Book Title: Subhashit Manjari Purvarddh
Author(s): Ajitsagarsuri, Pannalal Jain
Publisher: Shantilal Jain

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Page 147
________________ सुभाषितमञ्जरी ११५ निष्णातः पवनं विना निरमितु नान्यो यथाम्भोधरं कौघं तपमा विना किमपरं हन्तु समर्थस्तथा ।।२८।। अर्थ- जिस प्रकार दावानल के विना कोई दूसरा वन को जलाने के लिये समर्थ नहीं है, जिस प्रकार मेघ के विना कोई दूसरा दावानल को बुझाने मे समर्थ नहीं है, और जिस प्रकार पवन के विना कोई दूसरा मेघ को दूर कल्ने मे समर्थ नही है, उसी प्रकार तप के विना कोई दूसरा कर्म समूह को नष्ट करने के लिये समर्थ नहीं है ॥२८॥ ____ तप जयवन्त रहे यस्मात्तीर्थकृतो भवन्ति भुवने भूरिप्रतापाश्रया श्चक्र शा हरयो गणेश्वरवलाः क्षोणीभृतो वव्रिणः । जायन्ते बलशालिनो गतरुजी यस्माच्च पूर्वर्षिभि-- र्यच्च घनकर्मपाशमथनं जीयात्तपस्तच्चिरम् ।।२८६॥ अर्थ:- जिस तप से मनुष्य संसार मे तीर्थकर होते है, बहुत भारी प्रताप के आधारभूत चक्रवर्ती होते हैं, नारायण होते हैं, जननायक बलभद्र होते है, राजा होते हैं, इन्द्र होते हैं, बलिष्ठ होते है, निरोग होते है और पूर्व ऋषि जिस तप को करते थे ऐसा तीव्र कर्मरूप पाश को नष्ट करने वाला वह तप चिरकाल तक जयवन्त रहे ।।२८६॥

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