाहता हू ॥३०४॥
अहो मया प्रमत्तेन विषयान्धेन नेक्षिताः । कष्टं शरीरसंसारभोगनिस्मारता चिरम् ||३०५॥ अर्थ:- क्योंकि मुझ प्रमादी ने विषयों में अन्धा होकर इतने दिन तक शरीर संसार और भोगोंकी असारता नहीं देखी , यह बड़े खेद की बात है ।।३०५॥
___ दीक्षा किन्हें देना चाहिये ? विप्राः क्षत्रिया वेश्या ये सम्यक्त्वविभूषिताः । तेषां दीक्षा विदातव्या भिक्षा तत्रैव नान्यथा । ३०६॥ अर्था - जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सम्यग्दर्शन से विभूषित है उन्हे ही दीक्षा देना चाहिये तथा वे ही भिक्षा के पात्र हैं, अन्य नहीं ॥३०६॥