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सुभापितमञ्जरी
शक्ति को न छिपा कर तप करना चाहिये अनाच्छाद्य स्वसामर्थ्य द्विषड्भेदं तपोऽनघम् । दुष्कर्मारण्यदावाग्नि विदध्यात्प्रत्यहं यतिः ॥२६८|| अर्थ-मुनि को चाहिये कि वह अपनी सामथ्र्य को न छिपा कर दुष्कर्मरूपी अटवी को जलाने के लिये दावानलस्वरूप बारह प्रकार का निर्दोष तप प्रतिदिन करे ।।२६८)
समर्थ युवापुरुष को तप अवश्य करना चाहिय ध्यानानुष्ठानशतात्मा युवा यो न तपस्यति । स जराजर्जरोऽन्येपां तपोविनकरः परम् । २६8 ।। अर्था - ध्यान की सामर्थ्य से युक्त होकर भी जो तरुण पुरुष तपश्चरण नहीं करता है वह अन्त मे वृद्धावस्था से जर्जर शरीर होकर दूसरों के तप मे अधिक विध्न करने वाला होता है ।।२६६॥
तप मुक्ति का पाथेय है नपो मुक्तिपुरीं गन्तु पाथेयं स्याद्धि पुष्कलम् । मुक्तिरामां वशीकतु तपो मन्त्रोऽङ्गिनां मतः ॥३००। अर्थ - तप, मुक्तिरूपी नगरी को जाने के लिये पर्याप्त सम्बल है और मुक्तिरूपी स्त्री को वश करने के लिये प्राणियों का वशीकरण मन्त्र है ॥३००।