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सुभाषितमञ्जरी भाव से दूसरो को प्रवर्ताते है । साथ ही जो स्वय तरते हैं तथा दूसरो को तारने मे समर्थ है ऐसे गुरु आत्म हितैषीजनो के द्वारा सेवनीय है ॥७३।
गुरु वचन ही पदार्थ दर्शक हैं अज्ञानान्धतम स्तोमविध्वस्ताशेषदर्शना । भव्या' पश्यन्ति मूदमार्या गुरुमानुषचोंऽशुभिः ॥७४॥ अर्था:-अज्ञान रूपी गाढ अन्धकार के समूह से जिनकी सम्पूर्ण दृष्टि नष्ट हो गई है, ऐसे भव्य जीव गुरु रूपी सूर्य के वचन रूपी किरणो के द्वारा सूक्ष्म पदार्थों का दर्शन करते है ॥७४॥
साधुओ का कषाय दमन
मालिनीछन्दः मरमपि हृदि येषां ध्यानवह्निप्रदीप्ते सकलभुवनमल्लं दह्यमानं विलोक्य । कृतिमिप इव नष्टास्ते कपाया न तस्मिन् पुनरपि हि समीयु साधवस्ते जयन्ति ॥७५।। अर्थ -ध्यान रूपो अग्नि से प्रदीप्त जिनके हृदय मे जलते. हुए सकल जगत् के मल्ल कामदेव को देख कर वे क्रोधादि कषाय, मानो बहाना बनाकर ही इस तरह भाग कर खडे