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सुभाषितमञ्जरो
के समान हैं, संसार शल्य सहित है, शरीर नरक का घर है, संसार कुगति को देने वाला है और कुटुम्ब चञ्चल है ऐसा जान कर हे विद्वानो । कल्याण की प्राप्ति के लिये निरन्तर यत्न करो ||२७||
कल्याण की प्राप्ति के लिये क्या करना चाहिये ? त्यज दुर्जनसंसर्ग भज माधुममागमम् ।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताम् ॥ २५८ ॥
अर्थ- दुर्जन की संगति छोडो, सज्जन की संगति करो,
रात-दिन पुण्य करो और निरन्तर अनित्यता का स्मरण करो । तपोवन की महिमा
तपोवनं महादुःखसंसारक्षयकारणम् ।
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प्रच्छया न से किञ्चित्कार्य माशु विशाम्यहम् ॥ २५६ ।। अ.- तपोवन महादुःखों से युक्त संसार के क्षय का कारण हैं, मुझे किसी से पूछने से क्या प्रयोजन है मै तो शीघ्र ही इसमे प्रवेश करता हूं विरागी मनुष्य ऐसा विचार करता है । कैसा विचार निरन्तर करना चाहिये ?
aise hieraणः क्वत्यः किं प्राप्य किंनिमित्तकः । इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने हि मतिर्भवेत् ॥२६॥ अर्थ- मैं कौन हूँ? मै किस प्रकार के गुणों से सहित हूं, मैं कहां उत्पन्न हुआ हू. मुझे क्या प्राप्त करना है और मेरा क्या निमित्त है ऐसा विचार यदि प्रतिदिन नहीं किया जाता है तो नियम से बुद्धि खोटे स्थान में चली जाती है ॥२६० ॥