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सुभाषितमञ्जरी
अर्थ्य - निर्मल चित्त को धारण करने वाले जिस मनुष्य का ऐसा ध्यान प्रतिदिन रहता है, उससे डर कर ही मानों कर्म उसकी संगति नहीं करते ॥ ३२९ ॥
तप ही मुक्ति का कारण है
गता यान्ति च यास्यन्ति मुक्तिं येऽत्र मुमुक्षवः । कर्मान् केवलं हत्वा तपोभिस्ते न चान्यथा ॥ ३२२॥
अर्थः- इस संसार में जो मोक्षाभिलापी जन मोक्ष को गये है, जा रहे है, और जावेगे, वे सिर्फ तप के द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करके गये हैं, जा रहे है, और ज.वेगे अन्य प्रकार से नहीं || ३२२||
राज्यलक्ष्मी से विरक्त पुरुषों के विचार
.या राज्यलक्ष्मी बहुदुःखमाभ्या दुःखेनपाल्या चपलादुन्ता । नष्टापि दुःखानि चिरायते तस्यां कदा वा सुखलेशलेशः
अर्थ - जो राज्यलक्ष्मी बहुत दुःख से प्राप्त होती है, कठिनाई से जिसकी रक्षा होती है जो चपल है, जिसका अन्त दुखदाई है और जो नष्ट होकर भी चिरकाल तक दुःख उत्पन्न करती हैं, उस राज्यलक्ष्मी मे सुख का लेश कब हो सकता है ? अर्थात कभी नहीं हो सकता || ३२३||