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सुभाषितमञ्जरो मार्ग में खडे हो चारित्र रूपी धनुप को लेकर तथ। बांधकर ध्यान रूपी वाण के द्वारा नष्ट करते है वे ही इस ससार मे सुखी है तथा मुक्ति मन्दिर को प्राप्त होते है ।।८२॥
गुरु सड्व का अभिनन्दन नक्षत्रावतपूरितं मरकतरथा विशानं नमः पीयुपा तिनारिये लकलितं सच्चन्द्रिकाचन्दनम् । यावन्मेरुकगणकङ्कण बरा धत्ते धरित्री वधू स्तावन्नन्दतु धर्मकर्मनिरतः श्रीजैनमक क्षितौ ॥३॥
M - मेरु पवत रूपी हस्तान के ककण को धारण करने वाली यह पृथ्वी रूपी वधू जब नक नक्षत्र रूपी अक्षतों से युक्त, चन्द्रमा रूपी नारियल से सहित एव चादनी रूपी चन्दन से सुशोभित आकाश रूपी विशाल नीलमणिमय स्थाल को धारण करती है तब तक धर्म कर्म मे लीन जैन गृत्यो का मव पृथ्वी पर आनन्द को प्राप्त हो-शिष्य प्रशिष्यो की परम्परा से वृद्धि युक्त हो ॥८३॥
___वे गुरु कल्याणकारी हो नि:पन्दीकृतचित्तचण्डविहगाः पञ्चाक्षकक्षान्तका ध्यानध्वस्तसमम्तकिल्विपधिपा विद्याम्बुधेः पारगाः ।