________________
सुभाषितमञ्जर सुहृत्स्वामी माघत्करिभटरयाश्वं परिकरः । निमज्जन्तं जन्तु नरककुहरे रक्षितुमलं गुरोधर्माधर्मप्रकटनपरात् कोऽपि न परः ॥७१॥ अर्थ-धर्म और अधर्म को प्रकट करने मे तत्पर गुरु के सिवाय कोई दूसरा पिता, माता, भाई, प्रिय सखी, पुत्रममूह मित्र, स्वामी, मदोन्मत्त हाथी, योद्धा, रथ, घोडा तथा परिजन नरक रूपी गर्त मे डूबते हुए जीव की रक्षा करने मे समर्थ नही है ।।७१।। . :
गुरु ही नौका है संसाराब्धी निमग्नानां कर्मयादःप्रपूरिते । भविनांभव्यचित्तानां तरण्डं गुरखो मताः ।।७२।। अर्या कर्मरूपी मगरमच्छो से भरे हुए ससार रूपी समुद्र मे निमग्न भव्य प्राणियो को तारने के लिये गुरु नौका सदृश माने गये है ॥७२॥
तरण तारण गुरु
वशस्थवृत्तम् अवमुक्ते पथि य प्रपतते, प्रवर्तयत्यन्यजनं च निस्पृह । स सेवितव्य' स्वहितौपिणा गुरु, स्वयं तरंसारपितु नम परम अर्थ.- जो निर्दोष मार्ग मे स्वय प्रवर्तते है तथा नि स्पृह