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सुभाषितमञ्जरो थे लोकमुन्नतधियः प्रणमामि नित्यं सानप्यहं गुरुवरान् शिवमार्गमिच्छुः ॥७८।। अश्रू.- ससार रूपी अटवी मे भ्राति उत्पन्न करने वाले अनेक मार्गो मे भटके हुए मनुष्य को जो मोक्ष का एक पद्वितीय मार्ग प्राप्त कराते है, मोक्ष मार्ग का इच्छुक मैं उत्कृष्ट बुद्धि के धारक उन श्रेष्ठ गुरुयो को निरन्तर प्रणाम करता हूँ ॥७॥
नमस्कार करने योग्य गुरु
उपजातिछन्द अनध रत्नत्रयमस्पदोऽपि निर्ग्रन्थतायाः पदमद्वितीयम् । जयन्ति शान्ताः स्मरवधूनां वैधव्यदास्ते गुरवो नमस्याः॥ आर्या - जो अमूल्य रत्नत्रय रूप सम्पदा से सहित होकर भी निर्ग्रन्थता-निष्परिग्रहता के अद्वितीय स्थान है, शान्त है तथा काम की वाधा से युक्त स्त्रियो के लिये वैवव्य प्रदान करने वाले है वे गुरु नमस्कार करने योग्य है ॥७६।।
गुरु वचन की दुर्लभता वैभवं सकलं लोके सुलभं भववर्तिनाम् । तत्वार्थदर्शिनां तथ्यं गुरूणां दुर्लभं वचः ।।८०|| अर्थः- संसार मे प्राणियो को समस्त वैभव सुलभ है परन्तु