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सुभाषितमञ्जरो
११६ तप की ताड़ना मोक्ष सुख को देती है तपोभिस्ताडिता एव जीवाः शिवसुखस्पृशः । तन्दुला खलु मिद्धयन्ति मुसलैस्ताडिता भृशम् ॥२६॥ अर्था - जीव तपों से ताडित होकर ही मोक्ष सुख का स्पर्श कर पाते है क्योंकि मूसलों से ताडित चांवल अच्छी तरह सीझते है ॥६६॥
तप निःस्पृह होकर करना चाहिये पूजालाभप्रसिद्धयर्थं यत्तपस्तप्यते नृभिः । शोष एव शरीरस्य न तस्य तपसः फलम् ।।२६६।। अर्था:- जो तप पूजा और लाभ की सिद्वि के लिये मनुष्यों के द्वारा तपा जाता है उससे शरीर का शोषण ही होता है, उस तप का फल नहीं होता ॥२६॥
तप इन्द्रियों को वश करने वाला है तपः सर्वाक्षसारङ्गवशीकरणवागुरा। कपायतापमृटीका कर्माजीर्णहरीतकी ॥२६७।। अर्थ - तप, समस्त इन्द्रिय रूपी हरिणो को वश करने के लिये जाल है, कषायरूपी गर्मी को शान्त करने के लिये दाख है तथा कर्मरूपी अजीर्ण का शमन करने के लिये हर्ड है ।