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सुभापितमञ्जरी दानहीन मनुष्य की सपत्तिया निरर्थक है यस्य दानहीनस्य धनान्यायान्ति यान्ति किम् । अरण्यकुसुमानीव निरास्तभ्य संपदः ॥२०५॥ अर्था- दानहीन मनुष्य के धन प्राते है और जाते है इससे क्या ? उसकी सपदाए जङ्गल के फूलो के समान निरर्थक है ।
पात्रदान ही सफल होता है पात्रे दत्तं भवेत्सर्व पुण्याय गृहगेधिनाम् । शुक्तावेव हि मेघानां जलं मुस्ताफलं भवेत् ।।२०६॥ अर्था - पात्र के लिये दिया हुआ सब दान गृहरथो के पुण्य का कारण होता है क्योकि सीप मे पडा हुवा ही मेघो का जल मुक्ताफल होता है ॥२०६।।
दाता और पूजक का भाव कैसा होना चाहिये ? श्रद्धादिकगुणसम्पूर्णः कषायपरिवर्जितः । दातृपूजकयो वश्चान्योन्यश्रीतिसंयुतः ॥२०७।। अर्था - दान देने वाले और पूजा करने वाले मनुष्य का भाव श्रद्धादिगुणो से परिपूर्ण, कषाय से रहित, होना चाहिए तथा दाता और पात्र एव पूजक और पूज्य इन दोनो की परस्पर की प्रीति से सहित होना चाहिये ॥२०७।।