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सुभाषितमञ्जरो
पीछे दुःख, शोक आदि अन्य दुर्गतियो को भी देता है ॥१४०॥
क्रोध को छोडने का उपदेश तावत्तपो व्रतं ध्यानं स्वस्थचित्तं दयादिकम् । यावत्क्रोधो न जायेत तस्मात्क्रोधं त्यजेन्मुनिः ॥१४१॥ अर्थ - व्रत, ध्यान, स्वस्थ चित्त तथा दया आदिक तभी तक रहते है जब तक क्रोध उत्पन्न नही होता इसलिये मुनि को क्रोध छोड देना चाहिये ।।१४१।।
क्रोध रूप शत्रु दोनो लोको का विनाशक है लोकद्वयविनाशाय पापाय नरकाय च । स्वपरस्यापकाराय क्रोधशत्रुः शरीरिणाम ।।१४२।। अथ- क्रोधरूपी शत्रु मनुष्यो के दोनो लाको के विनाश के लिये, पाप के लिये, नरक के लिये तथा निज और पर के अपकार के लिये है ।।१४२॥
क्रोध के तीन भेद उत्तमस्य वणं कोपो मध्यस्य प्रहरद्वयम् । अधमस्य त्वहोरात्रं पापिष्ठस्य सदा भवेत् ।।१४३।। अर्था:- उत्तम मनुष्य का क्रोध क्षण भर ठहरता है, मध्यम