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सुभाषितमञ्जरो
७६ सब लोग धन के पीछे ही पडते हैं मूर्धाभिषिक्ताश्च निजास्त्वनेक मलिम्लुचाद्याश्च बहुप्रकारा। गृद्धाः परेऽप्यर्थवतीय सिहं यत्रामिपं तत्र वकाः पतन्ति।१८५॥ अर्श:- मूर्धाभिषिक्त राजा, निजी कुटुम्ब के लोग, तथा अनेक प्रकार के चोर आदि अन्य पुरुष गीधो के समान धनवान् के ऊपर पडते हैं - उसे घेरे रहते हैं इससे यह बात सिद्ध होती है कि जहा मास होता है वहा बगुले पड़ते हैं ।।१८५॥
धन सतोष का कारण नहीं है परिग्रहग्रहग्रस्तः सर्व गिलितुमिच्छति । घने न तस्य संतोषः मरित्पूर इवार्णवः ॥१८६। अर्थ - परिग्रहरूपी पिशाच से ग्रसा हुआ मनुष्य सबको निगलने की इच्छा करता है। जिस प्रकार नदी के प्रवाह में समुद्र को सतोष नही होता उसी प्रकार परिग्रही मनुष्य को परिग्रह मे सतोष नही होता ॥१८६।।
परिग्रह का त्याग ही पूजा का कारण है परिग्रही न पूज्येत निःपरिग्रहस्तु पूज्यते । तिष्ठन्ति भूभृतां भाले तन्दुलास्तुपवर्जिता' ।। १८७।।