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सुभाषितमञ्जरी धीर मनुष्य तपोवन मे प्रवेश करते हैं अन्वयवतमस्माक मिदं यत्सूनवे श्रियम् । दचा संवेगिनो धीराः प्रविशन्ति तपोवनम् ॥३१६॥ अर्थ:- यह हमारा वंश परम्परा से चला आया व्रत है कि पुत्र के लिये लक्ष्मी देकर संसार से भयभीत धीर मनुष्य तपोवन मे प्रवेश करते हैं ॥३१६॥
भाग्यवान् कौन है ? भाग्यवन्तो महासचास्ते नराः श्लाघ्यचेष्टिताः । कपिभ्र भङ्ग रां लक्ष्मी ये तिरस्कृत्य दीक्षिताः ॥३१७।। मर्थ- महा शक्तिशाली तथा प्रशंसनीय चेष्टा से युक्त वे ही मनुष्य भाग्यवान हैं जो वानर की मोह के समान चञ्चल लक्ष्मी को तिरस्कृत कर दीक्षित हुए हैं ॥३१७}}
___ तपस्वियों के तप का फल लौकान्तिकपदं सारं गणेशादिपदं परम् । तपाफलेन जायेत तपस्विनां जगन्नुतम् ॥३१८॥ अर्थ- तपस्वियों को तप के फलस्वरूप जगत् के द्वारा स्तुत लौकान्तिक देवों का तथा गणधरादिकों का श्रेष्ठ परम पर प्राप्त होता है ।।३१।।