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सुभाषितमञ्जरी अर्था.- कीर्ति दान के अनुसार फैलती है, लक्ष्मी पुण्य के अनुसार बढ़ती है, विद्या अभ्यास के अनुसार प्राप्त होती है और बुद्धि कर्म के अनुसार मिलती है ।।२४६॥
दानी किसे प्रिय नहीं होता ? दानामृतं यस्य करारविन्दे वाक्यामृतं यस्य मुखारविन्दे । दयामृतं यस्य मनोऽरविन्दे स वल्लभः कस्य नरस्य न स्यात् अर्थः- दानरूपी अमृत जिसके हस्त कमल मे है, वचनरूपी अमृत जिसके मुख कमल में है और दयारूपी अमत जिसके हृदयकमल मे है वह किस मनुष्य को प्रिय नहीं होता? अर्थात् सभी को प्रिय होता है।
दान से ही पूजा होती है त्याग एव गुणःश्लाध्यः किमन्यैगुणगशिभिः । . त्यागाज्जगति पूज्यन्ते पशुपाषाणपादपाः ॥२४७॥ अर्था- दान ही प्रशंसनीय गुण है, अन्य गुणों के समूह से क्या प्रयोजन है ? संसार में दान से ही पशु, पाषाण और वृक्ष पूजे जाते हैं ॥२४॥
दान के भेद अभयाहारभैषज्यश्रुतभेदाच्चतुर्विधम् । दानं मनीषिभिः प्रोक्तं शक्तिभक्तिसमाश्रयम् । २४८॥