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सुभाषितमञ्जरी
५४ मर्श - क्रोधादि कर्मों से कदाचित् बन्ध होता है परन्तु परिग्रह से सदा बन्ध होता है अन परिग्रहो मनुष्यो को कही भी कभी भी सिद्धि नही होती ॥१८०।।
घन दुःख का कारण है .. द्रव्यं दुःखेन चायाति स्थितं दुःखेन रक्ष्यते । दुःखशोककरं पापं धिग्द्रव्यां दुखभाजनम् ।।१८१॥ . . . अर्थ धन दु ख से आता है और पाया हुआ दु ख से रक्षित होता है, धन दुखं और शोक को करने वाला है, पापरूप है, तथा दु ख का भाजन है ऐसे धन को धिक्कार है ॥१८१।।
परिग्रही मुनि निन्द्य है
शय्याहेतुतृणादानं मुनीनां निन्दितं बुधैः । . यः स द्रव्यादिकं गृह्णन् किं न निन्यो जिनागमे ॥१२॥
मी:- जब कि विद्वानो ने मुनियों के लिये शय्या के हेतु तृणो का ग्रहण करना भी निन्दनीय बतलाया है तब जो मुनि द्रव्य आदि का ग्रहण करता है वह जिनागर्म मे निन्द-- नीय क्यों नही है ? अवश्य है ।।१८।।