________________
सुभाषितमञ्जरी
११७ तपस्वी की शक्ति इन्द्र को दुर्लभ है न सा त्रिदशनाथस्य शक्तिः कान्ति द्य तपोधनस्य या साधोयथाभिमतकारिणी ॥२६०॥ अर्थ - तपस्वी साधु की यथाभिलषित कार्य को सिद्ध करने वाली जो शक्ति है, कान्ति है, द्य ति है और धति है वह इन्द्र के नहीं होती ॥२०॥
तप से सब वस्तुएं सुलभ है तपसालंकृतो जीवो यद् यद् वस्तु समीहते । तत्तदेव समायाति, भुवनत्रितये ध्र वम् ।।२६१ ॥ सुर्था - तप से सुशोभित जीव जिस-जिस वस्तु की चाह करता है, तीनों लोकों में नियम से वह उसी-उसी वस्तु को प्राप्त होता है ॥२६१॥ तपरूपी वृक्ष मोक्षरूपी फल को देने वाला है
सग्धराछन्दः मन्तोपस्थूलमूलः प्रशमपरिकरस्कन्धवन्धप्रपञ्चः पञ्चाक्षीरोधशाखः स्फुरतशमदलः शीलसंपत्प्रवालः । श्रद्धाम्भःपूरसेकाद्विपुलवलयुतैश्वर्य मौन्दर्य भोगः स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवपदफलदः स्यात्तय पादपोऽयम्