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सुभाषितमञ्जरी
१११ गृहस्थाश्रम में मतिमान् प्रीति नहीं करते कारागारनिभे घोरे चिन्तादुःखादिसंकुले । सर्वपायाकरीभूते धर्मविध्वंमकारणे ॥२७४॥ कामक्रोधमहामोह-रागाबन्धौ गृहाश्रमे । मतिमान को रतिं धत्ते ह्यनन्तभयदायिनि ॥२७॥
अर्था.- जो वन्दीगृह के समान है, भयंकर है, चिन्ता तथा दुःख आदि से व्याप्त है, सब पापों की खान है, धर्मनाश का कारण है, काम क्रोध महामिथ्यात्व तथा राग श्रादि का कूप है, और अनन्तभवों को देने वाला है, ऐसे गृहस्थाश्रम मे कौन बुद्धिमान् प्रीति करता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥२७४॥
स्थायी विराग के रहते, परम पद दुर्लभ नहीं है श्मसानेषु पुराणेषु भोगान्तेषु च या मतिः । सा मतिः सर्वदा काले न दूरं परमं पदम् ।।२७६॥ अर्थ-श्मशान भूमि मे, शास्त्र पठन कालमें तथा संभोग के अन्त मे जो विरागपूर्ण बुद्धि होती है वह यदि सदा बनी रहे तो परम पद निर्वाणधाम दूर नहीं है ॥२७६॥