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सुभाषितमञ्जरी
भोग तृप्ति के कारण नहीं हैं सुचिरं देवभोगेऽपि यो न तृप्तो हताशकः । स कथं तृप्तिमागच्छेन्मनुष्य भवभोगकैः ।।२७७॥ अर्थ:- जो जीव चिरकाल तक देवों के भोग, भोग कर भी तृप्त नहीं हुआ वह तृष्णालु, मनुष्यभव के स्वल्प भोगों से कैसे तृप्ति को प्राप्त होगा? ॥२७७॥
कषांयरूपी विष संयम को निःसार कर देता है संयमोत्तमपीयूषं सर्वाभिमतसिद्धिदम् ।। कषायविषसेकोऽयं निःसारीकुरुते क्षणात् ॥२७८॥ अर्था - यह कषायरूपी विष का सींचना, समस्त इष्ट सिद्धियों को देने वाले संयमरूपी उत्तम अमृत को क्षणभर मे निःसार कर देता हैं ॥२७॥
परम पद को कौन प्राप्त होते हैं ? संसारध्वंसिनी चयाँ ये कुर्वन्ति सदा नराः। रागद्वषहतिं कृत्वा ते यान्ति परमं पदम् ।।२७६ । अर्थ- जो मनुष्य सदा संसार को नष्ट करने वाली मुनि वृत्ति को करते है वे राग द्वेष का विघात कर परम पद को प्राप्त होते हैं ॥२७॥