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सुभाषितमञ्जरी अहो पश्यत् पश्यत् स्वजनमखिलं यान्तमनिशं हतबीडं चेतस्तदपि न भवेत्सङ्गरहितम् ॥२७२। अर्था.- हम लोगों ने जिसे देखा था वह स्वान के समान क्षणिक हो गया। ऐसे कितने ही पदार्थ हैं जो हमारी स्मृति से भी ओझल हो गये है, और यह चित्त अपने समस्त आत्मीयजनों को निरन्तर जाता हुआ देख रहा है, फिर भी आश्चर्य है कि यह निर्लज्ज, परिग्रह से रहित नहीं होतादैगम्बरी दीक्षा धारण नहीं करता ॥२७२॥
निर्लज्ज मन विषयों की चाह करता है वपुः कुब्जीभूतं गतिरपि तथा यष्टिशरण। विशीर्णा दन्ताली श्रवणविकलं श्रोत्रयुगलम् । शिर शुक्लं चक्षुस्तिमिरपटलेरावृतमहो मनस्ते निर्लज्ज तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति ॥२७३।।
अर्थ- शरीर टेडा हो गया है, गति लाठी के सहारे हो गई है, दन्तपडिक्त विखर गई है, कर्णयुगल श्रवण शक्ति से रहित हो गये हैं, सिर सफेद हो गया है, और नेत्र अन्धकार के पटल से घिर गये हैं, फिर भी मेरा मन विषयों की चाह करता है ॥२७३।।