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सुभाषितमञ्जरो
तृष्णा निन्दा
लोभी को सुग्व नही होता न सुखं धनलुब्धस्य न धर्मो दुष्टचेतसः । न चार्थो भाग्यहीनम्य ह्योषधं न गतायुपः ।।१५६ ।। अर्थ धन के लोभी को सुखनही होता, दुष्ट चित्त वाले मनुष्यो से धर्म नही होता, भाग्यहीन को धन नहीं मिलता और जिसकी आयु समाप्त हो जाती है उसे औषधि नही लगती।
___ आशा को नष्ट करने वाले ही धन्य है धन्यास्त एव यैराशागक्षसी प्रहता भुवि । सन्तोषयष्टिमुष्ट्याद्यः सुखिनो जगदर्चिताः ।।१६०॥ अर्था - जिन्होने इस पृथ्वी पर सतोषरूपी लाठी तथा मुक्के आदि के द्वारा आशारूपी राक्षसी को नष्ट कर दिया है वे ही धन्य है, वे ही सुखी है तथा वे ही जगत् के द्वारा पूज्य हैं ।
तृष्णा एक लता है यस्या बीजमहंकृतिगुरुतरा मूलं ममेति ग्रहो। नित्यत्वस्मृतिरङ्करः सुतसुहज्जात्यादयः पल्लवाः ।