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सुभाषितमञ्जरी
१०५ वार वार क्या विचार करना चाहिये ? कः कालः कानि मित्राणि को देशः को व्ययागमौ । कश्चाहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्म हु ॥२६१।। अर्था - कौन समय है ? कौन मित्र है ? कौन देश है ? कौन खर्च और आय है ? कौन मै हूं ? और कौन मेरी शक्ति है इस तरह वार वार विचार करना चाहिये ।।२६१॥
· विचारवान् को गर्व नहीं होता कास्था सानि सुन्दरेऽपि परितो दंदह्यमानेऽग्निभिः कायादौ तु जरादिभिः प्रतिदिनं गच्छत्यवस्थान्तरम् । इत्यालोचयतो हदि प्रशमिनो भास्वद्विवेकोज्ज्वले गर्वस्यावसारः कुतोऽत्र घटते भावेषु सर्वेष्वपि ॥२६२॥ अर्था-जिस प्रकार अग्नि द्वारा चारों ओर से जलते हुए सुन्दर से सुन्दर महल मे कोई आदर नहीं होता उसी प्रकार बुढ़ापा आदि के द्वारा प्रतिदिन भिन्न २ अवस्था को प्राप्त होते हुए शरीर आदि मे क्या श्रादर करना है . . ' इस प्रकार का विचार करने वाले प्रशान्त मनुष्य के देदीप्यमान विवेक से उज्ज्वल हृदय मे समस्त पदार्थ विषयक गर्व का अवसर कैसे आ सकता है ? ॥२६२॥