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सुभाषितमञ्जरो लीलोन्मलितकमेकण्टकचपाः कारुण्यपुण्याशया योगीन्द्रा भवभीमदैत्यदलनाः कुर्वन्तु ते निवृतिम् ॥४॥ अर्था- जिन्होने मन रूपी प्रबल पक्षी को निश्चेष्ट कर दिया है, जो पञ्चेन्द्रिय रूपी वन को नष्ट करने वाले हैं, जिन्होने ध्यान के द्वारा समस्त पाप रूपी विष को नष्ट कर दिया है, जो विद्या रूपी सागर के पारगामी हैं, जिन्होंने कम रूपो काटो के समूह को अनायास ही उखाड दिया है, जिनका अभिप्राय दया से पुण्य रूप है, और जो संसार रूपी भयकर दैत्य को नष्ट करने वाले है ऐसे योगिराज-महामुनि तुम्हारा कल्याण करे ॥४॥
शिष्य का लक्षण गुरुभक्तो भवाद्भीनो विनीतो धार्मिकः सुधीः शान्तस्वान्तो वतन्द्राः शिष्टः शिष्योऽयमिष्यते ॥८५)
अर्थ- जो गुरु भक्त हो, ससार से भयभीत हो, विनीत हो धर्मात्मा हो, बुद्धिमान हो शान्तचित्त हो, आलस्य रहित हो, और सभ्य हो वह शिष्य कहा जाता है ।।८।।
गुरु से कोई ऋण रहित नही हो सकता गुरोः सनगरग्रामां ददाति मेदिनीं यदि । तथापि न भवत्येप कदाचिदनृण पुमान् ॥८६॥