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सुभाषितमञ्जगे १२३
विरक्त मनुष्य की प्रार्थना भगवस्त्वत्प्रसादेन संप्राप्य जिनदीक्षणम् । तपोविधातुमिच्छामि निर्विएणो गृहवासतः ।।३०७१ अर्थ.- हे भगवन् । मैं गृहवास से उदास हो चुका हूं, अव आपके प्रसाद से जिन दीक्षा प्राप्त कर तप करना चाहता हूं।
दीक्षा योग्य मनुष्य कौन है ? शान्तो दान्तो दयायुक्तो मदमायाविवर्जितः । शास्त्ररागी कपायन्धो दीनायोग्यो भवेन्नरः ॥३०॥ अर्थ - जो शान्त हो, जितेन्द्रिय हो, दयालु हो, मद और माया ने रहित हो, शास्त्रो का अनुरागी हो और कषाय को नष्ट करने वाला हो। वह मनुष्य दीक्षा के योग्य हो सकता है ॥३०८।।
रागी और वीतराग की विशेषता चक्रवादिमल्लक्ष्मी वीतरागो विहाय । जिनदीक्षा समादत्ते, तृणं रागी न मुञ्चति ॥३०॥ अर्थ - वीतराग मनुष्य चक्रवर्ती आदि की प्रशस्त लक्ष्मी को छोड़कर जिनदीक्षा धारण कर लेता है और रागी मनुष्य तृण भी नहीं छोडता ॥३०॥