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मुभाषितमञ्जरी
चुलकै मीयते तेन पयो नूनं पयोनिधेः ॥ २२५ ॥
अथ - इम लोक मे जिसके द्वारा श्रौषधदान देने वाले का फल कहा जाता है उसके द्वारा मानो निश्चय से समुद्र के जल को चुल्लियो मे भर भर कर नापा जाता है ॥२२५॥
औषधदान देने वाले का फल कौन कह सकता है ? रक्ष्यते व्रतिनां येन शरीरं धर्ममाधनम् । पार्यते न फलं वक्तु तस्य भैषज्यदायिनः ॥ २२६ ॥
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अर्थ- जिसके द्वारा व्रतियों के धर्मसाधन कराने वाले शरीर की रक्षा की जाती है उस प्रोषधदान देने वाले का फल कहने मे नहा प्राता ॥२२६॥
ोष क्यों दी जाती है,
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न देहेन विना धर्मो न धर्मेण विना सुखम् ।
यतो तो देहरतार्थ भैषज्यं दीयते यतेः || २२७॥
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अर्थ :- क्योकि शरीर के बिना धर्म नही होता और धर्म के विना सुख नही होता, इसलिये शरीर की रक्षा के मर्थ मुनि को औषध दी जाती है ।
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शरीर की रक्षा करना चाहिये
शरीरं संयनाधारो रक्षणीयं तपस्विनाम् ।
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