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सुभाषितमञ्जरी
६७ स्कन्धो दारपरिग्रहः परिभवः पुष्पं फलं दुर्गतिः सामे त्वल्ललितांघ्रिणा परशुना तृष्णालता लूयताम्।।१६१॥ अर्थ- बहुत भारी अहकार जिसका बीज है, ममताभाव जिसकी जड है। नित्यपना का स्मरण जिसका अङ्क र है, पुत्र, मित्र तथा कुटुम्ब आदि जिसके पल्लव है, स्त्री जिसका स्कन्ध है, तिरस्कार जिसका पुष्प है और दुर्गति जिसका फल है, ऐसी तृष्णारूपी लता हे भगवन् । आपके सुन्दर चरणरूपी परशु के द्वारा छिन्न भिन्न हो ? ।।१६१।।
आशा एक शृङ्खला है आशा नाम मनुष्याणां काचि दाश्चर्यश्रृङ्खला । यया बद्धाः प्रधावन्ति मुक्तास्ति-ठन्ति पङ्ग वत् ।।१६२।। अर्था:- आशा मनुष्यो के लिये एक विचित्र श्रृङ्खला है जिसके द्वारा बधे हुए मनुष्य दौडते है और जिससे छूटे हुए पड्गु के समान स्थित रहते है ॥१६२।।
आशा के दास सब के दास है
आर्या
आशाया ये दासास्ते दासाः सर्वलोकस्य । अाशा येषां दायी तेषां दासायते लोकः ॥१६३।।