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सुभाषितमञ्जरी मा :- संतोष ही जिसकी बडी मोटी जड है, शान्ति का परिकर ही जिसकी पींड है, पञ्चेन्द्रियों का दमन ही जिसकी शाखाएं है, प्रकट हुआ शमभाव ही जिसके पत्ते है, शीलरूप संपत्ति ही जिसकी नई कोंपल है, श्रद्धारूपी जल के सींचने से जिसके प्रबल ऐश्वर्य और सौन्दर्यरूपी भोग विस्तार को प्राप्त हुए है, रवर्गादि की प्राप्ति ही जिसके फूल है तथा जो मोक्षरूपी फल को देने वाला है ऐसा यह तप रूपी वृक्ष है ॥२२॥
___ तप से सब कुछ प्राप्त होता है यद् दूरं यच्च दुःसाध्यं यचन लोकत्रये स्थितम् । अनय वस्तु तत्सर्व प्राप्यते तपमाऽचिरात् । २६३॥ अर्था - जो वस्तु दूर है, दुःख से प्राप्त होने योग्य है, तीन लोकों मे कही स्थित है, और अमूल्य है वह सब तप के द्वारा शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है ।।२६३।। विशिष्टमिष्टं घटयत्युदारं, दूरस्थितं वस्त्वतिदुलभ च । जैनं तपः किंबहुनोदितेन, स्वश्रियं चाक्षयमोक्षलक्ष्मीम् अर्थ:- जो वस्तु अत्यन्त इष्ट है, महान् है, दूरस्थित है और अत्यन्त दुर्लभ है उसे भी जैन तप प्राप्त करा देना है । अथवा बहुत कहने से क्या ? जैन तप स्वर्ग की लक्ष्मी तथा अविनाशी मोक्ष लक्ष्मी को भी प्राप्त करा देता है ॥२६४॥